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Monday, December 17, 2012

एक और 'गेम चेंजर', पर कौन सा गेम?

गुजरात में मतदान का आज दूसरा दौर है। 20 दिसम्बर को हिमाचल और गुजरात के नतीजे आने के साथ-साथ राजनीतिक सरगर्मियाँ और बढ़ेंगी। इन परिणामों से ज्यादा महत्वपूर्ण है देश की राजनीति का तार्किक परिणति की ओर बढ़ना। संसद का यह सत्र धीरे-धीरे अवसान की ओर बढ़ रहा है। सरकार के सामने अभी पेंशन और बैंकिंग विधेयकों को पास कराने की चुनौती है। इंश्योरेंस कानून संशोधन विधेयक 2008 को राज्यसभा में पेश हुआ था। तब से वह रुका हुआ है। बैंकिंग कानून संशोधन बिधेयक, माइक्रो फाइनेंस विधेयक, सिटीजन्स चार्टर विधेयक, लोकपाल विधेयक शायद इस सत्र में भी पास नहीं हो पाएंगे। महिला आरक्षण विधेयक वैसे ही जैसे मैजिक शो में वॉटर ऑफ इंडिया। अजा, जजा कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण का विधेयक राजनीतिक कारणों से ही आया है और उन्हीं कारणों से अटका है। संसद के भंडारागार में रखे विधेयकों की सूची आप एक बार देखें और उनके इतिहास पर आप जाएंगे तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि इस देश की गाड़ी चलाना कितना मुश्किल काम है। यह मुश्किल चाहे यूपीए हो या एनडीए या कोई तीसरा मोर्चा, जब तक यह दूर नहीं होगी, प्रगति का पहिया ऐसे ही रुक-रुक कर चलेगा।

ममता बनर्जी के हाथ खींच लेने के बाद कांग्रेस पार्टी के सामने इस सत्र में सबसे बड़ी चुनौती आसन्न पराजय को टालने की थी। वह टल गई। अब यह साफ है कि सरकार गिरने वाली नहीं है। अब सरकार के सामने अपने आर्थिक उदारीकरण और लोकलुभावन राजनीति के एजेंडा को पूरा करने की चुनौती है ताकि 2014 के चुनाव में उतरा जा सके। पार्टी ने राहुल गांधी को लोकसभा चुनाव की समन्वय समिति का प्रमुख बनाया गया है। सरसरी निगाह में यह सामान्य औपचारिकता लगती है, पर गौर से देखें तो समझ में आता है कि पार्टी ने संगठित और संस्थागत तरीके से चुनाव में उतरने का फैसला किया है। इसमें पार्टी की कोर कमेटी की शक्ल भी नज़र आती है। राहुल औपचारिक रूप से पार्टी में दूसरे नम्बर के नेता हो गए हैं। टीम सोनिया अब टीम राहुल हो गई है। यह राहुल की वह युवा टीम नहीं है जो अभी तक उनके साथ नज़र आती थी। राहुल की टीम में 27 में से केवल छह नेता 50 से कम उम्र के हैं। उनकी सबसे बड़ी योग्याता है कि वे विश्वासपात्र हैं। लोकसभा चुनाव यदि 2014 में होंगे तो उससे पहले कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, दिल्ली, राजस्थान और त्रिपुरा विधानसभाओं के चुनाव हो चुके होंगे। इन चुनावों के मार्फत कई प्रकार के राजनीतिक प्रयोग और परीक्षण भी होंगे। छत्तीसगढ़ विधान सभा का कार्यकाल जनवरी 2014 तक, सिक्किम का मई और आंध्र प्रदेश तथा ओडिशा की विधान सभाओं का कार्यकाल जून 2014 तक है। क्या वहाँ लोकसभा के साथ विधान सभा चुनाव भी होंगे? यानी कि पूरे देश में किसी न किसी रूप में अब राजनीतिक गतिविधियाँ चलती रहेंगी। तमाम जातीय-धार्मिक और सामाजिक समीकरण बनने और उनमें करेक्शन का काम होगा। कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए बड़ी चुनौतियाँ हौं, क्योंकि आसार इस बात के हैं कि 2014 में राष्ट्रीय दलों की लोकप्रियता में कमी आएगी। कर्नाटक में येदुरप्पा ने दक्षिण भारत में भाजपा के लंगड़ी मार दी है और आंध्र में जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस के येदुरप्पा बन चुके हैं।

