हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों की तारीख आने के साथ देश
के राजनीतिक-मंथन का अगला दौर शुरू हो गया है। इस दौर में भारतीय जनता पार्टी और
कांग्रेस दोनों की ताकत और कमज़ोरियों का परीक्षण होगा। बिहार और उत्तर प्रदेश के
उपचुनावों से निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। बिहार में कांग्रेस, जदयू और राजद के
महागठबंधन ने बेशक भाजपा-विरोधी विरोधी मोर्चे की सम्भावनाओं की राह दिखाई है, पर
यह राष्ट्रीय प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों से बसपा ने अलग
होकर सपा और कांग्रेस को कोई संदेश दिया है या भाजपा को रोकने की उत्तर प्रदेश
रणनीति की और इशारा किया है यह चुनाव परिणाम आने के बाद ही कहा जा सकेगा। पर इसमें
दो राय नहीं कि सबसे ज्यादा फज़ीहत जिस पार्टी की है वह है कांग्रेस। देखना यह है
कि लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुई मोदी-लहर अभी प्रभावी है या नहीं। अलबत्ता इन
दोनों राज्यों में प्रचार के लिए मोदी जाने वाले हैं। उनके मुकाबले कांग्रेस के
पास सोनिया और राहुल की जोड़ी है। क्या वह काम करेगी?
कांग्रेस के सामने इस वक्त चार चुनौतियाँ हैं:-
·
पिछले
साल चार विधानसभा चुनावों से शुरू हुई लगातार गिरावट को रोकना
·
संगठन
के भीतर लगातार बढ़ते लतिहाव पर काबू पाना
·
राहुल
गांधी के नेतृत्व को मजबूत करना
·
पार्टी
को नया वैचारिक आधार प्रदान करना
पार्टी अध्यक्ष होने के नाते इन्हें सोनिया गांधी के सामने
उपस्थित चुनौतियाँ माना जा सकता है। पार्टी को खुशफहमी या गलतफहमी है कि वोट
घूम-फिरकर उसकी झोली में ही गिरेगा। बिहार के नतीज़ों ने उसकी इस समझ को मज़बूत
किया है। पार्टी ज़बरन राहुल गांधी को नेता बनाने पर तुली है। सच यह है सन 2004 के
बाद कांग्रेस को एकमात्र सफलता 2009 के चुनाव में मिली। उस सफलता के कारणों को
किसी ने समझने की कोशिश नहीं की। सारा श्रेय राहुल को देने की झड़ी लग गई। अंततः
वही हुआ जो हो सकता था। क्या इसे अब तार्किक परिणति तक पहुँचने के पहले किसी दूसरी
दिशा में मोड़ा जा सकता है? इसका
जवाब महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणाम देंगे।
शीला दीक्षित ने पहले कहा कि दिल्ली में भाजपा सरकार बना सकती
है तो उसे बनाना चाहिए। उन्हें एक मौका देना चाहिए। इतनी जल्दी चुनाव कोई नहीं
चाहता। लोग एक सरकार तो चाहते हैं। यह बयान एक समझदार राजनेता का है। इसके
निहितार्थ पर विचार किए बगैर पार्टी के भीतर से अनाप-शनाप प्रतिक्रियाएं आने लगीं।
पार्टी के एक पूर्व विधायक आला-कमान को चिट्ठी लिखकर शीला को दीक्षित को पार्टी से
निकालने की मांग कर दी। एक साहब ने कहा, पार्टी उनके इस बयान से हैरान है। एक और
ने कहा, यह शीला का निजी बयान है। पार्टी उनके बयान से इत्तफाक नहीं रखती। अंततः शीला दीक्षित ने अपने बयान से पल्ला झाड़ लिया। सच यह
है कि कांग्रेस के विधायक भी चाहते हैं कि सरकार बने, भले ही उनकी न हो। वे आज
चुनाव मैदान में उतरेंगे तो हो सकता है कि इतनी सीटें भी न मिलें। वर्तमान स्थिति
को कितने दिन तक खींचा जा सकता है? सम्भव है इस बात को सार्वजनिक रूप से कांग्रेस न कहना चाहती हो, पर दिल्ली में भाजपा सरकार बनना कांग्रेस के फायदे में है।
पार्टी को एक और गलत-फहमी है कि गांधी-नेहरू परिवार ही नैया
पार लगाएगा। राहुल गांधी को लेकर पार्टी के भीतर विरोध के स्वर तीखे होते जा रहे
हैं। राहुल के सलाहकारों की आलोचना हो रही है। अब यह बात सांसद खुले आम कहने लगे
हैं कि राहुल से मिलने में बहुत अड़चनें आती हैं। महीनों तक उनका अपॉइंटमेंट नहीं
