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Monday, September 24, 2012

आर्थिक नहीं, संकट राजनीतिक है

बारहवीं योजना के दस्तावेज़ में से क्रोनी कैपीटलिज़्म शब्द हटाया जा रहा है। इसका ज़िक्र भारतीय आर्थिक व्यवस्था और हाल के घोटालों के संदर्भ में हुआ था। इस पर कुछ मंत्रियों का कहना था कि इस शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे क्रोनी कैपीटलिज़्म का भारतीय व्यवस्था में चलन साबित होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर आगाह कर चुके हैं। इसी 12 सितम्बर को उन्होंने हाइवे प्रोजेक्ट्स में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को लेकर क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर चेताया था। मनमोहन सिंह सन 2007 में इस प्रवृत्ति के खतरों की ओर चेता चुके हैं। आप कहेंगे वे खुद प्रधानमंत्री हैं और खुद सवाल उठा रहे हैं। पर सच यह है कि मनमोहन सिंह ने भारतीय पूँजी और राजनीति के रिश्तों पर कई बार ऐसी टिप्पणियाँ की हैं। हालांकि उदारीकरण का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फूटता है, पर यह काजल की कोठरी है और इसमें बगैर दाग वाली कमीज़ किसी ने नहीं पहनी है। बहरहाल क्या हम योजना आयोग के दस्तावेज़ से यह शब्द हटाकर व्यवस्था को पारदर्शी बना सकते हैं? पिछले कुछ दिनों में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि उदारीकरण का मतलब संसाधनों का कुछ परिवारों के नाम स्थानांतरण नहीं है। हमारा आर्थिक विकास रोज़गार पैदा करने में विफल रहा है। पर क्या ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती और बीजेपी व्यव्स्था को पारदर्शी बनाना चाहते हैं? क्या उनके विरोध के पीछे कोई आदर्श है? या यह सब ढोंग है? 

प्रधानमंत्री का कहना है कि पैसा पेड़ों में नहीं उगता। क्या ममता, मुलायम और मायावती समेत लगभग सारे दलों को लगता है कि उगता है? आज बंगाल सरकार 23,000 करोड़ रुपए के जिस कर्ज़ को माफ कराना चाहती है, वह रुपया भी पेड़ों नहीं उगा था, पर वाम मोर्चा सरकार ने रुपया लाने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा। कांग्रेस को छोड़ लगभग हर पार्टी ने मनमोहन सिंह सरकार के आर्थिक सुधारों का विरोध किया है। कांग्रेस के भीतर भी मनमोहन सिंह समर्थक लगभग न के बराबर हैं। हाल में समाजवादी पार्टी के नेता मोहन सिंह ने कोयला मामले के संदर्भ में कहा था कि पार्टी के भीतर ही बहुत से लोग चाहते हैं कि मनमोहन सिंह हटें। आर्थिक सुधारों को लेकर सोनिया गांधी ने जनता के बीच जाकर कभी कुछ नहीं कहा। बल्कि उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई, जिसकी अधिकतर सलाहों से सरकार सहमत नहीं रही। पार्टी के आर्थिक और राजनीतिक विचारों में तालमेल नज़र नहीं आता। सवाल दो हैं। पहला यह कि सरकार को अचानक आर्थिक सुधारों की याद क्यों आई? और क्या वह मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है? इन सब सवालों के साथ एक सवाल यह भी है कि क्या बीजेपी अपने ‘इंडिया शाइनिंग’ को भुलाकर जिस लोकलुभावन राजनीति के रास्ते पर जा रही है, क्या उसमें पैसा पेड़ों पर उगता है?
हमारी समस्या है राजनीति और अर्थव्यवस्था के बीच बढ़ती खाई। रिटेल के एफडीआई को लेकर सरकार का यह दावा अविश्वसनीय है कि इससे एक करोड़ रोज़गार पैदा होंगे, वहीं यह बात भी सही नहीं है कि इससे 25 करोड़ छोटे कारोबारी तबाह हो जाएंगे। सरकार ने एफडीआई के जिस फैसले की अधिसूचना जारी की है उसके अनुसार देश के उन शहरों के रिटेल स्टोरों के लिए लिए विदेशी पूँजी निवेश की अनुमति दी जाएगी, जिनकी आबादी दस लाख से ज्यादा है। देश में ऐसे 53 शहर हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल, तमिलनाडु, बिहार जैसे देश के आधे से ज्यादा राज्यों ने घोषणा कर दी है कि हम अपने यहाँ एफडीआई नहीं आने देंगे। इसका मतलब है कि 20 से 25 शहर इसके पात्र होंगे। मान लें इन सभी शहरों में तीन-चार नए स्टोर खुले तो ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ स्टोर खुलेंगे। इनमें पूँजी निवेश का आधा पैसा बैक-एंड काम पर लगेगा। यानी कोल्ड स्टोरेज, प्रोसेसिंग, क्वालिटी कंट्रोल, सप्लाई चेन वगैरह। यानी किसी न किसी स्तर पर निर्माण होगा। देश का कुल खुदरा बाज़ार तकरीबन 500 अरब डॉलर का है। इसमें से मामूली सा कारोबार संगठित क्षेत्र में है। तीन-चार विदेशी कम्पनियाँ फिलहाल ज़्यादा से ज्यादा चार पाँच अरब डॉलर का निवेश करेंगी। वह भी अगले तीन से पाँच साल में।

