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Saturday, October 11, 2014

ई-रिटेल का खेल, अभी तो यह शुरुआत है

फ्लिपकार्ट की बिग-बैंग सेल के बाद भारत के ई-रिटेल को लेकर कई बातें रोशनी में आईं हैं। इसकी अच्छाइयों और बुराइयों के किस्से सामने हैं, कई पेचीदगियों ने सिर उठाया है और सम्भावनाओं का नया आसमान खुला है। इस नए बाज़ार ने व्यापार कानूनों के छिद्रों की ओर भी इशारा किया है। यह बाज़ार इंटरनेट के सहारे है जिसकी पहली पायदान पर ही हम खड़े हैं। ‘बिग बिलियन डे’ की सेल ने नए मायावी संसार की झलक भारतवासियों को दिखाई साथ ही फ्लिपकार्ट की प्रबंध क्षमता और तकनीकी प्रबंध पर सवाल भी उठाए। इसके लिए उसके सह-संस्थापकों सचिन बंसल और बिनी बंसल ने फौरन अपने ग्राहकों से माफी माँगी। उनकी असली परीक्षा अब अगले कुछ दिनों में होगी।


इस एक दिनी सेल के दौरान उनके पोर्टल पर शॉपिंग करने वाले लोगों की संख्या 15 से 20 लाख के बीच ही रही होगी। इतने लोगों तक सही समय से सही सामान पहुँचाना दूसरी बड़ी चुनौती है। लॉजिस्टिक्स कारोबार से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि ग्राहकों को देरी के लिए तैयार रहना चाहिए। फ्लिपकार्ट ने 12 लाख से ज्यादा के ऑर्डर की तैयारी की थी। अब कहा जा रहा है कि बिक्री उनके प्रोजेक्शन से दोगुनी है। हो सकता है ऑर्डर पूरे करने में महीना लग जाए। इस सेल के बाद अमेज़न, नापतोल, स्नैपडील, माइंट्रा और तमाम कम्पनियाँ अपने-अपने डील के साथ मैदान में उतर आई हैं। वहीं दिल्ली के चाँदनी चौक, कनॉट प्लेस और लाजपत नगर, लखनऊ के हजरतगंज और अमीनाबाद बेंगलुरु के एमजी रोड के बाज़ारों की रौनक अब उतनी नहीं लगती जितनी इस त्योहारी मौसम में होती थी। इंटरनेट अबकी बारी बाजार के रास्ते घरों में प्रवेश कर रहा है। यह हाल तब है जब देश की तकरीबन 13 फीसदी आबादी यानी तकरीबन 15 करोड़ लोग ही नेट से जुड़े हैं।

फ्लिपकार्ट पर 10 घंटों में तकरीबन एक अरब हिट्स का आना भारत के उस मध्य वर्ग की ताकत का अंदाज़ देता है, जो अभी पूरी तरह विकसित भी नहीं है। ऑनलाइन शॉपिंग की एक वजह है आकर्षक ऑफर, डील और वाजिब दाम। इसके अलावा छोटे से कस्बे में बैठा व्यक्ति ऐसी चीजें खरीद सकता है, जो उसके बाज़ार में नहीं मिलतीं। जिनके लिए उसे दिल्ली, मुम्बई या बेंगलुरु जाना पड़ता। इन चीजों में मोबाइल फोन, टेबलेट, गेमिंग डिवाइसें, जूते और परिधान ज्यादा हैं सरसों का तेल, हल्दी-धनिया नहीं। हालांकि कुछ पोर्टल आलू, मटर, टमाटर और लौकी भी घर तक पहुँचाने का दावा कर रहे हैं। इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है और मोबाइल फोन से सीधी खरीदारी हो रही है। इस ऑनलाइन-कल्चर ने बाजार अर्थशास्त्रियों को भी चौंकाया है।

इस सेल में युवा वर्ग के साथ-साथ महिलाओं की जबर्दस्त हिस्सेदारी ने उस ताकत की और इशारा भी किया है जिसने इस साल लोकसभा चुनाव के परिणामों की शक्ल बदल दी थी। इस सेल को लेकर सोशल मीडिया में जो माहौल बना वह भी खासा रोचक है। फेसबुक और ट्विटर पर यह सेल छा गई और लगता है कि अगले कुछ दिनों तक छाई रहेगी। अभी तो दीपावली के मौके पर भारी खरीदारी होगी। एमेज़ॉन की 10 से 16 अक्तूबर तक सेल चलेगी। स्नैपडील ने भी अपनी दीवाली सेल को 25 अक्टूबर तक बढ़ा दिया है। हाल में कुछ मोबाइल फोन केवल ई-बाजार में ही उपलब्ध कराए गए। ई-कम्पनियाँ नए ग्राहक हाथ में लेने के लिए दाम गिरा रहीं हैं। इससे कुछ उत्पादक नाराज़ भी है। उनका मानना है कि इससे बाज़ार बिगड़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बेचने वाली कंपनी एलजी ने आगाह किया है कि ई-कॉमर्स पोर्टल से खरीदे गए एलजी प्रोडक्ट के असली होने की कंपनी की जिम्मेदारी नहीं है। पर लगता नहीं कि इससे नेट-खरीदारी रुकेगी। इसका वैश्विक चलन बढ़ रहा है।  

