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Friday, August 15, 2014

इन बदरंग राष्ट्रीय तमगों की जरूरत ही क्या है?

राष्ट्रीय सम्मानों की हमारी व्यवस्था विश्वसनीय कभी नहीं रही। पर हाल के वर्षों में वह मजाक का विषय बन गई है। इन पदकों ने पहचान पत्र की जगह ले ली है। यूपीए सम्मानित, एनडीए सम्मानित या सिर्फ असम्मानित! पिछले हफ्ते खबर थी कि नेताजी सुभाष बोस को भारत रत्न मिलने वाला है। फिर कहा गया कि अटल बिहारी को भी मिलेगा। ताज़ा खबर है कि हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के नाम की संस्तुति प्रधानमंत्री से की गई है। पता नहीं किसी को मिलेगा या नहीं पर ट्विटर, फेसबुक और टेलीविजन पर कम से कम डेढ़ सौ हवा में नाम फेंके जा चुके हैं। कांशीराम से लेकर सर सैयद, एओ ह्यूम से एनी बेसेंट, भगत सिंह से रास बिहारी बोस, लाला लाजपत राय से मदन मोहन मालवीय और राम मनोहर लोहिया से लेकर कर्पूरी ठाकुर। लगो हाथ जस्टिस काटजू ने ट्वीट करके सचिन तेन्दुलकर को भारत रत्न देने की भर्त्सना कर दी। जवाब में शिवसेना ने जस्टिस काटजू की निंदा कर दी। सम्मानों की राजनीति चल रही है।

कोई आश्चर्य नहीं कि जातीय, धार्मिक और सामाजिक समूह आवाज़ उठाएं कि भारत रत्न भी हमारी पहचान बने। भाषाओं के आधार पर भारत रत्न मिलें। राजस्थान, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, झारखंड और असम को छोड़कर शेष पूर्वोत्तर को कोई भारत रत्न नहीं मिला। इन्हें भी मिलना चाहिए। सच यह है कि ये सम्मान कभी राजनीति के दायरे से बाहर नहीं थे। भारत रत्न का सम्मान प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति देते हैं। यानी कि सन 1955 में जवाहर लाल नेहरू ने 1971 में इंदिरा गांधी ने अपने नामों की सिफारिश की थी। उनका सम्मान करने वाले राष्ट्रपतियों का बदले में सम्मान हुआ। यानी1962 में राजेन्द्र प्रसाद और 1975 में वीवी गिरि को भारत रत्न बना दिया। बेशक उनकी महानता में संदेह नहीं है, पर हमारी सम्मान व्यवस्था में कोई ऐतिहासिक कालक्रम नहीं है।  

पिछले साल वल्लभ भाई पटेल की विरासत को लेकर जब कांग्रेस और भाजपा के बीच संग्राम चल रहा था, तब बात आई कि पटेल को 1991 में भारत रत्न मिला राजीव गांधी के साथ। जवाहर लाल नेहरू को 1955 में गोविंद बल्लभ पंत को 1957, विधान चन्द्र रॉय को 1961, राजेन्द्र प्रसाद को 1962, लाल बहादुर शास्त्री को 1966, इंदिरा गांधी को 1971, वीवी गिरि को 1975, के कामराज को 1976, एमजी रामचंद्रन को 1988 और भीमराव आम्बेडकर को 1990 में यह सम्मान मिला। सरकार ने अब तक 43 व्यक्तियों को यह सम्मान दिया है। इनमें से 20 यानी आधे लोग राजनीति से जुड़े हैं।
राजेन्द्र प्रसाद पर अपनी नर्स को और राजीव गांधी पर अपने स्कूल-प्रिंसिपल को पद्मश्री देने का आरोप लगा। यह भी कि राजीव ने तमिल वोट पाने की खातिर एमजी रामचंद्रन को 1988 में भारत रत्न दिलाया। भीमराव आम्बेडकर को भारत रत्न मिलने पर वीपी सिंह पर दलित वोट की राजनीति का आरोप लगा। जैल सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह पर अपने चिकित्सकों को पुरस्कार देने के आरोप लगे। सन 2010 में अमेरिका में होटल चलाने वाले संत सिंह छटवाल को जब पद्मभूषण मिला तब भी वह विवाद का विषय बना। कम्युनिस्ट नेता सत्यपाल डांग ने सन 2005 में जब पद्मभूषण सम्मान लौटाया तब उन्होंने उसकी गरिमा गिरने के साथ-साथ इस बात का ज़िक्र भी किया कि लोग अपने नाम के पहले पद्मश्री, पद्मभूषण वगैरह लगाते हैं, जो नैतिक और कानूनी रूप से गलत है।