देश की बिग बाज़ार जैसी कम्पनियाँ कई सौ करोड़ के घाटे में चल रहीं हैं। उनके पास बैक-एंड इंतज़ाम नहीं हैं और न लगाने के लिए पैसा है। दूसरी ओर शहरीकरण लगातार हो रहा है। यह कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। संगठित और असंगठित क्षेत्र में टकराव नहीं है। एक तरफ हम कहते हैं कि देसी सेठजी की दुकान से बेहतर सेवा मॉल में नहीं मिलती। हमारे परम्परागत व्यापारी इन्हें पीट देंगे। दूसरी ओर मानते हैं कि ये स्टोर 25 करोड़ लोगों को तबाह कर देंगे। फिर डर किस बात का है? सच यह है कि दोनों एक-दूसरे के मुकाबले में उतरेंगे तो उपभोक्ता को बेहतर सेवा मिलेगी। पर उसके पहले देश के कुछ कानूनों में बदलाव भी ज़रूरी है। कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून को खत्म किए बगैर कृषि उत्पादों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना सम्भव नहीं। राज्यों की सरकारें अभी इसमें बदलाव को तैयार नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि राजनतिक दलों के पास वैश्विक दृष्टिकोण नहीं है।

ममता बनर्जी के तल्ख तेवरों से मुलायम सिंह भी साँसत में आ गए हैं। शायद उन्हें भरोसा था कि ममता धमकी ही देती रहेंगी। पर अब मुलायम सिंह क्रॉस फारिंग के बीच आ गए हैं। सरकार का विरोध और समर्थन एक साथ करना ज्यादा समय तक नहीं चल सकता। उनकी पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव ने कहा है कि आज की तारीख में हमारा समर्थन है, पर कह नहीं सकते कि कब तक रहेगा। उनकी पार्टी इंतज़ार कर रही है कि मायावती कोई फैसला करें। कुछ समय पहले तक खामोश बसपा ने भी तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। मायावती का कहना है कि मनमोहन सिंह सरकार ने अनेक जनविरोधी फैसले किए हैं, जिनका हम विरोध करते है। उन्होंने यह भी कहा कि हमारी पार्टी ने बहुत पहले ही मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआई की नीति का विरोध किया था। उन्होंने 9 अक्तूबर को लखनऊ में महारैली निकालने की घोषणा की, जिसमें सरकार को समर्थन देने या न देने के बारे में फैसला किया जाएगा। शायद तब तक मुलायम सिंह भी सरकार को समर्थन देने के बारे में फैसला नहीं करेंगे। पर इन दोनों पार्टियों को फैसला करने में इतना समय क्यों लग रहा है?

