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Wednesday, August 27, 2014

...और न रिटायर नेताओं के आरामगाह हैं राजभवन

महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन के बाद केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित ने भी इस्तीफा देकर मोदी सरकार के काम को आसान कर दिया है, पर राज्यपालों की बर्खास्तगी और नियुक्ति को लेकर राष्ट्रीय विमर्श का समय आ गया है. सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 155 में संशोधन करके राज्यपालों की योग्यता और नियुक्ति प्रक्रिया को तय किया जाना चाहिए. यह भी तय किया जाना चाहिए कि राज्यपाल का पद क्या इस हद तक राजनीतिक है कि सरकार बदलते ही उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए या उनका कार्यकाल गारंटीड हो जैसी कि सरकारिया आयोग की सलाह थी. सन 2004 में जब यूपीए ने एनडीए के राज्यपाल हटाए थे तब भाजपा के जो तर्क थे, वे आज कांग्रेसी ज़ुबान पर हैं.


राज्यपाल का पद बदरंग होता जा रहा है. उसका काम महलों में रहना, दावतों में शामिल होना, समारोहों में शिरकत करना और दस्तावेजों पर दस्तखत करना ही नहीं था. पार्टियाँ अपने सीनियर नेताओं को वक्त काटने के लिए इस पद पर नियुक्त करती हैं। संविधान सभा ने जब इस पद को लेकर विमर्श किया था तब यह पद राज्यों के कार्यपालिका प्रमुख ही नहीं संघीय व्यवस्था में केंद्र और राज्य के बीच महत्वपूर्ण सेतु का था. पर बन गया वह केंद्र का राजनीतिक एजेंट, जिसे न तो सरकारिया आयोग ने माना और न सुप्रीम कोर्ट ने.

पिछले हफ्ते उत्तराखंड के राज्यपाल अज़ीज़ कुरैशी का मसला अदालत में उठा है, जिसमें राज्यपाल ने सवाल उठाया है कि मुझे नियुक्त राष्ट्रपति ने किया है. गृहमंत्री मुझे हटाने वाले कौन होते हैं? यूपीए सरकार के समय में नियुक्त किए गए कुछ राज्यपालों ने एनडीए सरकार द्वारा गृह सचिव के जरिए भेजे गए संदेश के बाद पद छोड़ दिया था, लेकिन उत्तराखंड के राज्यपाल ने मोदी सरकार से टकराने का फैसला किया था. अब अदालत के सामने राज्यपालों की नियुक्ति और उन्हें हटाए जाने से जुड़े ज्यादा बड़े सवाल भी सामने आएंगे. और यह भी कि इस पद की सांविधानिक भूमिका कितनी है और इसके पीछे की राजनीति क्या है.

संसदीय लोकतंत्र की खूबी यह है कि हरेक संस्था को अपने दायरे में स्वतंत्र होकर काम करने की छूट है. यह व्यवस्था किसी को निर्द्वंद होकर काम करने की छूट नहीं देती. उत्तर प्रदेश के नए राज्यपाल राम नाइक ने एक इंटरव्यू में कहा है कि राज्यपाल की भूमिका में पार्टी से ऊपर उठकर कार्य करने की आवश्यकता होती है. प्रदेश के राज्यपाल पद पर नियुक्ति की घोषणा के बाद उन्होंने 15 जुलाई को बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता के साथ सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था. वे कहते हैं कि राज्यपाल नियुक्त करने की जो परंपरा है सो है, पर नियुक्ति के बाद उन्हें पार्टी के हितों के ऊपर उठकर काम करना चाहिए. दूसरी महत्वपूर्ण बात वे यह कहते हैं कि यह राजनीतिक नियुक्ति है और केंद्र में सरकार बदलने के बाद राज्यपाल को खुद पद से हट जाना चाहिए. सवाल है कि क्या यह बात व्यक्तियों के विवेक पर छोड़ी जानी चाहिए?

केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के पहले से ही इस बात की चर्चा शुरू हो गई थी कि सबसे पहले वे राज्यपाल हटाए जाएंगे, जो कांग्रेस पार्टी से सीधे जुड़े हुए हैं. इसके बाद खबर आई कि छह राज्यपालों को सलाह दी गई है कि वे अपने इस्तीफे दे दें. कुछ ने इस्तीफे दिए और कुछ ने आना-कानी की. ताज़ा मामला महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन का है, जिनका तबादला मिजोरम कर दिया गया था. उन्होंने वहाँ जाने के बजाय इस्तीफा देना उचित समझा. हाल में कमला बेनीवाल वहीं लाने के बाद हटाईं गईं थीं. अंदेशा इस बात का था कि अब केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित का तबादला मिजोरम होगा. ऐसा होने के पहले ही शीला दीक्षित ने इस्तीफा दे दिया.

