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Monday, February 4, 2013

कानूनी सुधार का अधूरा चिंतन


पिछले दो साल में हुए दो बड़े जनांदोलनों की छाया से सरकार बच नहीं पा रही है। यह छाया 21 फरवरी से शुरू होने वाले बजट सत्र पर भी पड़ेगी। इन आंदोलनों की नकारात्मक छाया से बचने के लिए सरकार ने पिछले हफ्ते दो बड़े फैसले किए हैं। केन्द्रीय कैबिनेट ने पहले लोकपाल विधेयक के संशोधित प्रारूप को मंज़ूरी दी और उसके बाद स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए कानून में बदलाव की पहल करते हुए अध्यादेश लाने का फैसला किया। दोनों मामलों में सरकार कुछ देर से चेती है और दोनों में उसका आधा-अधूरा चिंतन दिखाई पड़ता है। अंदेशा यह है कि यह कदम उल्टा भी पड़ सकता है। सीपीएम ने इस बात को सीधे-सीधे कह भी दिया है। यह अधूरापन केवल सरकार में नहीं समूची राजनीति में है। इसके प्रमाण आपके सामने हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह की याचिका पर छह साल पहले सरकार को निर्देश दिया था कि वह पुलिस सुधार का काम करे। ज्यादातर राज्य सरकारों की दिलचस्पी इसमें नहीं है। पिछले साल लोकपाल आंदोलन को देखते हुए लगभग सभी दलों ने संसद में आश्वसान दिया था कि कानून बनाया जाएगा। जब 2011 के दिसम्बर में संसद में बहस की नौबत आई तो बिल लटक गया। सरकार अब जो विधेयक संशोधन के साथ लाने वाली है उसके पास होने के बाद लोकपाल की परिकल्पना बदल चुकी होगी। दिसम्बर 2011 में ही समयबद्ध सेवाएं पाने और शिकायतों की सुनवाई के नागरिकों के अधिकार का विधेयक भी पेश किया गया था। कार्यस्थल पर यौन शोषण से स्त्रियों की रक्षा का विधेयक 2010 से अटका पड़ा है। ह्विसिल ब्लोवर कानून के खिलाफ विधेयक अटका पड़ा है। भोजन का अधिकार विधेयक अटका पड़ा है। यह संख्या बहुत बड़ी है।

