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Saturday, February 16, 2013

हिन्द महासागर में भारत-विरोधी हवाओं पर ध्यान दें


सिद्धांततः भारत को मालदीव की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, पर वहाँ जो कुछ हो रहा है, उसे बैठे-बैठे देखते रहना भी नहीं चाहिए। पिछले साल जब मालदीव में सत्ता परिवर्तन हुआ था वह किसी प्रकार से न्यायपूर्ण नहीं था। फौजी ताकत के सहारे चुने हुए राष्ट्रपति को हटाना कहीं से उचित नहीं था। और अब उस राष्ट्रपति को चुनाव में खड़ा होने से रोकने की कोशिशें की जा रहीं है। इतना ही नहीं देश का एक तबका परोक्ष रूप से भारत-विरोधी बातें बोलता है। वह भी तब जब भारत उसका मददगार है। दरअसल हमें मालदीव ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया और खासतौर से हिन्द महासागर में भारत-विरोधी माहौल पैदा करने की कोशिशों के बाबत सतर्क रहना चाहिए।  16 फरवरी 2013 के हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित मेरा लेखः-
Maldivian army and policemen face supporters of Mohamed Nasheed, who resigned Tuesday from his post as Maldivian President, during a protest in Male on Wednesday.
मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद की गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी होने के बाद उनका माले में स्थित भारतीय दूतावास में आना एक महत्वपूर्ण घटना है। पिछले साल फरवरी में जब नाशीद का तख्ता पलट किया गया था तब भारत सरकार ने उस घटना की अनदेखी की थी, पर लगता है कि अब यह घटनाक्रम किसी तार्किक परिणति की ओर बढ़ेगा। शायद हम अभी इस मामले को ठीक से समझ नहीं पाए हैं, पर यह बात साफ दिखाई पड़ रही है कि नाशीद को इस साल वहाँ अगस्त-सितम्बर में होने वाले चुनावों में खड़ा होने से रोकने की पीठिका तैयार की जा रही है। इसके पहले दिसम्बर 2012 में मालदीव सरकार ने भारतीय कम्पनी जीएमआर को बाहर का रास्ता दिखाकर हमें महत्वपूर्ण संदेश दिया था। माले के इब्राहिम नासिर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की देखरेख के लिए जीएमआर को दिया गया 50 करोड़ डॉलर का करार रद्द होना शायद बहुत बड़ी बात न हो, पर इसके पीछे के कारणों पर जाने की कोशिश करें तो हमारी चंताएं बढ़ेंगी। समझना यह है कि पिछले एक साल से यहाँ चल रही जद्दो-जेहद सिर्फ स्थानीय राजनीतिक खींचतान के कारण है या इसके पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है।
पिछले साल 18 नवम्बर को श्रीलंका के हम्बनटोटा बन्दरगाह का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री महीन्दा राजपक्षे ने कहा था, चीन और भारत के नेतृत्व में तेजी से विकसित होते एशिया के साथ हमारा देश भी आगे बढ़ेगा। इस वक्तव्य में चीन के साथ भारत का नाम सायास जोड़ा गया था। डेढ़ अरब डॉलर की राशि से विकसित हो रहा हम्बनटोटा बन्दरगाह श्रीलंका और चीन के मैत्री सम्बन्धों की कहानी है। पिछले साल मार्च में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में अमेरिका द्वारा श्रीलंका के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव का भारत ने समर्थन किया था। भारत का कहना था कि हमने समर्थन ज़रूर किया, पर इस प्रस्ताव को नरम बनवाने में सफलता प्राप्त कर ली थी। बहरहाल श्रीलंका सरकार के