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Monday, December 29, 2014

रक्षा और तकनीक की चुनौतियाँ

विज्ञान, तकनीक और खासतौर से रक्षा तकनीक के मामलों में हमें सन 2015 में काफी उम्मीदें हैं। पिछले साल की शुरूआत भारत के मंगलयान के प्रक्षेपण की खबरों से हुई थी। सितम्बर में मंगलयान अपने गंतव्य तक पहुँच गया। साल का अंत होते-होते दिसम्बर जीएसएलवी मार्क-3 की सफल उड़ान के बाद भारत ने अंतरिक्ष में समानव उड़ान का एक महत्वपूर्ण चरण पूरा कर लिया है। अंतरिक्ष में भारत अपने चंद्रयान-2 कार्यक्रम को अंतिम रूप दे रहा है। साथ ही शुक्र और सूर्य की ओर भारत के अंतरिक्ष यान उड़ान भरने की तैयारी कर रहे हैं। एक अरसे से रक्षा के क्षेत्र में हमें निराशाजनक खबरें सुनने को मिलती रही हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह की तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखी गई चिट्ठी के लीक होने के बाद इस आशय की खबरें मीडिया में आईं कि सेना के पास पर्याप्त सामग्री नहीं है।

रक्षा से जुड़े अनेक फैसलों का कार्यान्वयन रुका रहा। युद्धक विमान तेजस, अर्जुन टैंक और 155 मिमी की संवर्धित तोप के विकास में देरी हो रही है। मोदी सरकार के सामने रक्षा तंत्र को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी है। कई प्रकार की शस्त्र प्रणालियाँ पुरानी पड़ चुकी हैं। मीडियम मल्टी रोल लड़ाकू विमानों के सौदे को अंतिम रूप देना है। सन 2011 में भारत ने तय किया था कि हम फ्रांसीसी विमान रफेल खरीदेंगे और उसका देश में उत्पादन भी करेंगे। वह समझौता अभी तक लटका हुआ है। तीनों सेनाओं के लिए कई प्रकार के हेलिकॉप्टरों की खरीद अटकी पड़ी है। विक्रमादित्य की कोटि के दूसरे विमानवाहक पोत के काम में तेजी लाने की जरूरत है। अरिहंत श्रेणी की परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी को पूरी तरह सक्रिय होना है। इसके साथ दो और पनडुब्बियों के निर्माण कार्य में तेजी लाने की जरूरत है।


रक्षा तकनीक में स्वदेशीकरण का रास्ता साफ करना है, जिसके लिए कुछ बड़े नीतिगत फैसले सरकार ने किए भी हैं। इस साल सरकार ने तीन बार रक्षा उपकरणों की खरीद के प्रस्तावों को स्वीकृति दी है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने जनवरी 2015 में अपने अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल ‘अग्नि-5’ के संशोधित संस्करण के परीक्षण की तैयारियाँ भी कर रखी हैं। सम्भवतः यह परीक्षण 7-8 जनवरी को होगा। ‘अग्नि-5’ का पहला परीक्षण अप्रैल 2012 में किया गया था। उस समय यह प्रक्षेपण मिसाइल की अधिकतम दूरी क्षमता 5 हज़ार किमी पर किया गया था|

भारत ने पिछले साल जापान को नए साझीदार के रूप में पाया है। जापान के साथ यूएस-2 एम्फीबियस विमान बनाने का समझौता सम्भवतः इस साल अंतिम रूप लेगा। स्वदेशी हल्का युद्धक विमान तेजस वायुसेना के जंगी बेड़े में शामिल होने के करीब पहुंच गया है। अब विमान को अंतिम परिचालन प्रमाण पत्र (एफओसी) मिलने का इंतजार है। इस साल उसे फाइनल ऑपरेशनल सर्टिफिकेट भी मिल जाएगा। यानी यह विमान पूरी तरह सेवा में आ जाएगा। भारतीय संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) द्वारा सशस्त्र सेनाओं के लिए खासतौर पर एक नया संचार नेटवर्क जुलाई 2015 तक तैयार किए जाने की संभावना है।

