बेताल फिर डाल पर
कांग्रेस को इंतज़ार है फिर
किसी चमत्कार का
इस हफ्ते कांग्रेस को कई
झटके लगे हैं। असम के विधायकों ने बग़ावत की। स्वास्थ्य मंत्री हेमंतो बिसवा सर्मा
के नेतृत्व में विधायकों ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपा। महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री
नारायण राणे ने इस्तीफ़ा दिया। हरियाणा में चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने भूपेंद्र सिंह
हुड्डा के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बंगाल में तीन और
विधायक पार्टी छोड़ गए। सन 2011 से अब तक सात विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी
के विधायकों की संख्या 42 से घटकर 35 रह गई है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस
ने कांग्रेस से पांच साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया है। झारखंड में भी पार्टी के भीतर
बगावत के स्वर हैं। इस साल अक्तूबर नवम्बर में महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा
और झारखंड में चुनाव होने वाले हैं। शायद दिल्ली में भी हों। तरुण गोगोई,
पृथ्वीराज चह्वाण और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ बगावत सीधे-सीधे राहुल गांधी
के खिलाफ बगावत है, भले ही इसे साफ न कहा जाए।
संसद का सत्र चल रहा है।
पार्टी ने बजट, ब्रिक्स सम्मेलन, महंगाई और फलस्तीन जैसे मसलों पर सरकार को घेरने
की कई कोशिशें की, पर अभी तक कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा है। आज़ादी के बाद से
पार्टी केवल तीन बार सत्ता से बाहर रही है। 1977, 1989 और 1996 से 2004 तक के
तकरीबन 8 साल जिनमें से तकरीबन डेढ़ साल परोक्ष रूप से पार्टी सत्ता पर सवार रही। सत्ता
के बाहर रहने पर भी पार्टी की कमान ज्यादातर गांधी परिवार के हाथ में रही। पार्टी
के भीतर परिवार को चुनौती देने की हिम्मत किसी ने कभी नहीं की। केवल नरसिम्हा राव
ने कुछ समय तक इस परिवार को किनारे करके रखा।
बगावत और मुखर होगी!
ज्यादा बड़ा डर इस बात का
है कि विधान सभा चुनावों में पार्टी की हार होने के बाद बगावत के स्वर और मुखर
होंगे। लोकसभा चुनाव में जैसी हार हुई, उसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। आने वाले
वक्त में जो हार मिलने वाली है उसके बाद क्या होगा, इसका किसी को इमक़ान नहीं है। उन्हें
दो बातों में ही रोशनी की किरण नजर आती है। एक, प्रियंका गांधी कमान सम्हालें और मोदी सरकार गलतियाँ
करे। फिलहाल पार्टी के सामने तीन बड़े काम हैं :-
- · तबेले के लतिहाव को रोकना
- · वैचारिक और संगठनात्मक स्तर पर साफ दिशा यानी आत्ममंथन
- · स्थिर नेतृत्व
आत्ममंथन किसे करना है? पार्टी को, सोनिया गांधी को या राहुल को? लोकसभा चुनाव के पहले राहुल गांधी ने एक खास शैली में काम
शुरू किया था। विचार और संगठन दोनों स्तर पर वे सक्रिय हुए थे। लोकसभा के 16
क्षेत्रों में प्रत्याशी चुनने के प्रयोग किए गए, जिनमें अमेरिका के प्राइमरी
चुनाव की तरह कार्यकर्ता को प्रत्याशी तय करने थे। यह पहला प्रयोग ही भारी पड़ा।
किसी को यह प्रक्रिया पसंद नहीं आई। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी लोकतंत्र की
जगह हाईकमान संस्कृति पसंद है। व्यक्तिगत पहुँच, रसूख, पैसा और प्रभाव आसानी से
अपनी जगह छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
न सड़क पर, न संसद में
राहुल गांधी ने ‘केवल गरीब’ की राह पकड़ी थी।
पार्टी कार्यकर्ता और वरिष्ठ नेतृत्व इसे नहीं मानता। राहुल की योजना के अनुसार
कांग्रेस की धुरी है ‘दलित-अल्पसंख्यक और गरीब।’ क्या पार्टी इस राजनीति को आगे ले जा सकेगी? इसके विपरीत नरेंद्र मोदी ने शहरी मध्यवर्ग को अपना मॉडल
और मनमोहन सिंह के कमज़ोर नेतृत्व को निशाना बनाया। पार्टी के भीतर जो एनजीओ
संस्कृति पनपी वह सिद्धांत से तो लैस थी, पर ज़मीनी स्तर पर कमजोर थी। राहुल के
साथ ज़मीनी नेताओं की कतार नहीं थी। साथ ही पार्टी का परम्परागत कार्यकर्ता उनसे
नाराज़ था। लोकसभा चुनाव के पहले तक पार्टी की सरकार थी, पर अब सिर्फ 44 सांसद साथ
हैं। देश के दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से पार्टी का कोई
प्रतिनिधि सदन में नहीं है। पार्टी न सड़क पर है और न संसद में।
फिर एंटनी
विफलताओं की जाँच का
जिम्मा अक्सर एंटनी समिति को दिया जाता है। इस बार फिर से एंटनी के नेतृत्व में
चार सदस्यों की समिति बनाई गई है, जिसने स्थानीय और राज्य स्तर पर पड़ताल शुरू भी
