प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश वैश्वीकरण की प्रत्यक्ष देन है। भारत में ही नहीं दुनिया भर में 1990 के दशक
से इसका नाम ज्यादा सुना जा रहा है। पश्चिमी पूँजी को विस्तार के लिए नए इलाकों की
तलाश है, जहाँ से बेहतर फायदा मिल सके। साथ ही इन इलाकों को पूँजी की तलाश है जो आर्थिक
गतिविधियों को बढ़ाए, ताकि रोजगार बढ़ें। बहस भी इसी बात को लेकर है कि रोजगार बढ़ते
हैं या नहीं। बहरहाल सन 2009 में यूपीए-2 की सरकार के दुबारा आने के बाद उम्मीद थी
कि अब आर्थिक उदारीकरण का चक्का तेजी से चलेगा। यानी प्रत्यक्ष कर, बैंकिग, इंश्योरेंस,
जीएसटी, भूमि अधिग्रहण और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े मसले निपटाए जाएंगे। पर
दो बातों ने इस चक्के की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिए। एक तो सरकार घपलों-घोटालों की राजनीति
में फँस गई और दूसरे पश्चिमी देश मंदी में आने लगे जिसके कारण पूँजी का विस्तार थमने
लगा।
हमने उदारीकरण का
मतलब घोटाले मान लिया, जबकि ये घोटाले समय से सुधार न हो पाने की देन थे। कई बार लगता
है कि सरकार और पार्टी के बीच भी एक सतह पर असहमतियाँ हैं। पिछले साल प्रणव मुखर्जी
के राष्ट्रपति बनने के पहले तक सुधारों की गाड़ी डगमगा कर ही चल रही थी। पर उसके बाद
बाद सोनिया गांधी ने साफ किया कि आर्थिक सुधारों का काम पूरा होगा। इस दिशा में पहला
कदम था सिंगल ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का फैसला। यह फैसला एक साल
पहले ही लागू होता, पर ममता बनर्जी के विरोध के कारण रुका पड़ा था। इसकी खातिर सरकार
को द्रविड़ प्राणायाम करके सपा-बसपा को साथ लाना पड़ा।
पिछले साल दिसम्बर
में सरकार ने निवेश के रास्ते में आने वाली अड़चनों को दूर करने के लिए बड़ी परियोजनाओं
को जल्द मंजूरी देने को लेकर मंत्रिमंडल की निवेश समिति गठित करने और औद्योगीकरण को
बढ़ावा देने के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसौदे को मंजूरी दी थी। पर सरकार की कोशिशों
पर न तो विदेशी निवेशकों ने कोई खुशी जताई और न देशी उद्योगपतियों ने। दूसरी ओर उदारीकरण
की नीतियों को तेजी से लागू करने के कारण अलोकप्रियता बढ़ी और सरकार को खाद्य सुरक्षा
और कंडीशनल कैश ट्रांसफर की लोक-लुभावन नीतियों का सहारा लेना पड़ा।
पिछले महीने 16 जुलाई
को सरकार ने एफडीआई के लिए कुछ नए कदमों की घोषणा की है। इसमें दूरसंचार, बीमा और रक्षा
उद्योग में निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला शामिल है। पेट्रोलियम एवं नेचुरल गैस, पावर एक्सचेंज, कॉमोडिटी एक्सचेंज और स्टॉक एक्सचेंज में ऑटोमेटिक
रूट से 49 फीसदी एफडीआई की अनुमति का फैसला भी है। अनेक ब्रांड वाले खुदरा व्यापार
के मानदंडों को उदार बनाया गया है। नागरिक उड्यन, एयरपोर्ट, मीडिया और फार्मा के क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने पर कोई फ़ैसला फिर भी नहीं हो
पाया। इऩफ्रास्ट्रक्चर का काफी काम अधूरा पड़ा है।
भारत दुनिया में हथियारों
का सबसे बड़ा आयातक है। हमारा रक्षा उद्योग इतना विकसित नहीं कि सेना की जरूरतों को
पूरा कर सके। विदेशी खरीद के कारण घोटाले होते हैं। ऑगस्टा वेस्टलैंड हैलिकॉप्टर और