मन में भारत के प्रति बैठा असंतोष छिपा नहीं है। पिछले साल एक इंटरव्यू में राजपक्षे ने कहा था, भारत हमारा समर्थन करता तो यह प्रस्ताव आता ही नहीं। अब अगले महीने मार्च में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के 22 वें अधिवेशन में अमेरिका फिर से श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव लाने वाला है। क्या हम इस बार भी नरम रवैया अपनाएंगे? मानवाधिकार-उल्लंघनों के आरोपों से हम उसे क्यों बचाना चाहते हैं? वह भी तब जब वह लगातार दुर्भावना व्यक्त कर रहा है? पिछले महीने राजपक्षे ने विशेषाधिकार का प्रयोग कर देश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश शिरानी भंडारनायके को बर्खास्त किया। इसमें भी भारत के लिए एक संदेश था। श्रीलंका ने भारत से वादा किया था कि तमिल क्षेत्रों को शीघ्रातिशीघ्र स्वायत्तता दी जाएगी। पर राजपक्षे सरकार ने इस काम को लटका दिया है। सुप्रीम की मुख्य न्यायाधीश ने सरकार को इस बाबत कसा था। प्रकारांतर से यह भारतीय विदेश नीति की पराजय थी।
दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज के सवाल पर भारत का चीन से परोक्ष टकराव चल रहा है। दक्षिणी चीन सागर में अधिकार को लेकर चीन का वियतनाम, फिलीपींस, ताइवान, ब्रुनेई और मलेशिया के साथ विवाद है। चीन इस पूरे सागर पर अपना दावा जताता है जिसका पड़ोसी देश विरोध करते है। वियतनाम ने पेट्रोलियम की खोज करने का काम भारतीय कम्पनी ओएनजीसी विदेश को सौंपा है। चीन को इस तेल खोज पर आपत्ति है, पर उससे ज्यादा आपत्ति वियतनाम और भारत के रक्षा सम्बन्धों पर है। चीन को लगता है कि इस इलाके में अमेरिका, जापान और भारत मिलकर दुरभिसंधि कर रहे हैं। चीन के अनुसार भारत ने हिन्द महासागर में मलक्का की खाड़ी के प्रवेश द्वार पर अनेक द्वीपों पर नियंत्रण कर रखा है।
श्रीलंका का हम्बनटोटा बंदरगाह उस अंतरराष्ट्रीय सागर लेन से करीब 10 नॉटीकल मील दूर है, जिससे होकर तकरीबन 200 जहाज हर रोज पूरब से पश्चिम या पश्चिम से पूरब की ओर जाते हैं। यह दुनिया के सबसे व्यस्त जलमार्गों में से एक है। यहाँ से एक लाख टन तक के वजनी जहाज गुजर सकते हैं। चीन की यह महत्वपूर्ण जीवन रेखा है, क्योंकि उसके लिए पेट्रोलियम और खनिजों की सप्लाई और उसके तैयार माल की दूसरे देशों को सप्लाई इसी मार्ग से होती है। इस रास्ते पर हिन्द महासागर में सबसे अच्छी पोर्ट सुविधा श्रीलंका में ही मिलेगी। श्रीलंका में पाँच और बंदरगाह विकसित करने के लिए चीन उत्सुक है। उधर पाकिस्तान-ईरान सीमा पर चीन ने न सिर्फ ग्वादर बंदरगाह तैयार कर दिया है, उसका संचालन भी उसके पास आ गया है। पाकिस्तान ने सन 2007 में पोर्ट ऑफ सिंगापुर अथॉरिटी के साथ 40 साल तक बंदरगाह के प्रबंध का समझौता किया था। यह समझौता अचानक पिछले अक्टूबर में खत्म हो गया। और इसे एक चीनी कम्पनी को सौंप दिया गया है। अब ग्वादर से पाक अधिकृत कश्मीर के रास्ते चीन के शिनजियांग प्रांत तक सड़क बनाई जा रही है। पश्चिम एशिया से ईंधन की आपूर्ति के लिए चीन इस रास्ते का इस्तेमाल करेगा। 
