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Thursday, November 20, 2014

आक्रामक राजनय का दौर

पिछले तीन महीने में भारत की सामरिक और विदेश नीति से जुड़े जितने बड़े कदम उठाए गए हैं उतने बड़े कदम पिछले दो-तीन दशकों में नहीं उठाए गए। इसकी शुरूआत 26 मई को नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से हो गई थी। इसमें पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर भारत ने जिस नए राजनय की शुरूआत की थी उसका एक चरण 25 से 27 नवम्बर को काठमांडू में पूरा होगा। दक्षेस देशों के वे सभी राजनेता शिखर सम्मेलन में उपस्थित होंगे जो दिल्ली आए थे। प्रधानमंत्री ने 14 जून को देश के नए विमानवाहक पोत विक्रमादित्य पर खड़े होकर एक मजबूत नौसेना की जरूरत को रेखांकित करते हुए समुद्री व्यापार-मार्गों की सुरक्षा का सवाल उठाया था। उन्होंने परम्परागत भारतीय नीति से हटते हुए यह भी कहा कि हमें रक्षा सामग्री के निर्यात के बारे में भी सोचना चाहिए।


यह एक महत्वपूर्ण नीतिगत वक्तव्य था। अभी तक भारत सरकार शस्त्र निर्यात के खिलाफ रही है। पिछले महीने वियतनाम के प्रधानमंत्री न्युन तंग जुंग की भारत यात्रा के बाद खबरें मिली हैं कि रूस के सहयोग से विकसित ब्रह्मोस मिसाइल वियतनाम को निर्यात करने का समझौता होने वाला है। ऐसा हुआ तो भारत की रक्षा-नीति में यह बड़ा बदलाव होगा। बहरहाल इस दौरान जापान, चीन और अमेरिका के साथ बातचीत के निर्णायक दौर पूरे हो चुके हैं। देश की व्यापारिक, सामरिक और राजनयिक नीतियों के अंतर्विरोध भी सामने आए हैं। उन अंतर्विरोधों को दूर करने की कोशिशें भी शुरू हुई हैं। हाल में रक्षा सामग्री खरीद के कुछ प्रस्ताव पास हुए हैं। साथ ही भारत सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ की अवधारणा को आगे बढ़ाया है।


सामरिक दृष्टि से भारत और जापान के बीच यूएस-2 एम्फीबियस विमान की खरीद और उसके भारत में निर्माण का समझौता अपने अंतिम दौर में है। यह समझौता भारत में एकदम नए किस्म की तकनीक के आगमन की घोषणा तो कर ही रहा है साथ ही जापान की भावी सामरिक नीतियों पर से पर्दा उठाने वाला भी साबित होगा। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच सामरिक सहयोग का एक नया क्षितिज खुला है। सन 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में जो ठंडापन आ गया था, वह खत्म हो रहा है। सन 2009 के भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील की तार्किक परिणति के रूप में ऑस्ट्रेलिया से यूरेनियम की सप्लाई का समझौता भी अपने अंतिम चरण में है। पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है सामरिक दृष्टि से ‘इंडो-पैसिफिक’ अवधारणा का विकास।

इस इलाके में भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान, इंडोनेशिया और वियतनाम की नई साझेदारी उभर रही है, जो चीन की बढ़ती ताकत के बरक्स तैयार हुई है। सम्भावना है कि भारत-ऑस्ट्रेलिया और जापान के सहयोग से सोर्यू क्लास की पनडुब्बियाँ बनाने का समझौता भी भविष्य में गा। जापान के पास दुनिया की सर्वश्रेष्ठ तकनीक उपलब्ध है। चूंकि वह अपनी संवैधानिक व्यवस्थाओं के कारण रक्षा सामग्री का निर्यात नहीं करता। पर अब उसकी नीतियों में बदलाव आ रहा है। हिंद महासागर में चीन की गतिविधियाँ बढ़ने के बाद से भारत ही नहीं ऑस्ट्रेलिया भी बेचैन है। चीन ने श्रीलंका में बंदरगाहों के निर्माण में मदद देकर अपनी जगह बना ली है। हालांकि उसके सामरिक इरादे स्पष्ट नहीं हैं, पर हाल में कम से कम दो बार श्रीलंका के बंदरगाहों पर चीनी पनडुब्बियाँ देखी गईं।