संसदीय व्यवस्था में अटके पड़े कानूनों के महत्व को आप तभी समझ पाएंगे, जब उन्हें पढ़ेंगे। देश के तमाम लोगों का जीवन इनसे जुड़ा है। इन पर न सिर्फ गम्भीर विमर्श की, बल्कि जल्द से जल्द फैसले करने की ज़रूरत भी है। पर जैसे ही संसदीय सत्र शुरू होता है कुछ ऐसे मसले निकल आते हैं कि ज़रूरी बातें पीछे रह जाती हैं। दिसम्बर 2012 में दिल्ली गैंगरेप के बाद जो गुस्सा नौजवानों ने व्यक्त किया, वह केवल एक मामले को लेकर नहीं था। यह गुस्सा तमाम मामलों को लेकर था, जिसका ट्रिगर पॉइंट यह बलात्कार था। पिछले 16 दिसम्बर को दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद 23 दिसम्बर को जस्टिस जेएस वर्मा, जस्टिस लीला सेठ और गोपाल सुब्रह्मण्यम की तीन सदस्यीय समिति को कानूनों में बदलाव की सिफारिशें करने की जिम्मेदारी दी गई तब लगता था कि सरकार ने आंदोलन से पिंड छुड़ाने के लिए इसका गठन किया है। समिति के पास न तो पर्याप्त साधन थे और न इस बात का इंतज़ाम कि साधन कहाँ से आएंगे। पर इस समिति ने सिर्फ एक महीने के भीतर अपनी रपट देकर एक बहुत बड़ा काम किया है। एक अर्थ में यह रपट स्त्री अधिकारों के घोषणापत्र के रूप में याद की जाएगी। इस समिति के सदस्यों और उनकी मदद में लगे सैकड़ों या शायद हजारों लोगों को देश की व्यवस्था में आमूल बदलाव की भावना भरने का श्रेय जाता है। जैसे वह आंदोलन देश की जनभावनाओं को बताता है समिति की यह रपट भी जन भावनाओं को परिलक्षित करती है।
कानूनी सुधार आसान काम नहीं है। इसमें तमाम तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं को समझना होता है। समिति ने जो दस्तावेज देश को सौंपा है उसका अध्ययन गहराई से होना चाहिए। समिति की रपट आने के फौरन बाद सरकारी प्रतिक्रिया नहीं आई, पर शुक्रवार को कैबिनेट के फैसले को देखते हुए लगता है कि सरकार अब जल्द से जल्द कुछ करना चाहती है। इसका क्या अर्थ है? सरकार या तो इसका पूरा राजनीतिक लाभ उठा लेना चाहती है या जिस शिद्दत से जस्टिस वर्मा आयोग ने काम किया उसे और आगे ले जाना चाहती है? पर सरकार ने इस मामले में संसदीय विमर्श के लम्बे रास्ते पर जाने की कोशिश क्यों नहीं की? इस मामले में सबसे ज्यादा चर्चा बलात्कारी को मौत की सजा देने को लेकर हुई है। समिति की नज़रों में बलात्कार रेयर ऑफ द रेयरेस्टअपराधों की श्रेणी में नहीं आता। कई बार हत्या की मंशा साबित करना मुश्किल होता है। इसलिए इसके लिए मृत्युदंड की सिफारिश नहीं की जा सकती। पीड़ित स्त्री की मौत होने पर यों भी हत्या का आरोप लगेगा, पर समिति की निगाह में बलात्कार जैसे अपराध के दौरान अगर पीड़ित की हत्या कर दी जाती है या फिर वह इस कदर घायल हो जाती है कि सामान्य जीवन बिताने लायक नहीं रहती तो अपराधी की न्यूनतम सज़ा उम्रक़ैद होनी चाहिए। इस मामले में सरकार ने आगे बढ़कर रेयर ऑफ द रेयरेस्ट मामलों में मौत की सजा का प्रवधान रखा है। शायद यह बात प्रचार में ज्यादा काम आएगी। पर वैवाहिक जीवन में बलात्कार वाले अंश को सरकार ने अध्यादेश में शामिल नहीं किया। इसी तरह अशांत क्षेत्रों में सेना पर लगने वाले यौन शोषण के मामलों पर समिति की सिफारिशों को नहीं माना। लगभग ऐसा ही नक्सलपंथियों के नाम पर होता है, जैसा कि हाल में सोनी सोरी के मामले में हुआ। कश्मीर और उत्तर-पश्चिमी राज्यों में तैनात सैनिक, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के लोग अगर यौन अपराध करते हैं तो उन पर भी आम अदालतों में मुकदमे चलाए जाने चाहिए। विशेष कानून के तहत उनका बचाव नहीं किया जाना चाहिए। वस्तुतः ज़रूरत स्त्रियों के प्रति पूरी समझ को बदलने की है। इसलिए खापों के संदर्भ में कानून को बदलना चाहिए। और इस काम में कुछ देर के लिए राजनीतिक हितों को किनारे रख देना चाहिए।
वर्मा समिति ने स्त्रियों के खिलाफ अपराधों को व्यापक परिधि में रखा है। उसने केवल भारतीय दंड संहिता में ही बदलावों की सिफारिश नहीं की है, बल्कि दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में बदलाव के सुझाव दिए हैं। उनकी सिफारिशों को अब आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक 2012 में शामिल करना चाहिए। पर बहुत जल्दबाज़ी की ज़रूरत भी नहीं है। समिति ने बलात्कार की जगह यौन आक्रमण शब्द सुझाया है। यौन अपराधों की परिभाषा को भी व्यापक किया गया है। इसमें परेशान करना, ताकाझाँकी, छेड़छाड़, यौन इरादे से छूना आदि शामिल है। इन अपराधों के लिए तीन से पाँच साल तक की सज़ा का प्रावधान किया गया है। महत्वपूर्ण यह है कि समिति ने इस अपराध के दायरे में कुछ नई बातों को शामिल किया है। जैसे तेजाब फेंकना, यौन आक्रमण, स्त्री के सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करना, दृश्यरति और पीछा करना। यौन आक्रमण की शिकार महिला की मेडिकल जाँच को आसान बनाने की सलाह भी दी गई है। और पुलिस पूछताछ में संवेदनशील तरीके से पेश आने और जाँच प्रक्रिया और सुनवाई जल्दी पूरी करने की सलाह भी दी गई है। किशोर अपराधियों के मामले में उसने उम्र को 18 साल से नीचे करने का सुझाव नहीं दिया है, पर दिल्ली गैंगरेप मामले के कारण यह सवाल बहस का विषय बन गया है। अजमल कसाब को फाँसी हो गई, पर शुरू में उसने अपने किशोर होने की दलील भी दी थी। क्या यह सम्भव नहीं कि पाकिस्तानी आतंकी गिरोह किशोरों का इस्तेमाल अपराधों में शुरू कर दें। उन्हें आत्मघाती हमलों के लिए भेजें और साथ में उनके प्रमाणपत्र भी लगा दें। श्रीलंका में लिट्टे ने किशोरों का खूब इस्तेमाल किया। ऐसे आरोप हैं कि मुम्बई में सुपारी लेने वाले उत्तर प्रदेश से किशोरों को लेकर आते हैं उनसे गोलियाँ चलवाते हैं और वापस उनके घर पहुँचा देते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर ठंडे दिमाग से विचार के बाद ही दिए जाने चाहिए।
बहरहाल हम कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्थाओं के बदलाव की देहलीज पर खड़े हैं। ज्यादातर बदलाव तभी हो पा रहे हैं जब जनता दबाव बनाती है। यह अच्छी बात है, पर इसमें खतरा भी है। जनता भावनाओं में बहती भी है। जैसे इस मामले में फाँसी की सजा का मसला मूल प्रश्न पर हावी हो गया। ऐसी ही बातें लोकपास कानून के साथ जुड़ी हैं। ज़रूरत इस बात की है कि जनता की ओर से विचार की एक समझदार व्यवस्था कायम हो। वर्मा कमेटी इसकी बेहतर मिसाल है।

सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

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