फ्लिपकार्ट ने जो बाज़ार तैयार किया उसका फायदा उठाने दुनिया का सबसे लोकप्रिय ई-रिटेल पोर्टल एमेज़ॉन भी भारत आ चुका है और उसने दो अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। माना जा रहा है कि अगले तीन साल में भारत में 50,000 से ज्यादा लोगों के लिए ई-रिटेल में नए रोज़गार पैदा होंगे। ई-रिटेल का पहला झटका देश के व्यापारियों को लगा है, जो मल्टी-ब्रांड खुदरा बाज़ार में विदेशी पूँजी निवेश को काफी हद तक रोकने में कामयाब हुए थे। व्यापारियों के संगठन कॉनफेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने ऑनलाइन कारोबार की निगरानी और नियमन के उपाय करने की मांग की है, इसपर वाणिज्य और उद्योग मंत्री निर्मला सीतारामन ने कहा है, हम इसे देखेंगे।’’

हमारे यहाँ एकल ब्रांड रिटेल में 100 फीसदी और मल्टी-ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत है लेकिन ई-कॉमर्स के बारे में ऐसा कोई फैसला नहीं है। ई-रिटेल कम्पनियाँ अपना माल नहीं बेचतीं बल्कि ग्राहक और उत्पादक के बीच कमीशन एजेंट का काम करती हैं। वे केवल एक मंच मुहैया कराती हैं जहां खरीदार और विक्रेता आपस में मिलते हैं। यह खुदरा नहीं बल्कि सेवा क्षेत्र का कारोबार है इसलिए इसमें विदेशी निवेश नहीं रुक पाया। यह भी सही है कि यह बाज़ार भारतीय कारीगरों और छोटे निर्माताओं के माल को ग्राहक तक ले जाने में जितनी तेजी से सफल हो रहा है उतना सफल खुदरा बाजार नहीं है। खुदरा बाजार पूरे देश में एक साथ माल दिखाने का काम नहीं करता। ई-कॉमर्स बैकरूम काम के लिए काफी बड़ी संख्या में रोजगार भी तैयार करता है।

भारत में तकरीबन 25 प्रमुख ई-रिटेल कंपनियां हैं। इनकी लोकप्रियता के साथ-साथ इन कम्पनियों के भावों की तुलना करने वाले पोर्टलों का कारोबार भी विकसित हो रहा है। कीमतों की  तुलना करने वाला हैदराबाद का पोर्टल माईस्मार्टप्राइस भारत में एमेज़ॉन, स्नैपडील, फ्लिपकार्ट और नापतोल सहित अनेक ई-रिटेल स्टोरों की कीमतों का विवरण और विशेष डील मुहैया कराता है। क्रोम और मोज़ीला पर ऐसे एक्सटेंशन उपलब्ध हैं जो तमाम साइटों की कीमतें कम्पेयर कर सकते हैं। इन्हीं जानकारियों के आधार पर इस सेल के बाद सोशल मीडिया पर चर्चा है कि जिन चीजों के दाम कम थे, उन्हें बढ़ाकर फिर छूट दी गई। नेट की खरीदारी नए शौक के रूप में विकसित हो रही है। ग्राहकों का मन इससे न टूटे इसके लिए विक्रेता को भी ध्यान रखना पड़ेगा।

इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन के अनुसार केवल 13 फीसदी भारतीय (यानी 15 करोड़ से कुछ ज्यादा) ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। चीन में 44 फीसदी, ब्राजील में 42.2 फीसदी और दक्षिण अफ्रीका में 39.4 फीसदी नागरिक इंटरनेट पर हैं। भारत में ई-कॉमर्स आज भी फायदे का सौदा नहीं है। वहीं तमाम मॉल और बड़े रिटेल स्टोर भी घाटे में हैं। फिर भी उसकी धूम है। इसका कारण क्या है? फ्लिपकार्ट के सह संस्थापक और सीईओ सचिन बंसल का कहना है कि कंपनी का उद्देश्य भारत में ई-कारोबार के लिए इको सिस्टम बनाने का है, क्योंकि देश में 50 करोड़ से ज़्यादा लोग अगले पांच साल में ऑनलाइन होने वाले हैं। यानी यह भविष्य का संकेतक है।

अनुमान है कि भारतीय ई-बाज़ार इस वक्त 8 से 15 अरब डॉलर के बीच का है और 2017 तक यह 30 फीसदी की सालाना दर से बढ़ेगा। इसमें ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक्स और फैशन कारोबार है। रिटेल बाज़ार में प्रवेश पाने में विफल वॉलमार्ट अब ई-रिटेल में घुसने की तैयारी में है। अमेज़न ने पिछले साल ही भारतीय बाज़ार में प्रवेश किया है और अपनी जड़ें बड़ी तेजी से जमा ली हैं। अभी यह बाज़ार गुब्बारे की तरह फूल रहा है। आप पूछ सकते हैं कि इसके फूटने का खतरा तो नहीं है? फिलहाल तमाशा देखिए।  
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

                                                          

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