राज्यपाल के पद का दुरुपयोग लगभग सभी ताकतों ने अलग-अलग वक्त पर किया है. कांग्रेस को खासतौर से श्रेय जाता है. यह काम पचास के दशक से चल रहा है जब केरल की सरकार को बर्खास्त करने में राज्यपाल का इस्तेमाल किया गया. सन 2004 में यूपीए सरकार बनने पर राज्यपालों को बर्खास्त किया गया था. इसके खिलाफ भाजपा के पूर्व सांसद बीपी सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी, जिसपर मई 2010 में अदालत की संविधान पीठ ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे. अदालत ने कहा कि यदि बर्खास्त राज्यपाल अदालत आएंगे तो सरकार को अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करना होगा. अदालत ने कहा, राज्यपाल केंद्र सरकार का एजेंट नहीं है और न किसी राजनीतिक टीम का सदस्य है.

केंद्र में सरकार बदलने के बाद प्रशासनिक व्यवस्था बदलती ही है, पर कितनी? अब यह विचार करने का समय है कि किन बातों को राजनीतिक नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए? कौन से पद राजनीतिक हैं और किन पदों को राजनीति से परे रखा जाना चाहिए? पिछले हफ्ते राज्यपाल, लोकसभा में विपक्ष के नेता और सीएजी को लेकर कुछ गम्भीर सवाल उठे हैं. पूर्व सीएजी विनोद राय ने कहा कि यूपीए सरकार ने उनपर दबाव डाला था कि स्कैम में शामिल कुछ मंत्रियों के नाम अपनी रिपोर्ट से हटा दें. लोकसभा में विपक्ष के नेता की नियुक्ति न हो पाने के पीछे क्या राजनीति है? सारे सवाल घूम-फिरकर इस बात पर केंद्रित होते हैं कि राजनीति और संस्थाओं के कैसी रेखा होनी चाहिए. इसे कौन खींचेगा? और यह खींच भी दी गई तो इसके अनुपालन को कौन सुनिश्चित करेगा?

लम्बी जद्दो-जहद के बाद लोकपाल कानून बना। पहले तो सरकार कानून बनाने को तैयार नहीं थी, फिर इतनी जल्दी हुई कि पन्द्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र में ताबड़-तोड़ कानून पास कर दिया गया. जल्दी इतनी थी कि पिछली सरकार ने लोकपाल की चयन समिति के सदस्यों की नियुक्ति का काम भी शुरू कर दिया. पर नई सरकार लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर पा रही है. विपक्ष का नेता न हो पाने के कारण कानूनी पेच आ गया है. विपक्ष के नेता का पद सदन के भीतर का मामला है, पर प्रकारांतर से सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. अदालत ने कहा कि सरकार नेता विपक्ष के विवाद को सुलझाने में नाकाम रहती है, तो हम निर्णायक फैसला सुना सकते हैं. एक और मसला न्यायिक समीक्षा के लिए सामने आ सकता है जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के शक्ति-पृथक्करण को परिभाषित करेगा. संसद के दोनों सदनों ने न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना और उसे संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयकों को लगभग सर्वानुमति से स्वीकार कर लिया. पर इसके साथ न्यायपालिका और विधायिका के मतभेद की पृष्ठपीठिका भी तैयार हो गई है. यह मसला न्यायपालिका और सरकार के परामर्श से सुलझाया जाना चाहिए था. बहरहाल समस्याएं सामने आईं हैं तो समाधान भी आएंगे इस यकीन के साथ इंतज़ार करें इन बातों की तार्किक परिणतियों का.

प्रभात खबर में प्रकाशित

3 comments:

  1. प्रश्न यह है कि क्या हम सच में एक लोकतांत्रिक देश हैं.सिर्फ पांच साल में एक बार वोट डालने से क्या हम लोकतांत्रिक हो जाते हैं न तो हमारा समाज लोकतांत्रिक है न ही हमारी सोच लोकतांत्रिक है.फिर राजनीति कैसे लोकतांत्रिक हो सकती है.

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  2. विचारणीय यह होना चाहिए कि राज्यपाल जैसा पद कितना उपयोगी है? यह मात्र केन्द्र का एक एजेंट है,जो उसके हथकंडे अपनाने लिए प्रयोग में लिया जाता है , कांग्रेस ने ही राज्यपालों का दुरूपयोग करना था , है असल में ऐसी अधिंकाश गलत परम्पराओं का चलन उसके द्वारा ही किया गया , था भारत के गरीब लोकतंत्र पर ये बड़ा आर्थिक बोझ ही है अपने उम्रदराज, पराजित, नेताओं तथा स्वामिभक्त नौकरशाहों को ऐयाशी का तोहफा देने के अलावा इस पद का कोई उपयोग नहीं

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