टैट्रा ट्रक विवाद सामने हैं। रक्षा क्षेत्र में फिलहाल 26 फीसदी विदेशी निवेश की अनुमति
है, जबकि उससे आगे के लिए कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की अनुमति अनिवार्य होगी। हमारे
पास स्वदेशीकरण के अच्छे उदाहरण भी हैं। नौसेना ने परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बी
तैयार करके दिखा दी और इसी महीने पहले स्वदेशी विमानवाहक पोत की झलक आप देखेंगे। दूसरी
ओर वायुसेना का विदेशी माल के प्रति मोह खत्म नहीं होता। हमें रक्षा में आला दर्जे
की मेटलर्जी और इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए विदेशी मदद की जरूरत है। और रिवर्स इंजीनियरी
के कौशल की जो काम चीन ने किया। फार्मास्युटिकल्स में भी हमारे यहाँ अच्छी सम्भावनाएं
हैं, पर हम विदेशी निवेश से घबराते हैं।
विदेशी पूँजी निवेश
को लेकर सरकार ने इस साल आठ सदस्यों की समिति बनाई जिसके अध्यक्ष थे अरविंद मायाराम।
18 जून को समिति की रपट मिलने के एक महीने बाद सरकार ने कुछ फैसले किए हैं। समिति ने
रक्षा क्षेत्र में सरकार की मंजूरी से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) सीमा 26 प्रतिशत
से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने की सिफारिश की थी। इसके साथ मल्टी ब्रांड खुदरा कारोबार में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई)
की सीमा 74 प्रतिशत तक करने का सुझाव दिया था। कुल 20 क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने का
सुझाव दिया था, सरकार ने सिर्फ़ 12 को ही मंज़ूरी दी।
केवल सीमा बढ़ाने
से ही निवेश नहीं बढ़ेगा। प्रशासनिक बदलाव भी जरूरी है। सरकारी मशीनरी आज भी आपत्तियाँ
लगाने को कौशल मानती है। कोई वजह है कि जितना विदेशी पूँजी निवेश हम भारत में लाते
हैं उससे ज्यादा भारतीय पूँजी बाहर जाती है। इसका एक हिस्सा विदेशी घूँघट में मॉरीशस
वगैरह के रास्ते भारत वापस भी आता है। पिछले साल आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने भारतीय
राजनीति के संदर्भ में जो कुछ कहा वह उनके गले पड़ गया। उन्हीं कारणों से जिनका जिक्र
उन्होंने किया था उन्हें अपनी बात वापस लेनी पड़ी। रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल
बजट में जो प्रस्ताव पेश किए थे वे बदल गए। उसके पहले सरकार को खुदरा बाजार में विदेशी
निवेश की अनुमति देने का आदेश वापस लेना पड़ा। पेंशन, इंश्योरेंस, बैंकिंग और टैक्स
सुधार के तमाम कानूनों को सरकार संसद से आज तक पास नहीं करा पाई है। हम नहीं जानते
कि उदारीकरण हमारे लिए उपयोगी है या नहीं। हम नहीं जानते कि इसके कारण गरीबी बढ़ी है
या घटी है। हम नहीं बता सकते कि विकास समावेशी है या नहीं।
आर्थिक प्रश्नों को
समझना मुश्किल काम है, पर उन्हें समझना चाहिए। हमारा सकल घरेलू उत्पाद तकरीबन 101 लाख
करोड़ रुपए का है। इसमें एक प्रतिशत की वृद्धि से तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए की प्राप्ति
होगी। इतनी राशि से ढाई लाख रुपए सालाना आमदनी के 40 लाख रोजगार पैदा किए जा सकते
हैं। पर तभी जब वितरण उचित हो। संवृद्धि से पैदा समृद्धि के इस्तेमाल पर हमारी समझ
