जोखिम भरी है तेलंगाना
की राह
लोकसभा चुनाव समय पर हुए तब तक भी शायद तेलंगाना बन नहीं पाएगा. पहले हुए तो बात ही कुछ और है. इसलिए कांग्रेस ने इसका फैसला चुनाव के लिए किया है भी तो वह भावनात्मक है, व्यावहारिक नहीं. यानी जिन राजनीतिक शक्तियों को परास्त करने की मनोकामनाएं हैं, उनपर अभी सीधा असर नहीं होगा.
कांग्रेस कार्यसमिति
का फैसला हो जाने भर से तेलंगाना नहीं बन जाएगा। कांग्रेस ने तो सन 2004 में ही सीधे-सीधे
मान लिया था कि तेलंगाना बनेगा। उसके बाद पाँच साल तक नहीं बना और के चन्द्रशेखर राव
ने आमरण अनशन शुरू किया तो पी चिदम्बरम ने उनके अनशन को खत्म कराने के लिए साफ-साफ
कहा कि तेलंगाना बनेगा। अभी इस बाबत कैबिनेट को फैसला करना होगा, फिर यह प्रस्ताव आंध्र
प्रदेश की विधानसभा के पास जाएगा। वहाँ से यह संसद में आएगा। दोनों जगह से इस प्रस्ताव
को पास कराने के रास्ते में कई तरह की चुनौतियाँ हैं। चूंकि भाजपा ने तेलंगाना बनाने
का समर्थन किया है इसलिए संसद से यह प्रस्ताव पास होने में अड़चन नहीं है, पर तेलंगाना
के भौगोलिक स्वरूप को लेकर दिक्कतें पैदा हो सकती हैं।
देखना यह है कि तेलंगाना
के आंदोलनकारियों को यह सौदा मंजूर होगा या नहीं। हो सकता है कि वे इसे स्वीकार कर
लें कि चलो जो भी मिल रहा है उसे ले लो। पर क्या यह स्वाभाविक बँटवारा होगा? और क्या किसी राज्य का भविष्य किसी पार्टी के राजनीतिक हिसाब-किताब
से तय होगा? मोटे तौर पर माना जा रहा
है कि यदि तेलंगाना न बने तब भी कांग्रेस को आंध्र में कोई बड़ा नुकसान होने वाला नहीं
है। तब कांग्रेस क्यों तेलंगाना बना रही है? इसका सबसे बड़ा कारण
है आगामी लोकसभा चुनाव। कांग्रेस के पास आंध्र से लोकसभा की 42 में से 29 सीटें हैं।
अकेले तेलंगाना क्षेत्र की 17 में से 12 सीटें कांग्रेस के पास हैं। ऐसा लगता है कि
तटीय आंध्र और रायलसीमा में कांग्रेस का जादू खत्म हो गया है। कांग्रेस चाहती है कि
तेलंगाना देकर कम से कम वहाँ 10-12 सीटें हासिल की जाएं।
कांग्रेस की योजना
यह भी है कि वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी का विस्तार रायलसीमा के बाहर न होने
पाए। इसके अलावा तेलंगाना राज्य समिति के नेता के चन्द्रशेखर राव को अपने साथ रखा जाए
ताकि सीटों पर जीत सुनिश्चित हो। फिर ऐसी कोशिश भी होनी चाहिए कि चन्द्रशेखर राव की
पार्टी पूरी तरह इस राज्य की सत्ता पर न आ जाए। कांग्रेस की यह कोशिश भी होगी कि तेलुगु
देसम पार्टी दोनों राज्यों में ज्यादा आगे न बढ़ पाए और बीजेपी को इस प्रक्रिया में
कोई भी फायदा मिलने न पाए। कांग्रेस की कोशिश होगी कि मजलिस इत्तहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम)
भी उसके साथ रहे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने हाल में एमआईएम के हैदराबाद से सांसद
असदुद्दीन ओवेसी से मुलाकात करके उनसे तेलंगाना में रायलसीमा के दो जिले जोड़ने के
बाबत बात की।
कांग्रेस की नजर फिलहाल
अपने सम्भावित विरोधियों पर है। आंध्र में सबसे बड़ी चुनौती जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर
कांग्रेस है। जगनमोहन रेड्डी का असर खासतौर से रायलसीमा के अनंतपुर, कुर्नूल, कडपा
और चित्तूर जिलों में है। कांग्रेस की योजना रायल तेलंगाना बनाने की है, जिसमें रायल
सीमा के दो जिले कुर्नूल और अनंतपुर भी शामिल होंगे। इससे कांग्रेस को कोई लाभ हो न
हो जगनमोहन रेड्डी को नुकसान होगा। उनकी पार्टी की ताकत दो राज्यों में बँट जाएगी,
जिससे वे किसी एक राज्य में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होंगे। उधर दूसरे राज्य
का नाम सीमांध्र प्रदेश होगा। दोनों राज्यों में लोकसभा की 21-21 सीटें होंगी। इससे
कांग्रेस को भारी नुकसान नहीं हो पाएगा।
पर तेलंगाना मामले
में कांग्रेस ने नासमझी का परिचय दिया है। उसने राजनीतिक लाभ के लिए इस मामले को पहले
उठाया और फिर छोड़ दिया। इससे उसकी साख बुरी तरह गिरी। साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर
रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी से जाने-अनजाने पंगा लेकर उसने दूसरा संकट मोल ले लिया।
दोनों बातें एक-दूसरे की पूरक साबित हो रहीं हैं। जगनमोहन के साथ रिश्ते बुरी तरह खराब
होने के कारण तटीय आंध्र और रायलसीमा क्षेत्र में कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी होने