कर दी है। इसके पहले एके एंटनी कम से कम दो रिपोर्टें चुनाव में मिली पराजयों के
बाबत तैयार चुके हैं। इनकी सिफारिशों में दो बातें महत्वपूर्ण थीं। पार्टी में
भीतरी स्तर पर चुनाव कराकर संगठन को मजबूत किया जाए और विधानसभा तथा लोकसभा के लिए
कम से कम तीन से छह महीने पहले प्रत्याशियों का नाम तय कर दिया जाए। पर इन बातों
को लागू नहीं कराया जा सका। अलबत्ता राहुल गांधी ने इस बात की ओर इशारा किया कि वे
पार्टी में संरचनात्मक बदलाव चाहते हैं। यह पार्टी देश में तभी तक प्रभावशाली थी,
जब उसके पास क्षेत्रीय क्षत्रप थे। पर इस वक्त
क्षेत्रीय नेता ही बगावत का झंडा बुलंद कर रहे हैं। भीतरी असंतोष को मुखर करने की
कोई व्यवस्था नहीं है।
राहुल का संकोच
सोनिया गांधी को पार्टी
की कमान फिर से हाथ में लेने की जरूरत इसलिए भी पड़ी कि राहुल गांधी ने बढ़ते कदम
खींच लिए। तमाम स्थितियों पर विचार करने के बाद भी पार्टी के पास पारिवारिक
नेतृत्व के बाहर जाने का विकल्प ही नहीं है। हाल में दिग्विजय सिंह ने कहा है कि
राहुल गांधी सत्ता-मुखी राजनेता नहीं हैं। वे न्याय के लिए लड़ने वाले नेता हैं।
पर राजनीति तो शासन करने के लिए है, केवल आंदोलन के लिए नहीं। ऐसा भी नहीं कि
पार्टी ने राहुल को ताकतवर बनाने में कोई कसर छोड़ी हो। और घूम फिरकर राहुल पर ही
वापस आना होगा। हाईकमान ने फिलहाल अपने लिए जो राह चुनी है उसके तीन चरण नज़र आते
हैं :-
1.विचार-मंथन : पार्टी को विचार-मंथन करना ही है। यह वास्तविक कारणों को जानने से ज्यादा
कार्यकर्ता को यह संदेश देने के लिए भी है कि पार्टी कारणों को समझना चाहती है।
कारणों को समझने की प्रक्रिया में गुटबाजी और बढ़ेगी। फिलहाल पार्टी संगठनात्मक
चुनाव नहीं चाहती, क्योंकि उससे भी बिखराव का खतरा है। राहुल गांधी पर सोनिया आँच
आने देना नहीं चाहेंगी।
2.पुनर्गठन : सोनिया गांधी के सक्रिय होने के साथ पार्टी के पुराने नेता भी सक्रिय हुए हैं।
इनमें से काफी लोग किनारे हो गए थे। राहुल गांधी ने कुछ नए नेताओं को आगे बढ़ाया
था और पुराने नेताओं को गवर्नर वगैरह जैसे पद दिलाकर असंतुष्ट होने से बचा लिया
था। अब भाजपा सरकार ने गवर्नरों की कुर्सी खाली करा ली है। काफी सीनियर नेता यों
भी लोकसभा चुनाव हारने के कारण खाली है। वे अब दिल्ली में डेरा जमाएंगे। पार्टी को
कमोबेश इन सब को काम देना होगा। साथ ही संगठन को फिर से मुकाबलों के लिए तैयार
करना होगा।
3.फिर राहुल : सोनिया के आगे आने और पुराने नेताओं को बढ़ावा
मिलने से पार्टी कार्यकर्ता तक हद तक आश्वस्त हुआ है। राहुल के नेतृत्व की विफलता
अनौपचारिक रूप से मान ली गई है, पर उसे औपचारिक रूप देना कोई नहीं चाहता। सोनिया
गांधी भी उस घड़ी का इंतजार करेंगी जब इस गुस्से के कम होने के बाद बेटन फिर से
राहुल को सौंपी जाए।
राजनीतिक दृष्टि से
पार्टी उतनी कमजोर नहीं है, जितनी लगती है। उसके पास राज्यसभा में 68 सदस्य हैं। सरकार को कई मौकों पर कांग्रेस के
सहयोग की जरूरत होगी। उसे सरकार की खिंचाई करने और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के कई
मौके मिलेंगे। राज्यसभा के कुल 245 सदस्यों में
भाजपा और उसके सहयोगी दलों का बहुमत नहीं है। जबकि कांग्रेस के पास प्रभावशाली
संख्या है। 2015 के अंत तक
राज्यसभा की केवल 23 सीटें खाली होने
वाली हैं, इसलिए कांग्रेस की स्थिति
में अभी ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। यह पार्टी को सोचना है कि इस स्थिति का लाभ
कैसे उठाए।
दूसरी ओर कांग्रेसी बाउंसबैक
आसान भी नहीं है। सन 1977 में कांग्रेस के
खिलाफ वैकल्पिक गैर-कांग्रेसी ताकत तैयार नहीं थी। नरेंद्र मोदी की सरकार, मोरारजी-सरकार
जैसी बारह मसाले की चटनी नहीं है। फिर सन 1989 में जिस वैकल्पिक ताकत ने जन्म लिया, वह अंतर्विरोधों से भरी थी।
उसमें भाजपा से लेकर कम्युनिस्ट सब शामिल थे। इसलिए 1991 में बेटन फिर कांग्रेस के हाथ में था। अब कांग्रेस को किस चमत्कार
का इंतज़ार है?
कांग्रेस के पास सोनिया राहुल के अलावा कोई विकल्प नहीं ,अन्य सब नेता तो नपुसंक समान है , यदि कोई आगे बढे या अन्य किसी को आगे बढ़ाये तो चापलूस उसकी टांग खींचेंगे , इसलिए अभी कुछ दिन इस पार्टी को बैडरूम में ही रहने दे , अभी सत्ता दूर है , पांच साल कुछ होना नहीं , क्या करेंगे सड़कों पर आ कर धुप में पसीना बहाना कार्यकर्ताओं का काम है नेताओं का नहीं
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