अंतरिक्ष अनुसंधान के लिहाज से इस साल भारत का काफी व्यस्त कार्यक्रम है। इसरो कम से कम पाँच विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण करेगा। इनमें तीन ब्रिटेन के और दो उपग्रह इंडोनेशिया के हैं। 18 दिसम्बर को जीएसएलवी मार्क-3 की सफलता से इस रॉकेट ने सब-ऑर्बिटल उड़ान में सफलता हासिल की थी। अब उसपर नए क्रायोजेनिक इंजन के साथ संचार उपग्रह जीसैट-6 का प्रक्षेपण सम्भवतः अप्रेल में होगा। इसके बाद भारत 4 टन तक के भारी उपग्रहों का प्रक्षेपण भी करने लगेगा। नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया के लिए उपग्रह बनाने का सुझाव दिया है। सम्भव है इस साल उस दिशा में भी हमारा देश कदम बढ़ाए। यह उपग्रह पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बेहतर बनाने में भी मददगार होगा।

सन 2015 में भारत सात नेवीगेशन उपग्रहों की श्रृंखला में चार और उपग्रहों का प्रक्षेपण करके क्षेत्रीय नेवीगेशन सिस्टम को पूरी तरह तैयार कर लेगा। ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम का इस्तेमाल हवाई और समुद्री यात्राओं के अलावा सुदूर इलाकों से सम्पर्क रखने में होता है। काफी ज़रूरत सेना को होती है। खासतौर से मिसाइल प्रणालियों के वास्ते। हमारी प्रणाली दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और सुदूर पूर्व तक काम करेगी। अमेरिकी जीपीएस, रूसी ग्लोनास, चीनी बेइदू और यूरोपीय व्यवस्था गैलीलियो भू-मंडलीय प्रणालियाँ हैं। छोटा होना भारतीय व्यवस्था के लिए लाभकारी है, क्योंकि वह भू-मंडलीय व्यवस्थाओं के मुक़ाबले सस्ती होगी। इसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण काम है वायु मार्ग की दिशासूचक प्रणाली ‘गगन’ को चालू करना। ‘गगन’ का पूरा नाम है जीपीएस एडेड जियो ऑगमेंटेड नेवीगेशन। यह प्रणाली भारतीय आकाश मार्ग से गुजर रहे विमानों के पायलटों को तीन मीटर तक का अचूक दिशा ज्ञान देगी।

हर साल की शुरूआत भारतीय विज्ञान कांग्रेस के साथ होती है। पिछले साल भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने 100 साल पूरे करके 101 वें साल में प्रवेश किया था। इंडियन साइंस एसोसिएशन सन 1914 से काम कर रही है। सन 2013 में कोलकाता में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के साथ इसका शताब्दी-वर्ष शुरू हुआ था। उससे पहले भुवनेश्वर में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हम विज्ञान और तकनीक में चीन से पिछड़ गए हैं। इस साल यह कांग्रेस मुम्बई में हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 जनवरी को 102वें भारतीय विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करेंगे। इस12,000 प्रतिनिधियों के अलावा सात नोबेल पुरस्कार विजेता और नोबेल की बराबरी के पुरस्कारों के चार विजेता वैज्ञानिक शामिल होंगे। इस साल के आयोजन का विषय है ‘मानव विकास के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी।’

आर्थिक विकास के बरक्स विज्ञान और तकनीकी विकास देश की वास्तविक शक्ति को प्रकट करता है। हमारी काबिलीयत देश के लिए जरूरी तकनीक का देश के भीतर ही विकास करने में है। हालांकि अब ऐसा समय नहीं है कि सारी तकनीक किसी एक जगह पर विकसित हो। अब किसी प्रणाली की योजना एक जगह बनती है और उसके अलग-अलग हिस्सों को पूरा करने की जिम्मेदारी अलग-अलग संस्थाएं अपने ऊपर लेती हैं। विमान बनाने वाली बड़ी से बड़ी कम्पनियाँ इंजन खुद नहीं बनातीं, बल्कि वे कहीं से खरीदती हैं। इसी तरह दिशा ज्ञान कराने वाले उपकरण कहीं और बनते हैं। शस्त्र प्रणालियाँ कहीं और विकसित होती हैं। अलग-अलग विशेषज्ञताओं को एक जगह जोड़ने की विशेषज्ञता अपनी जगह है। पर हमारे साथ सहयोग करने के लिए विदेशी संस्थाएं तभी आगे आएंगी जब हम अपनी सामर्थ्य को साबित करेंगे। दूसरी बात कुछ संवेदनशील तकनीकों के विकास से जुड़ी है। इन तकनीकों को सीधे कम्पनियों से नहीं खरीदा जा सकता, भले ही वे निजी क्षेत्र में हैं। सुरक्षा, नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष अनुसंधान से जुड़ी तकनीक सरकारों की सहमति के बगैर एक देश से दूसरे देश में नहीं जा सकती। इस लिहाज से यह विदेश नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा होती हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित


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