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Sunday, November 23, 2014

संतों की सामाजिक भूमिका भी है

बाबा रामपाल प्रकरण के बाद भारतीय समाज में बाबाओं और संतों की भूमिका को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। तेजी से आधुनिक होते देश में संतों-बाबाओं की उपस्थिति क्या किसी विसंगति की और संकेत कर रही हैं? क्या बाबाओं, संतों, साधु-साध्वियों, आश्रमों और डेरों की बेहतर सामाजिक भूमिका हो सकती है या वह खत्म हो गई? एक ओर इन संस्थाओं का आम जनता के जीवन में गहरा प्रभाव नजर आता है वहीं इनके नकारात्मक रूप को उभार ज्यादा मिल रहा है। नई पीढ़ी और खासतौर से लड़कियों के पहनावे, मोबाइल फोन के इस्तेमाल और शादी-विवाह को लेकर ये परम्परागत संस्थाएं मीडिया के निशाने पर हैं। क्या वास्तव में इनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं बची?

सन 1857 से लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ तमाम सामाजिक आंदोलन इन परम्परागत संस्थाओं-संगठनों की मदद से ही चले। अलीगढ़ मुस्लिम विवि, काशी हिन्दू विवि, डीएवी कॉलेज, आर्य कन्या पाठशालाएं और खालसा कॉलेज धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलनों की देन हैं। महात्मा गांधी की अपील धार्मिक और सांस्कृतिक रंग से रंगी थी। पर उसमें साम्प्रदायिकता नहीं समभाव था। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा का इस्तेमाल राष्ट्रीय आंदोलन में हुआ। केवल भारत में ही नहीं वियतनाम में हो ची मिन्ह जैसे कम्युनिस्ट नेता ने अपने आंदोलन में धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का सहारा लिया। आज भी तमाम छोटे-छोटे बदलावों के साथ इन्हें जोड़ा जाए तो सार्थक परिणाम दिखाई पड़ेगा।


महात्मा गांधी ने चरखा कातने को यज्ञ की संज्ञा दी थी। वस्तुतः यह एक प्रकार की सामूहिक पहल थी। जब करोड़ों लोग एकसाथ चरखा चलाएंगे तो उससे उत्पन्न सामाजिक ऊर्जा हमें आगे ले जाती है। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत का नारा दिया है। इसे पूरा करने के लिए भी ऐसे ही किसी सामाजिक यज्ञ की जरूरत है। हाल में दिल्ली में दिल्ली में एक अभिनव प्रयोग शुरू हुआ है। युनिसेफ की पहल पर नौ प्रमुख धर्मगुरुओं ने एक मंच पर आकर भारत के लाखों बच्चों को बचाने के लिए वैश्विक पहल- जीवा-भारत, ग्लोबल इंटरफेथ वॉश एलायंस (वॉश यानी पानी, सफाई व्यवस्था तथा स्वच्छता के लिए वैश्विक अंतरधर्म संधि) की घोषणा की। धर्मगुरुओं ने स्वच्छ भारत अभियान की भावना को अपनाते हुए अपने अनुयाइयों और समुदायों तक वॉश (जल, स्वच्छता, सफाई व्यवस्था) के संदेश को पहुंचाने के लिए संकल्प लिया ताकि संपूर्ण भारत में घरों और समुदायों को साफ पानी, सफाई व्यवस्था तथा निजी स्वच्छता बेहतर उपलब्ध हो सके।

इसी हफ्ते 29-30 नवंबर को ऋषिकेश में वर्शिप टू वॉश समिट और विमेन फॉर वॉश (वॉश के लिए महिलाएं) होने वाला है। यह शिखर सम्मेलन पहली बार महिला धर्मगुरुओं को भी एक मंच पर लाएगा। हाल के वर्षों में भारत की उपलब्धि पोलियो निवारण के रूप में रही है। देश के मीडिया और सामाजिक संस्थाओं को इसकी सफलता का श्रेय दिया जा सकता है। इस काम में भी धर्म गुरुओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जीवा धर्मगुरुओं को साथ जोड़ कर एक ऐसे संसार के निर्माण की संसार की प्रथम पहल है जिसमें सभी के पास बेहतर सफाई व्यवस्था, सुरक्षित पेयजल और समुचित स्वच्छता तक अच्छी पहुंच हो। जीवा का वैश्विक उद्घाटन 25 सितंबर, 2013 को यूनिसेफ मुख्यालय में संयुक्त राष्ट्र महासभा सप्ताह के दौरान किया गया था। हाल में  युनिसेफ ने नियमित टीकाकरण के काम में तेजी लाने के उद्देश्य से क्षेत्रीय मीडिया के साथ कुछ वर्कशॉप किए। इनमें एक बात यह भी निकल कर आई कि धार्मिक-सामाजिक नेताओं तथा खापों और पंचायतों की मदद लेनी चाहिए। इससे खापों को अपनी बदली हुई सामाजिक भूमिका का अहसास भी होगा। यही काम शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण रक्षा के क्षेत्र में भी किया जा सकता है।