18 अगस्त 2007 को जब दशरथ मांझी का दिल्ली में कैंसर से लड़ते हुए निधन हुआ था, तब उसके जीवट और लगन की कहानी देश के सामने आई थी। पर न तब और न आज किसी ने कहा कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए। हमारे एलीटिस्ट मन में यह बात आती ही नहीं। पिछले साल जब सचिन तेन्दुलकर का सम्मान हुआ था तब ध्यानचंद का नाम भी सामने आया था, बल्कि औपचारिक रूप से उनके नाम की संस्तुति की गई थी। खेल मंत्री ने सरकार को पास सिफारिश भी भेजी कि ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए। पर सम्मान सचिन का हुआ।

सचिन की प्रतिभा और लगन युवा वर्ग को प्रेरणा देती है। सहज और सौम्य हैं, पारिवारिक व्यक्ति हैं, माँ का सम्मान करते हैं और एक साधारण परिवार से उठकर आए हैं। पर यह तय करने का कोई मापदंड नहीं कि वे देश के सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं भी या नहीं। उन्हें लोकप्रिय बनाने वाली एक पूरी कारोबारी मशीनरी है। चुनाव के पहले सरकार उनकी लोकप्रियता को भुनाना चाहती थी। ध्यानचंद जब खेलते थे तब कारोबारी मशीनरी इतनी सक्रिय नहीं थी।

सन 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला किया गया। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे। संयोग है कि सन 1991 में मोरारजी को भारत रत्न का अलंकरण दिया गया। दूरदर्शन ने जब मोरारजी से प्रतिक्रिया माँगी तो उन्होंने कहा, मैं ऐसे अलंकरणों के खिलाफ हूँ। पर आप देना ही चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ। हमारी संविधान सभा में इस बात पर बहस हुई कि सरकारी अलंकरण होने चाहिए या नहीं। तब यह कहा गया कि ये सम्मान अंग्रेज सरकार के खिताबों की तरह नहीं हैं। 


संविधान का अनुच्छेद 18(1) कहता है ‘राज्य, सेना या विद्या संबंधी सम्मान (एकैडमिक ऑर मिलिटरी डिस्टिंक्शन) के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा। ‘संविधान सभा में प्रोफेसर केटी शाह ने अनुच्छेद 12 का समर्थन किया था, जो बाद में अनुच्छेद 18 बना। आमराय थी कि अंग्रेज सरकार की तरह खिताब और उपाधियाँ सरकार नहीं देगी। संविधान सभा की राय थी कि सरकार को खिताब देने ही नहीं चाहिए। पर हमारी सुप्रीम कोर्ट ने बालाजी राघवन/एसपी आनंद बनाम भारतीय संघ (1995) मामले में स्पष्ट किया कि ये पुरस्कार हैं खिताब नहीं। यानी इनके साथ कोई योग्यता जुड़ी है। अदालत ने यह भी कहा कि समानता के सिद्धांत का मतलब यह नहीं कि मेरिट को मान्यता न दी जाए। इस फैसले में अनुच्छेद 51-ए (मौलिक कर्तव्य) का ज़िक्र किया गया, जो नागरिकों से व्यक्तिगत और सामूहिक कार्य के क्षेत्रों में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने का आह्वान करता है। हालांकि अदालत ने पुरस्कार देने के मानदंडों को श्रेष्ठ बनाने और कुल मिलाकर अधिक से अधिक 50 पुरस्कार देने की सलाह दी। पर शायद ही कभी यह संख्या 100 से नीचे रहती हो। 

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