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Tuesday, January 6, 2015

संरचनात्मक निरंतरता की देन है ‘नीति आयोग’

नीति आयोग बन जाने के बाद जो शुरुआती प्रतिक्रियाएं हैं उनके राजनीतिक आयाम को छोड़ दें तो ज्यादातर राज्य अभी इसके व्यावहारिक स्वरूप को देखना चाहते हैं। इस साल वार्षिक योजनाओं पर विचार-विमर्श नहीं हुआ है। असम सरकार ने छठी अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों के लिए साधनों को लेकर चिंता व्यक्त की है। वहीं आंध्र सरकार अपनी नीति आयोग बनाने की योजना बना रहा है। तेलंगाना सरकार की समझ कहती है कि अब राज्य को बगैर किसी योजना आयोग की शर्तों से बँधे सीधे धनराशि मिलेगी। देखना यह है कि नीति आयोग का नाम ही बदला है या काम भी बदलेगा। केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय में भी भारी बदलाव होने जा रहे हैं। नए मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम आर्थिक सर्वेक्षण का रंग-रूप पूरी तरह बदलने की योजना बना रहे हैं। अब सर्वेक्षण के दो खंड होंगे। पहले खंड में अर्थ-व्यवस्था का विश्लेषण और विवेचन होगा। साथ ही इस बात पर जोर होगा कि किन क्षेत्रों में सुधार की जरूरत है। दूसरा खंड पिछले वर्षों की तरह सामान्य तथ्यों से सम्बद्ध होगा।


नए साल पर सरकार ने योजना आयोग की जगह नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया (राष्ट्रीय  भारत परिवर्तन संस्थान ) अंग्रेजी अक्षरों से संक्षेप में नीति आयोग बनाने की घोषणा की है। मोटे तौर पर यह छह दशक से चले आ रहे नेहरूवादी समाजवाद की समाप्ति की घोषणा है। इसका असर क्या होगा और नई व्यवस्था किस रूप में काम करेगी अभी स्पष्ट नहीं है। फिलहाल यह कदम प्रतीकात्मक है और व्यावहारिक रूप से संघीय व्यवस्था को रेखांकित करने की कोशिश भी है। कुछ लोगों ने इसे राजनीति आयोग बताया है। बड़ा फैसला है, जिसके राजनीतिक फलितार्थ भी होंगे। कांग्रेस भले ही इस बदलाव की आलोचना करे, पर इसकी शुरुआत यूपीए सरकार ने ही कर दी थी।
सन 1950 में जब योजना आयोग बनाया गया था तब यह महसूस किया गया कि देशी पूँजी का तो विकास ही नहीं हो पाया है। स्वदेशी बचत इतनी थी ही नहीं कि वह औद्योगीकरण कर पाती। ऐसे में सरकार को ही उद्यमी या कारोबारी की भूमिका अदा करनी है। इसलिए साम्यवादी व्यवस्थाओं की तरह भारत में भी सरकार ने अपने कारोबार खड़े करने का फैसला किया। पर हमारी व्यवस्था पूरी तरह साम्यवादी नहीं थी। यह मिश्रित अर्थ-व्यवस्था थी। अस्सी के दशक तक हमारे सार्वजनिक उद्योग ही अर्थ-व्यवस्था के मुख्य इंजन थे। साइकिलों, स्कूटरों और डबलरोटी तक के कारखाने सरकारी थे। पर सन 1991 से लागू उदारीकरण कार्यक्रम राष्ट्रीय निर्माण में निजी क्षेत्र और बाजार की ताकतों को शामिल करने के इरादे से ही शुरू किया गया था।

कभी केंद्रीयकृत नियोजन का मतलब कोटा-लाइसेंस राज था। कौन सी कम्पनी कितनी कारें बनाएगी इसका फैसला सरकार कर रही थी। पर पिछले दो दशक से कहानी बदल गई है। अब इसमें बाजार भी शामिल है। देखना यह है कि नई संस्था इसमें नयापन क्या लाएगी और इसका काम किस तरह चलेगी। वार्षिक और पंचवर्षीय योजना होंगी ही नहीं या होंगी तो किस प्रकार की होंगी? किस स्तर पर तैयार होंगी? साधनों की व्यवस्था कौन करेगा वगैरह। इस व्यवस्था में अब तक केंद्र सरकार की ही केंद्रीय भूमिका थी। अब राज्यों की भूमिका भी सामने आ रही है। इसलिए उसका व्यवहारिक पहलू भी समझना होगा।

इसका मतलब यह नहीं कि नियोजन या प्लानिंग की अर्थ-व्यवस्था में भूमिका खत्म हो जाएगी। पिछले हफ्ते की खबर है कि भारत सरकार ने अगले सात साल में सौर ऊर्जा पर 100 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है। लक्ष्य है सौर ऊर्जा की क्षमता एक लाख मैगावाट करना। भारत में सात लाख से 21 लाख मैगावॉट तक सौर बिजली बनाने लायक यानी यूरोपीय देशों के मुकाबले दुगनी धूप उपलब्ध है। देश में 30-50 मैगावाट/ प्रति वर्ग किलोमीटर छाया रहित खुला क्षेत्र होने के बावजूद उपलब्‍ध क्षमता की तुलना में देश में सौर ऊर्जा का दोहन काफी कम है (जो 31-5-2014 को 2647 मैगावाट थी)। अब यदि सरकार पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य को कई गुना आगे ले जाना चाहती है तो उसे निजी क्षेत्र और खासतौर से विदेशी पूँजी निवेश की व्यवस्था करनी होगी। इसके पीछे भी कोई योजना होगी। विदेशी कम्पनियाँ भारत में निवेश तभी करेंगी जब उन्हें नौकरशाही, कानूनों और नीतियों के मकड़जाल में फँसने का डर नहीं होगा। अब सरकार और संस्थाओं की भूमिका वही नहीं होगी, जो पहले थी।