गुजरात में नरेन्द्र मोदी भले ही चुनाव जीत ले जाएं, पर यह जीत भाजपा की नहीं मोदी की होगी। क्या अब मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर भी हावी होकर दिल्ली की ओर रुख करेंगे? इसका एक मतलब यह है कि नितिन गडकरी की जगह भाजपा का कोई और अध्यक्ष घोषित होगा, पर उसके पहले 20 दिसम्बर के नतीजे आने दीजिए। गुजरात में राहुल गांधी भी प्रभावशाली नज़र नहीं आए। यकीन नहीं आता कि वे 2014 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। पर उनके मुकाबले में अभी कोई है भी नहीं। अलबत्ता पार्टी ने पिछले छह महीने में अपना होमवर्क बेहतर कर लिया है। प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद से मनमोहन सरकार अपेक्षाकृत तेजी से फैसले करने लगी है और हिम्मत के साथ खड़ी भी हो रही है। इन फैसलों के कारण विदेशी मुद्रा का पलायन रुका है, रुपए की कीमत में सुधार हुआ है, निवेश का माहौल बेहतर हुआ है, शेयर बाजार फिर से सक्रिय हो गया है। सबसे बड़ी बात दस महीने की तेजी के बाद मुद्रास्फीति में पहली बार गिरावट का रुख देखा जा रहा है। इस हफ्ते सरकार ने कुछ फैसले किए हैं जो आर्थिक और राजनीतिक दोनों मोर्चों पर सरकार के लिए मददगार होंगे। निवेश के रास्ते में आने वाली अड़चनों को दूर करने के लिए सरकार ने बड़ी परियोजनाओं को जल्द मंजूरी देने को लेकर मंत्रिमंडल की निवेश समिति गठित करने और औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसौदे को गुरुवार को मंजूरी दे दी। इसके साथ ही यूरिया क्षेत्र के लिए नई निवेश नीति को भी हरी झंडी दे दी। इस नीति में मौजूदा यूरिया कारखानों के विस्तार और नए उर्वरक संयंत्रों को लगाने के लिए उद्यमियों को प्रोत्साहन मिलेगा। भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर हालांकि उद्योग जगत में निराशा है, पर किसानों के साथ टकराव का कांटा दूर होगा। इस कानून को पास कराना भी राजनीतिक दृष्टि से आसान नहीं है। पर अब दुनिया में सबसे महंगी ज़मीन भारत में होंगी। उद्योगों के लिए ज़मीन खरीदना मुश्किल काम होगा, पर शायद विवाद कम हों। इससे आवासीय योजनाएं महंगी होंगी और शहरीकरण की रफ्तार सुस्त होगी। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को तेजी से लागू करने के कारण सरकारी अलोकप्रियता बढ़ी है। इसलिए सरकार इन विकल्पों की ओर जा रही है। खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण के कानून ग्रामीण इलाकों में उसकी लोकप्रियता बढ़ाएंगे।

सरकार के पास तुरुप का अगला पत्ता है कंडीशनल कैश ट्रांसफर। राहुल गांधी का कहना है कि कैश ट्रांसफर की हमारी योजना ठीक तरीके से लागू हो जाए तो अगले दो चुनाव हम जीत जाएंगे। यह बात उन्होंने उन 51 जिलों के कांग्रेस अध्यक्षों से कही है, जहाँ कैश ट्रांसफर कार्यक्रम इसी एक जनवरी से शुरू करने की योजना है। पर पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय का कहना है कि संबंधित जिलों में 80-90 फीसदी आबादी का 'आधार कार्ड' अभी तक नहीं बन पाने की वजह से इसे शुरू नहीं किया जा सकता। फिलहाल 20 जिलों में ही यह योजना शुरू की जा सकती है। योजना देर से या कम जिलों में शुरू होना समस्या नहीं है। समस्या यह है कि क्या कैश ट्रांसफर ठीक तरीके से हो पाएगा? राजस्थान के कुछ इलाकों में इसका पायलट प्रोजेक्ट चल रहा है फिर भी राज्य के खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री परसादी लाल मीणा मानते हैं कि केरोसिन की 80 प्रतिशत कालाबाजारी हो रही है। अलवर जिले की कोट कासिम, बानसूर और किशनगढ़बास पंचायत समितियों में चल रही योजना ने जनता के मन में काफी उम्मीदें जगाईं थीं, पर चूंकि परिणाम फौरन सामने नहीं आए इसलिए अब गुस्सा भी काफी है। वित्त मंत्री पी चिदम्बरम 15 दिसम्बर को परियोजना का जायज़ा लेने कोटकासिम जाने वाले थे, पर यह दौरा रद्द कर दिया गया।

कैश ट्रांसफर लैटिन अमेरिकी देशों से शुरू हुआ है जहाँ लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहन के रूप में नकद राशि या वाउचर देने की व्यवस्था की गई थी। पर भारत के कैश ट्रांसफर का काम बहुत विशाल है और यह सब्सिडी ट्रांसफर है। हमारे यहाँ शिकायत यह है कि सब्सिडी सीधे जनता तक न जाकर बिचौलियों की जेब में जाती है। क्या टेक्नॉलजी ने इस समस्या का समाधान खोज लिया है? बेशक यह बहुत महत्वाकांक्षी योजना है। सफल हुई तो कांग्रेस के पुनरोदय में मदद करेगी, पर इसमें जोखिम भी हैं। विफल हुई तो जनता की नाराज़गी को झेलना भी कांग्रेस को पड़ेगा। बहरहाल राजनीति और अर्थ-व्यवस्था का यह काफी रोचक दौर है, जो देश के पैराडाइम को बदल कर रख देगा। सी एक्सप्रेस में प्रकाशित


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