इधर कुछ महत्वाकांक्षी ‘संत-महात्माओं’ और सामाजिक संगठनों ने मर्यादा की सीमा रेखा तोड़ी भी है। इसका एक कारण राजनीति है। व्यक्तिगत या संगठनात्मक स्तर पर उन्हें राजनीति में प्रवेश का यह रास्ता आसान दिखाई दिया। पर सच यह है कि हमारा समाज संतों को राजनीति में देखना पसंद नहीं करता। वे सामाजिक बदलाव में भूमिका निभाते हैं तो अच्छा लगता है। पर सामाजिक बदलाव धीमी प्रक्रिया है। इसे तेज करने के लिए प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक नेताओं की जरूरत हमेशा होती है। वे अप्रासंगिक नहीं है। व्यक्ति के जीवन में इनकी उपयोगिता न होती तो ये काफी पहले अप्रासंगिक हो चुके होते। पर इन्हें विलेन की तरह पेश करने के बजाय मीडिया इन्हें सकारात्मक कार्यों के लिए प्रेरित भी कर सकता है।

मीडिया के विस्तार के कारण गाँवों और कस्बों में महानगरीय संस्कृति का प्रभाव बढ़ने के कारण कुछ विसंगतियाँ पैदा हुईं हैं जिन्हें दूर होने में कम से कम एक पीढ़ी तो लगेगी। यह केवल भारत का ही मामला नहीं है। कैथलिक देश ब्राज़ील में परिवार नियोजन का संदेश फैलाना काफी मुश्किल काम था। सरकारी प्रचार का असर उल्टा होता। इसके लिए वहाँ के लेखकों-कलाकारों ने टीवी का सहारा लिया। टीवी वहाँ काफी लोकप्रिय है, खासतौर से टेलीनोवेला (सोप ऑपेरा)। 1970 के आसपास एक औसत ब्राजीली महिला की छह संतानें होती थीं। सोप ऑपेराओं ने ऐसे स्त्री पात्र पेश किए जिनकी पचास तक की उम्र के कोई संतान नहीं होती और बाकी की एक संतान होती। नोवेला ने श्रेष्ठ जीवन का जो खाका पेश किया वह ब्राजील के आम जीवन से फर्क था। ब्राजील के सुस्त शुद्धाचारी संयमी समाज में सोप ऑपेरा ने अनेक रचनात्मक और प्रगतिशील कलाकारों को अभिव्यक्ति का मौका दिया। यह काम समाज से टकराकर नहीं रास्ता दिखाकर किया गया।

हाल में नरेंद्र मोदी ने कहा, हर काम के लिए सरकार का इंतज़ार न करें। बेशक सामाजिक पहल से सारे काम हो सकते हैं। पर सामाजिक बदलाव अपने आप नहीं होता। उसमें सक्रिय ताकतें बदलाव को लाती हैं। उसके पहले समझना यह होगा कि इन ताकतों को उद्देश्य क्या है। सैकड़ों साल से चली आ रही परम्पराओं की अपनी विरासत होती है। उनमें बदलाव होना है तो उनके भीतर से ही होगा। बाहरी दबाव और टकराव से हालात बनने के बजाय बिगड़ेंगे। युनिसेफ-जीवा जैसी पहल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है। इसमें शामिल धर्म गुरुओं की अपनी साख है। उन्हें और अन्य सम्मानित सामाजिक नेताओं को साथ लेकर हम बड़े बदलाव की भूमिका तैयार कर सकते हैं। ऐसा हुआ तो हम अपनी दुकानें खड़ी करने वाले फर्जी धर्म-गुरुओं के जाल से भी बच सकेंगे।

हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. अब बाबा गिरी सामाजिक धार्मिक सेवा या विषय से कोई सरोकार नहीं रखती,अब यह व्यवसाय बन गयी है,साथ ही व्याभिचार का साधन। इस लिए इन से बच कर ही रहना चाहिए ,भगवान का स्मरण घर बैठ कर किया जा सकता है ,सतकर्म, सदभावना ,सभी के प्रति प्रेम ही धर्म है अन्यथा यह मठ ,आश्रम व डेरे सब अवगुणों से ही भरे पड़े हैं, व समाज कंटकों के जमावड़े हैं

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