हम्बनटोटा के उद्घाटन के दो महीने पहले सितम्बर में चीन के रक्षामंत्री लियांग गुआंग ली श्रीलंका आए थे। चीन ने श्रीलंका को 10 करोड़ डॉलर (तकरीबन 550 करोड़ रु) की सैन्य सहायता दी है। वह उसकी रक्षा-व्यवस्था को दुरुस्त कर रहा है। माना जा सकता है कि लिट्टे के कारण लम्बे अर्से तक आतंकवाद से पीड़ित देश की सुरक्षा आवश्यकताएं हैं। पर सवाल है उसने बजाय भारत के चीन के सामने हाथ क्यों पसारा?  बंगाल की खाड़ी के उत्तर में कोको द्वीपों को म्यांमार सरकार ने 1994 में चीन को सौंपा था। हालांकि म्यांमार या चीन सरकार ने कभी आधिकारिक रूप से इसकी पुष्टि नहीं की, पर यह बताया जाता है कि अंडमान निकोबार से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर चीन ने सैनिक अड्डा बना लिया है, जहाँ से भारतीय नौसेना की गतिविधियों पर नज़र रखी जा सकती है। भारत सरकार ने भी औपचारिक रूप से इस बात की पुष्टि कभी नहीं की, पर खंडन भी कभी नहीं किया। भारत के सारे मिसाइल परीक्षण और उपग्रह प्रक्षेपण के काम पूर्वी तट पर होते हैं। इस लिहाज से चीन का यह अड्डा सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पिछले दिनों चीन ने हिन्द महासागर के छोटे से द्वीप सेशेल्स में भी नौसैनिक अड्डा बना लिया। चीन का कहना है कि यह नौसैनिक अड्डा उसने समुद्री लुटेरों से अपने जहाजों की रक्षा के लिए स्थापित किया है। पर यह चीन की उस स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स का हिस्सा है, जो वह मेनलैंड चीन से सूडान के पोर्ट तक बना रहा है। वाशिंगटन के सेंटर फॉर ए न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी के विशेषज्ञ रॉबर्ट कपलान ने हाल में सीएनएन के एक इंटरव्यू में कहा कि चीन और भारत सामुद्रिक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। पूर्वी एशिया तथा दक्षिण चीनी सागर और पूर्वी सागर में प्रभुत्व जमाने पर चीन एक महान क्षेत्रीय शक्ति बन जाएगा। हिन्द महासागर में मौजूदगी उसे बड़ी ताकत बना देगी।  
मालदीव की घटनाएं क्या चीन और पाकिस्तान की व्यापक रणनीति का हिस्सा हैं?  अगले साल अफगानिस्तान से अमेरिका और नेटो की सेनाएं हट रहीं है। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान के विकास की जिम्मेदारी भारत के बजाय चीन को मिले। ग्वादर से कश्मीर की सड़क अफगानिस्तान की सीमा से होकर भी गुजरेगी। पाकिस्तान अफगानिस्तान का इस्तेमाल अपनी सुरक्षा के लिए करना चाहता है। पर मालदीव जैसे छोटे देश में बार-बार कुछ क्यों हो रहा है?  पिछले साल 7 फरवरी को वहाँ राष्ट्रपति मुहम्मद नाशीद के तख्ता पलट को हमने गम्भीरता से नहीं लिया। नाशीद ने उस समय कहा था कि यह विद्रोह पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल ग़यूम के इशारे पर किया गया है। मौमून गयूम की सरकार को भारतीय सेना ने ही नवम्बर 1988 के एक तख्ता पलट की कोशिशों में बचाया था। संकेत है कि वहाँ धार्मिक चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं। नाशीद ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा था कि हमने चीन के साथ रक्षा करार को नामंज़ूर कर दिया था। इस वजह से मेरा तख्ता पलट हुआ। लगता यह है कि माले के हवाई अड्डे की देखरेख का काम अंततः किसी चीनी कम्पनी को मिलेगा। चीन की निगाहें मालदीव के अद्दू हवाई अड्डे पर भी हैं। संदेह पैदा होता है कि इन सब बातों के पीछे कोई योजना तो नहीं।


हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित

1 comment:

  1. बहुत ही समसामयिक और उपयोगी लेख !

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