क्या है? इन दिनों भगवती-पन्नगड़िया और अमर्त्य सेन की बहस
सरगर्म है। ग्रोथ तब तक बेकार है जब तक वह कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक न पहुँचे।
पर विकास का वैश्विक मॉडल अपने साथ असमानता भी लाएगा। इस असमानता को तार्किक बिन्दु तक रोकने की जिम्मेदारी राज्य की है। दूसरी ओर गरीबी के फंदे में फँसे लोगों को बाहर निकालने की जिम्मेदारी भी उसकी है। इस काम में समय लगेगा, पर ऐसा होता नजर आना चाहिए। बेशक ऐसा भी सम्भव नहीं कि सुदामा की
तरह अचानक किसी एक सुबह देश के 80 करोड़ लोग झोंपड़ों के बजाय महलों में उठें।
दो साल पहले दिल्ली
आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता
और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। हमें एक बेहतर और फोकस्ड लोकतंत्र की ज़रूरत है। यह
बात दिल्ली में कही गई थी और पृष्ठभूमि में रिटेल में एफडीआई का मामला था। क्या भारत
में अतिशय लोकतंत्र है? चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की
राजनीतिक व्यवस्था है। राजनीतिक विपक्ष वहाँ नहीं है। सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के
पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है। वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते
हैं। हम चौड़े हाइवे बनाना चाहते हैं। किसलिए? उनपर बड़े ट्रक और गाड़ियाँ
हीं चलेंगी। हर शहर मेट्रो चलाना चाहता है। मेट्रो चलेगी तो रिक्शे वालों की रोजी जाएगी।
यह हमें सोचना है कि बेकार रिक्शे वालों को क्या काम दें। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश
की अधिसूचना के अनुसार उन शहरों के रिटेल स्टोरों के लिए लिए विदेशी पूँजी की अनुमति
मिलेगी जिनकी आबादी दस लाख से ज्यादा है। देश में ऐसे 53 शहर हैं। आधे से ज्यादा राज्यों
ने घोषणा कर दी है कि हम अपने यहाँ एफडीआई नहीं आने देंगे। मतलब 20 से 25 शहर इसके
पात्र होंगे। मान लें इन सभी शहरों में तीन-चार नए स्टोर खुले तो ज्यादा से ज्यादा
सौ-सवा सौ स्टोर खुलेंगे। इनमें आधी पूँजी बैक-एंड काम पर लगेगी। यानी कोल्ड स्टोरेज, प्रोसेसिंग, क्वालिटी कंट्रोल, सप्लाई चेन वगैरह। किसी न किसी स्तर पर निर्माण होगा।
पूँजी निवेश देशी
हो या विदेशी। उसे जज्ब करने का मद्दा भी होना चाहिए। देश का खुदरा बाज़ार तकरीबन
500 अरब डॉलर का है। तीन-चार विदेशी कम्पनियाँ फिलहाल ज़्यादा से ज्यादा चार पाँच अरब
डॉलर का निवेश करेंगी। वह भी अगले तीन से पाँच साल में। इस दौरान कुछ नए शहर भी तैयार
होंगे। जहाँ स्टोर खुलेंगे और जहाँ नहीं खुलेंगे, उन दोनों का अनुभव लेने से
हम क्यों डरते हैं? बिग बाज़ार जैसी कम्पनियाँ
कई सौ करोड़ के घाटे में हैं। उनके पास बैक-एंड नहीं हैं और न लगाने के लिए पैसा है।
हम कहते हैं कि देसी दुकानदार या घर-घर चूड़ी पहनाने वाली मनहारिन से बेहतर सेवा मॉल
में नहीं मिलेगी। तो डरते क्यों हैं? शायद प्रशासनिक व्यवस्था
पर भरोसा नहीं है। नियामक संस्थाएं हैं, जो सब कुछ रेग्युलेट करें। उन कानूनों को नहीं
बदल पा रहे हैं जो रोड़ा बनते हैं। यह काम किसका है, विदेशियों का?
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