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Sunday, January 18, 2015

गूगल एडसेंस के बहाने मीडिया पर विमर्श

यों तो मैने कई ब्लॉग बना रखे हैं, पर नियमित रूप से जिज्ञासा और ज्ञानकोश को अपडेट करता हूँ। हाल में मेरी एक पोस्ट पर श्री अनुराग चौधरी ने टिप्पणी में सुझाव दिया कि मैं गूगल एडसेंस से जोड़ूं। उनकी टिप्पणी निम्नलिखित थी_-


आदरणीय जोशीजी, सादर नमस्कार।
आपका ब्लॉग हमेशा देखता हूँ और मैं इंतजार कर रहा हूँ की आपके ब्लॉग पर कब adsense के विज्ञापन चालू हो परन्तु अभीतक चालू नहीं हुए हैं। कृपया adsense के लिया apply करें आपका ब्लॉग adsense के लिए फिट है। Google ने हिंदी ब्लॉगों पर adsense शुरू कर दिया है। दूसरी बात यह है कि आपके ब्लॉग की सामग्री के अनुसार visitor संख्या कम है। कृपया कुछ समय निकल कर सर्च सेटिंग सही करें अथवा प्रत्येक पोस्ट को एक एक कर के गूगल सर्च इंजिन पर रजिस्टर करें।-अनुराग चौधरी

उसके पहले कई तरफ से जानकारी मिली थी कि अब हिन्दी में लिखे जा रहे ब्लॉगों को भी गूगल एडसेंस की स्वीकृति मिल रही है। उनकी बात मानकर मैने एडसेंस को अर्जी दी और वह स्वीकृत हो गई।
आप मेरे इन दोनों ब्लॉगों पर अब विज्ञापन देख सकते हैं। मेरे ब्लॉग पर ट्रैफिक बहुत ज्यादा नहीं है। अमूमन एक दिन में सवा सौ से दो सौ तक हिट होते हैं। इसका मतलब है कि एडसेंस से मुझे कोई बड़ी आमदनी होने वाली नहीं है। यों मैने जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था तब आमदनी की बात सोची भी नहीं थी। शायद मेरे लेख उतने रोचक नहीं होते कि ब्लॉग बहुत लोकप्रिय हो। दूसरे एडसेंस उनके लिए उपयोगी है जो वैबसाइट के कारोबार को बेहतर समझते हैं। यानी SEO (Search engine optimization) में भी कुशल हों। जिस तरह के फॉर्मूले अखबारों के सर्कुलेशन वाले अपनाते हैं उसी तरह वैबसाइट के अपने फंडे हैं। मेरी तकनीकी समझ सीमित है। उससे जुड़े मसले भी अलग हैं। फिलहाल यहाँ मैं उसके बारे में ज्यादा लिखना नहीं चाहता।

मेरी दिलचस्पी पत्रकारिता के कारोबार को रेखांकित करने में है। हिन्दी में  अक्सर मिशनरी पत्रकारिता का काफी जिक्र होता है। यानी पत्रकारिता का कोई मिशन था। पर मेरी समझ से हिन्दी पत्रकारिता के शुरुआती वर्ष कारोबारी पत्रकारिता के थे। शुरुआती पत्रकार लिखने-पढ़ने के अलावा प्रूफ रीडिंग, कम्पोजिग, कटिंग-बाइंडिंग और यहाँ तक की प्रिंटिंग का काम भी करते थे। अखबार को बेचते भी थे। लगभग वैसा ही अनुभव इस प्रारम्भिक ब्लॉग पत्रकारिता में हो रहा है।
मैं जितना उसे जानने की कोशिश कर रहा हूँ उससे लगता है कि मुझे लिखने और पढ़ने से ज्यादा समय मार्केटिंग को देना होगा। व्यावहारिक जीवन में भी मैने इस बात को सच होते देखा है। पत्रकारिता में मैने देखा कि यदि पढ़ने-लिखने और सोचने-समझने के बजाय पीआऱ और जन-सम्पर्क पर ध्यान दें तो सफलता ज्यादा मिलता है। बेशक असाधारण रूप से अच्छे आलेख और विश्लेषण को तारीफ मिलती है, पर निर्भर करता है कि आलेख किसका है। सोशल मीडिया पर भी क्लाउट चलता है। इसके माने हैं कि आप डिटैच होकर नहीं अटैच होकर रहिए। उनसे जुड़िए जो सफल हैं।

ज्यादातर लोगों को मदद की दरकार है। आप यदि उनकी मदद कर सकें तब वे आपकी ओर ध्यान देंगे। पिछले साल चुनाव के पहले मुझे एक मीडिया संस्थान के सम्पर्क में आने का मौका मिला। उन्हें सम्पादकीय टीम को लीड करने वाले किसी व्यक्ति की तलाश थी। काम था सोशल मीडिया में  क्लाइंट की छवि को दुरुस्त रखना। मैंने उस काम में दिलचस्पी नहीं दिखाई, पर पता लगा कि शायद क्लाइंट राजनीतिक पार्टी या पार्टियाँ थीं। जो होना था हुआ। यानी चुनाव में सोशल मीडिया का एक नए रूप में इस्तेमाल हुुआ।

अखबार में काम करते हुए मुझे अलग-अलग दौर में अलग-अलग अनुभव होते गए। मुख्य धारा का मीडिया सिस्टम और व्यवस्था विरोधी नहीं होता।  'मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट' हाल का शब्द है, पर पिछले चार सौ साल में मुख्यधारा के अखबारों ने बाजार व्यवस्था को तोड़ने का काम कभी नहीं किया। वे इसका अंग थे। बल्कि वे बाजार व्यवस्था की देन हैं। अलबत्ता बाजार व्यवस्था को कोसने का फैशन है। पत्रकारों के अविवेकी होने और अपने फायदे के लिए किसी की निन्दा या स्तुति में लगना क्या बाज़ार व्यवस्था की देन है? पर उसके पहले देखना होगा कि किस बात का बाजार।

पाठक को यदि सूचना और विचार चाहिए तो वह जानकारी में तोड़फोड़ और विचार में चोरी पसंद क्यों करेगा? क्या हम पाठक के लिए काम नहीं करते? मेरी समझ से पाठक के बाजार से ज्यादा प्रभावशाली विज्ञापन का बाजार है। प्रचार के बाजार के पास काफी पैसा है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले का मेहनताना खबर लिखने वाले से कहीं ज्यादा होता है। पश्चिमी देशों के पाठकों की समझदारी किस प्रकार की है इसके बारे में मैं ज्यादा जानकारी नहीं रखता, पर मुझे हिन्दी इलाके के पाठकों को लेकर संदेह है। उनकी ईमानदारी को लेकर मुझे संदेह नहीं है, पर समझदारी को लेकर है। उनकी नासमझी भी मीडिया को अनावश्यक रूप से सनसनीखेज, लाउड और भटका हुआ बनाती है। यह बात मैं क्यों कह रहा हूँ इसपर फिर कभी। 

1 comment:

  1. मुझे लगता है कि आप बस लिखते रहें। गूगल को ट्रिक या अन्य नियमों में कोई बेवकूफ बहुत समय तक नहीं बना सकता।

    बहुत बधाई सर। :)

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