मिलता। टीम-राहुल ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और नए नेताओं के बीच गहरी खाई पैदा
कर दी है। कुछ दिन पहले मध्य प्रदेश से कांग्रेस के पूर्व सांसद गुफरान-ए-आजम ने
कहा था कि 10 साल में राहुल भाषण तक देना नहीं सीख पाए। विडंबना है कि राहुल गांधी
को ही महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस के अभियान का नेतृत्व करना है। दूसरी और
सुनाई पड़ रहा है कि महाराष्ट्र में पार्टी के नेता नहीं चाहते कि चुनाव प्रचार के
लिए राहु आएं। हाल में दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश और जनार्दन द्विवेदी तक के बयानों
ने पार्टी की दुविधा को बढ़ाया है। अभी महाराष्ट्र और हरियाणा के परिणाम आए नहीं
हैं। परिणाम आने के बाद की स्थिति का अनुमान ही लगाया जा सकता है।
टू-जी घोटाले का भूत कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ रहा है। पूर्व
नियंत्रक एवं महा-लेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय ने दावा किया है कि पूर्व
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को टू-जी घोटाले की खबर पहले से थी, लेकिन वे चुप्पी
साधे रहे। उनका यह भी कहना है कि मनमोहन सिंह को कोयला घोटाले को लेकर भी पहले से
सतर्क किया गया था। कांग्रेस पार्टी विनोद राय पर राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाने का
आरोप लगाती रही है। पर दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले टू-जी के जिन्न
का फिर से जाग जाना कांग्रेस के लिए अशुभ है। राय ने कमल नाथ की उस चिट्ठी को
सार्वजनिक किया है जिसमें उन्होंने मनमोहन सिंह को खबरदार किया था।
सोनिया गांधी का कार्यकाल अगले साल खत्म हो रहा है। वे इस
वक्त पद छोड़ने की स्थिति में नज़र नहीं आतीं। लोकसभा चुनाव में पार्टी ने तनिक भी
सफलता हासिल की होती तो शायद वे बागडोर राहुल को सौंप देतीं। पर क्या अब यह सम्भव
होगा। पार्टी ने संगठनात्मक चुनावों की घोषणा कर दी है। विभिन्न स्तरों के लिए
चुनाव प्रक्रिया एक अप्रैल से शुरू होगी। राहुल गांधी ने संगठनात्मक ढाँचे में
बदलाव की कोशिशें शुरू की हैं। क्या वे अब अपने कार्यक्रम को आगे ले जाएंगे? क्या वे प्रदेशों में युवा अध्यक्षों को
स्थापित करने की स्थिति में हैं? क्या वे पार्टी में नए और
पुरानों के टकराव को रोकने की स्थिति में हैं?
लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी को आत्म-मंथन करना चाहिए था। यह
आत्म-मंथन खुले मन से और व्यापक स्तर पर होना चाहिए। पर सोनिया गांधी इस स्थिति
में नहीं हैं कि इसे खुले विचार के लिए छोड़ सकें। एके एंटनी के नेतृत्व में बनी
समिति की रिपोर्ट पुरानी रिपोर्टों की तरह धूल खाने के लिए रख दी गई है। इस समिति
का गठन फौरी तौर पर कार्यकर्ताओं के रोष को कम करने और माहौल को ठंडा करने के लिए
किया गया था। फिलहाल सोनिया गांधी खुद को आगे लेकर आईं हैं, पर इसके आगे क्या? महाराष्ट्र और हरियाणा में भी सत्ता हाथ से
निकली तो पार्टी की हैसियत क्षेत्रीय पार्टियों जैसी हो जाएगी। यह कांग्रेस के लिए
बेहद महत्वपूर्ण और जोखिमों से भरी घड़ी है। पार्टी के पास केवल ‘गरीबी हटाओ’ जैसे लोक-लुभावन कार्यक्रम ही हैं, जबकि
मध्य वर्ग निर्णायक भूमिका में आ रहा है। पार्टी को इन बातों के बारे में सोचने का
मौका भी नहीं मिल पा रहा है। अपने 129 साल के इतिहास में पार्टी सबसे बड़े संकट से
गुजर रही है। अबके डूबे तो उबरना मुश्किल हो जाएगा।
हिंन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
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