योजना का एक पहलू हमारी संघीय व्यवस्था से जुड़ा है। अभी तक की योजना व्यवस्था में केंद्र सरकार की ही भूमिका थी। योजना आयोग सीधे प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह था। इससे एक प्रकार से यह राजनीतिक संस्था भी बन गई थी। माना यह जाता था कि यह राज्यों और केंद्र के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाएगी, पर व्यवहार में यह भेदभाव का जरिया भी बन गई थी। पसंदीदा और सत्ताधारी दल से जुड़े राज्य फायदे में रहते थे। विरोधी राज्यों को शिकायत रहती थी। देश के अनेक राज्य केंद्र से भी बेहतर काम करते रहे हैं। राजकोषीय घाटे को कम करने में उनका प्रदर्शन बेहतर रहा है। बावजूद इसके नीति-निर्धारण और साधनों के आवंटन में वे मार खाते रहे। कुशल और अकुशल राज्य अक्सर एक  पलड़े में तोल दिए जाते थे। अब यदि आंध्र प्रदेश सरकार अपना नीति आयोग बनाना चाहती है तो इसका मतलब यह है कि वह साधनों का इस्तेमाल खुद करना चाहती है। देश में साधनों के बँटवारे की एक अलग व्यवस्था है, जिसका सूत्रधार वित्त आयोग है, जिसकी स्थापना संवैधानिक नियमों से होती है। कई कारणों से यह संस्था योजना आयोग के सामने फीकी पड़ती थी।

राज्यों को उनकी योजना बनाकर केंद्र सरकार दे रही थी जबकि होना इसके उलट चाहिए। यानी गाँव के स्तर पर योजना बननी चाहिए और उसे ऊपर जाना चाहिए। इसके अलावा अलग-अलग इलाकों की जरूरत के हिसाब से काम होना चाहिए। केरल की जरूरत वही नहीं है जो उत्तराखंड की है। बेहतर हो कि राज्यों को केंद्रीय राजस्व में से उनका हिस्सा देकर उन्हें योजना बनाने को बढ़ावा दिया जाए। सिद्धांततः एक राष्ट्रीय विकास परिषद थी, जिसमें राज्यों की हिस्सेदारी होती थी, पर उनकी बात सुनता कौन था? केंद्र सरकार ने दिसम्बर में मुख्यमंत्रियों की बैठक इस सिलसिले में बुलाई थी और उनके सामने नई संस्था के प्रारूप को रखा गया था। नई व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर और क्षेत्रीय स्तर पर गवर्निंग काउंसिल होंगी, जिनमें राज्यों के मुख्यमंत्री भी होंगे। इसकी शक्ल और काम करने के तरीके के बारे में आने वाला समय ही बताएगा, पर आने वाले बजट में इसकी छाप दिखाई देगी, क्योंकि अब योजनागत और गैर-योजनागत खर्चों का फर्क नजर नहीं आएगा।

योजनागत और गैर-योजनागत व्यय में अंतर को खत्म करने की सिफारिश रंगराजन समिति ने की थी, जिसकी शुरूआत पिछले साल पी चिदंबरम के बजट से ही हो गई थी। उस बजट में तमाम केंद्र प्रायोजित योजनाओं को राज्य सरकारों को हस्तांतरित कर दिया गया था। राज्यों को धनराशि के आवंटन में योजना आयोग की भूमिका पहले से ही कम हो गई। अब चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट का इंतज़ार है, जिसके सुझाव 1 अप्रैल 2015 से लागू होंगे और 31 मार्च 2020 तक लागू रहेंगे। इस प्रकार मोदी सरकार का पहला बड़ा अध्याय खुलेगा। इसके सुझाव अब ज्यादा व्यावहारिक होंगे।

यह सिर्फ संयोग नहीं था कि दिसम्बर में बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह को खास तौर से उद्धृत किया। आर्थिक उदारीकरण का श्रेय मनमोहन सिंह को जाता है, जिसे नेहरूवादी रास्ते से हटने की शुरुआत कहा जाता है। मनमोहन सिंह बरसों से इसको पुनर्परिभाषित करने की बात करते रहे थे। अपने विदाई भाषण में भी उन्होंने लगातार खुल रही अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की भूमिका की समीक्षा करने की सलाह दी थी। मोदी सरकार पर यूपीए की योजनाओं को आगे बढ़ाने का आरोप लग रहा है। वस्तुतः 1991 के बाद से देश की सभी सरकारें अपने से पिछली सरकार को कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का काम कर रही हैं। मनमोहन सिंह सरकार ने अमेरिका के साथ जो न्यूक्लियर ल किया था उसकी आधार भूमि एनडीए सरकार बनाकर गई थी। सरकारी काम की यह निरंतरता होनी भी चाहिए।



1 comment:

  1. खुली अर्थव्यवस्था के इस युग में वह योजना आयोग असामयिक व अनुपयोगी हो गया था ,कांग्रेस तो महज इसलिए विरोध कर रही है क्योंकि उसे नेहरू ने बनाया था ,दूसरे उसे तो मोदी सरकार का विरोध करना ही है ,परिवर्तन विकास के लिए जरुरी है ,और जो नहीं करते वे समय के साथ काल के ग्रास बन जाते हैं ,कांग्रेस शायद यह भूल गयी है कि श्री मनमोहनसिंह ने भी उसे हटाने की वकालत की थी पर वे तो कैसे हटा सकते थे ?

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