श्रीलंका की स्थिति ऐसी है जहाँ से एक ओर ऑस्ट्रेलिया और दूसरी ओर अफ्रीका के पूर्वी तट पर बल्कि सुदूर दक्षिण में अंटार्कटिका तक निगाह रखी जा सकती है। बेशक चीन का उद्देश्य अपने मालवाही पोतों के आवागमन को सुनिश्चित करना है। यह काम उसकी नौसेना की निगहबानी में ही होगा। भारत का नजरिया अपने इलाके की रक्षा के साथ-साथ अपने व्यापार के दायरे को बढ़ाना भी है। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच 15 अरब डॉलर का कारोबार होता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया और चीन के बीच इसका दस गुना यानी 150 अरब डॉलर का कारोबार है। भारत को देखना है कि अपने कारोबार का विस्तार किस तरह करे।

ऑस्ट्रेलिया ने मंगलवार को घोषणा की कि वह शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भारत को यूरेनियम की आपूर्ति का इच्छुक है। नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत के बाद ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबट ने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में यह बात कही। मोदी ने कहा कि दोनों देश असैन्य परमाणु करार को जल्द से जल्द पूरा करें जिससे ऑस्ट्रेलिया इस क्षेत्र में भारत का भागीदार बन सके। दोनों देशों के बीच पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए जो सामाजिक सुरक्षा, कैदियों की अदला-बदली, मादक पदार्थों के व्यापार पर लगाम लगाने और पर्यटन, कला एवं संस्कृति को आगे बढ़ाने से जुड़े हैं।

हिंद महासागर में चीन की सक्रियता बढ़ी है और उसकी पहलकदमी को श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान का परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन हासिल है। हमारे पड़ोसी देशों का यह अतिशय चीन-प्रेम क्यों? पाकिस्तान की बात समझ में आती है, पर श्रीलंका और मालदीव का भारत से किस बात पर टकराव है? इस बात को भी हमें समझने की जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों में चीन ने श्रीलंका पर जिस प्रकार की धन-वर्षा की है उससे जाहिर है कि उसे इस इलाके में पैर रखने के लिए ज़मीन चाहिए, जिसकी वह कई भी कीमत देने को तैयार है। कोई वजह है कि भारत-श्रीलंका कारोबार घट रहा है वहीं चीन से उसका कारोबार बढ़ रहा है। चीन का जोर इंफ्रास्ट्रक्चर पर है। श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह के लिए भारत के सामने पहले प्रस्ताव आया था। उसपर बात चल ही रही थी कि चीन ने बेहद आकर्षक शर्तों के साथ उस प्रस्ताव को झपट लिया।

एक सच यह है कि भारत का व्यापारिक राजनय कमज़ोर है। चीन की ज्यादातर कम्पनियाँ सरकारी हैं, जिन्हें सरकारी संस्थाओं का जबर्दस्त समर्थन मिलता है। उनके मुकाबले भारतीय निजी क्षेत्र की कम्पनियों को देश की वित्तीय संस्थाओं का वैसा समर्थन नहीं मिलता जैसा चीनी कम्पनियों को मिलता है। इंफ्रास्ट्रक्चर में यों भी चीन ने समय रहते बढ़त ले ली थी। निवेश के अलावा चीन से श्रीलंका को राजनयिक समर्थन भी मिलता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में उसके खिलाफ प्रस्ताव के पक्ष में भारत वट देता है और चीन समर्थन। भारत को तमिल नागरिकों के हितों को भी देखना होता है। सन 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते के तहत भारत के खिलाफ श्रीलंका के किसी बंदरगाह का सामरिक इस्तेमाल नहीं हो सकता, पर इसकी गारंटी कौन लेगा? देश के संविधान के 13वें संशोधन के तहत देश के तमिल बहुल क्षेत्र को स्वायत्तता मिलनी चाहिए। पर इसमें आना-कानी की जा रही है। श्रीलंका लम्बे अरसे तक भारत की उपेक्षा भी नहीं कर सकता।

विकासशील देशों को इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पैसा और तकनीकी मदद चाहिए। चीन के पास दोनों चीजें हैं। भारत के पड़ोसी देशों को वह अंतरिक्ष तकनीक से जोड़ रहा है। यह काम हमने क्यों नहीं किया? शायद इसी बात को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशियाई देशों के लिए एक उपग्रह तैयार करने की सलाह इसरो को दी है। कुछ ऐसे काम हैं जो केवल हम ही कर सकते हैं। इन सब देशों को जमीनी रास्ते से जोड़ने का काम भारत ही कर सकता है। अफगानिस्तान को गेहूँ भेजने के लिए भारत ने पाकिस्तान से सड़क का रास्ता खोलने का आग्रह किया है। इसमें कई तरह के अड़ंगे लगाए जा रहे हैं। इस मनोवृत्ति को तोड़ने की जरूरत भी है। इस लिहाज से काठमांडू शिखर सम्मेलन पर हमें ध्यान देना होगा।


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