वाली हैं।
सन 2004 में चुनावी सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा
कर दिया था। संयोग से केन्द्र में उसकी सरकार बन गई। तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार
में शामिल ही नहीं हुई, यूपीए के कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में राज्य बनाने
के काम को शामिल कराने में कामयाब भी हो गई थी। इसके बावजूद तेलंगाना नहीं बना। इससे
नाराज होकर चन्द्रशेखर राव यूपीए से अलग हो गए और नवम्बर 2009 में उन्होंने आमरण अनशन शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर राव के अनशन को खत्म कराने के
लिए गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का वादा कर दिया।
पर ऐसा सिर्फ मसले को टालने के लिए किया गया था। इस बीच श्रीकृष्ण समिति बनाई गई, जिसने गोलमोल समाधान सुझाए। कांग्रेस ने यह कोशिश भी की कि प्रदेश विधान सभा नया
राज्य बनाने का प्रस्ताव पास करे,
जैसे उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की स्थापना में हुआ था। पर यह सम्भव नहीं हुआ, क्योंकि जितना
ताकतवर तेलंगाना आंदोलन है उतना ही ताकतवर राज्य को वृहत् रूप में बनाए रखने का आंदोलन
है।
राज्य की भौगोलिक
सीमाओं पर सहमति हो भी जाए, पर हैदराबाद को लेकर आमराय बनाना मुश्किल होगा। तेलंगाना
में एक खास तरह की लहर है और रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश में संयुक्त आंध्र की लहर
है। आज़ादी के बाद देश का पहला राजनैतिक संकट तेलंगाना के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ
खड़ा हुआ था, जो आज आंध्र के बाहर नक्सली आंदोलन के रूप में चुनौती
पेश कर रहा है। भाषा के आधार पर देश का पहला राज्य आंध्र ही बना था, पर उस राज्य को एक बनाए रखने में भाषा मददगार साबित नहीं हो रही है। तेलंगाना को
अलग राज्य बनाने की माँग देश के पुनर्गठन का सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी थी। 1953 में तेलुगुभाषी आंध्र का रास्ता तो साफ हो गया था, पर तेलंगाना को इस वृहत् आंध्र में जबरन फिट किया गया था।
राज्य पुनर्गठन आयोग
की सलाह थी कि हैदराबाद को विशेष दर्जा देकर तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया जाए और
शेष क्षेत्र अलग आंध्र बने। तेलंगाना राज्य की मांग पर चर्चा होते ही हैदराबाद का सवाल
सबसे पहले उठता है। तेलंगाना के समर्थक हैदराबाद को अपनी स्वाभाविक राजधानी मानते हैं,
क्योंकि भौगोलिक और ऐतिहासिक रूप से यह शहर तेलंगाना की राजधानी रहा है। अब जो शेष
आंध्र बचेगा वह किसी भी जगह पर हैदराबाद से जुड़ा नहीं होगा। उसकी सीमा हैदराबाद से
कम से कम 200 किलोमीटर दूर होगी।
हैदराबाद राज्य का सबसे विकसित कारोबारी केन्द्र है। अब किसी नए शहर का विकास करने
की कोशिश होगी तो उसमें काफी समय लगेगा। प्रदेश के राजस्व में आधे से ज्यादा हैदराबाद
शहर और उसके पास के इलाके से आता है।
चन्द्रबाबू नायडू
के कार्यकाल में हैदराबाद सायबराबाद के नाम से आईटी के क्षेत्र में देश के सबसे तेजी
से उभरते शहरों में एक बन गया था। पर पिछले तीन-चार दशक में हैदराबाद में विकसित हुआ
उद्योग-व्यापार रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश के पूंजीपतियों का है। वे इस शहर को
कैसे छोड़ देंगे? निर्माण, सिनेमा, मीडिया,
होटल और दूसरे तरह का कारोबार लगभग गैर-तेलंगाना लोगों का है। केन्द्र सरकार इसीलिए
हैदराबाद के मसले को कुछ समय के लिए छेड़ना नहीं चाहेगी। पर उससे बड़ा सवाल यह है कि
क्या राजनीतिक दृष्टि से तेलंगाना का गठन कांग्रेस को रास आएगा? कांग्रेस को पता है कि इस रास्ते में जोखिम हैं,
पर उसकी मजबूरी है। वह इससे भाग भी नहीं सकती।
हरिभूमि में प्रकाशित
पता नहीं कितने राज्य और टपकेंगे इस बक्से से।
ReplyDeleteगाना ढपली पर फ़िदा, सुने नहीं फ़रियाद |
ReplyDeleteपड़े मूल्य करना अदा, धिक् धिक् मत-उन्माद |
धिक् धिक् मत-उन्माद, रवैया तानाशाही |
चमचे देते दाद, करें दिन रात उगाही |
चीफ-मिनिस्टर कई, और भी पड़े बनाना |
और उठे आवाज, बना जो तेलंगाना ||
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (01-08-2013) को "ब्लॉग प्रसारण- 72" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
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