तृणमूल कांग्रेस ने भी अभी तक यह नहीं कहा है कि वह सरकार गिराने की कोशिश करेगी। ममता बनर्जी ने फैसला तो कर लिया, पर अब बंगाल एक बड़े आर्थिक संकट से घिरने जा रहा है। केन्द्र सरकार 23,000 करोड़ के कर्ज़ को माफ करने पर विचार कर रही थी, जो अब सम्भव नहीं होगा। बंगाल सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने भर का पैसा है। कर्ज़ माफी न होने का मतलब है नए निर्माण कार्य नही होंगे, सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य की नई योजनाएं नहीं आएंगी। प्रदेश में पूँजी निवेश और नए रोज़गारों के आने का रास्ता भी बंद हो जाएगा। क्या इस स्थिति में भी ममता बनर्जी लोकप्रिय रह पाएंगी?

न्यूक्लियर डील के बाद पहली बार मनमोहन सिंह विश्वास के साथ कुछ बोले हैं, पर उनकी साख खत्म हो चुकी है। उन्होंने देश की जनता को हिन्दी में भी सम्बोधित किया। यानी वे आमजन तक अपनी बात सीधे रखना चाहते हैं। उनके पास जो जानकारी थी वह जनता के सामने रखी। कांग्रेस पार्टी इस काम को भूल चुकी है। यह उसकी नेतृत्व क्षमता की सबसे बड़ी विफलता है। पार्टी के किसी बड़े नेता ने अपनी नीतियों के पक्ष में जनता के सामने जाने की हिम्मत नहीं की। नेता वह होता है जो खुलकर अपनी बात कहता है और ज़रूरत पड़ने पर गलतियों को स्वीकार भी करता है। देश में नेताओं का टोटा है। लगभग शून्य है। आर्थिक उदारीकरण अगर ज़रूरी है तो उसके बारे में खुलकर बोलने की ज़रूरत है।

जेडीयू के नेता शरद यादव ने बीबीसी की वैबसाइट के संवादादाता से एक इंटरव्यू में कहा है कि सोनिया को प्रधानमंत्री होना चाहिए था। उनका आशय है कि कोई राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए, जो चुनाव लड़ता हो। जनादेश जिसके पास हो उसे ही नेतृत्व करना चाहिए। पार्टी और सरकार की दिशा में अंतर्विरोध नज़र नहीं आना चाहिए। उनकी बात ठीक है, पर राजनीतिक व्यक्ति का काम जनता को जागरूक बनाना भी है। इस वक्त का असमंजस पार्टी की नीतियों के कारण है। उदारीकरण का रास्ता सही है तो उसपर मजबूती से आगे बढञना चाहिए। और सही नहीं है तो उसे छोड़ देना चाहिए। कांग्रेस दोनों रास्तों पर चलना चाहती है। कांग्रेस ही नहीं सारी पार्टियों की यह स्थिति है। बंगाल की अर्थव्यवस्था को तबाह करने के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में सीपीएम ने अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के रास्ते पर चलना शुरू किया कि ममता बनर्जी ने सिंगूर का आंदोलन छेड़ दिया। वे राजनीति में सफल हो गईं, पर अर्थव्यवस्था उन्हें बुरी तरह विफल करने वाली है।

कांग्रेस के बाद उदारीकरण के महत्व को समझने वाली पार्टी बीजेपी है। रिटेल में एफडीआई का श्रीगणेश बीजेपी ने ही किया है। उदारीकरण से जुड़े तमाम बड़े फैसले एनडीए सरकार ने किए। विडंबना है कि जब बीजेपी फैसले करती है तब कांग्रेस उसका विरोध करती है और अब जब कांग्रेस फैसले कर रही है तो बीजेपी उसका विरोध कर रही है। इसका मतलब महत्वपूर्ण आर्थिक नीति नहीं राजनीति है। पहले उसे तय करना चाहिए कि वह चाहती क्या है।

सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

3 comments:

  1. "केन्द्र सरकार 23,000 करोड़ के कर्ज़ को माफ करने पर विचार कर रही थी, जो अब सम्भव नहीं होगा।"
    ....
    साफ है क िअगर किसी राज्य में किसी दूरसे दल की सरकार है तो कांग्रेस राज्य को तबाह करेगी। अगर वह राज्य कांग्रेस के मुताबिक चले तभी विकास या धन मिलेगा, संविधान के संघीय ढांचे को ठेंगे पर रख चुकी है कांग्रेस, ्गर वह ऐसा करती है तो?

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  2. राज्य बाजार से उधारी (करोड़ रुपये में)
    पश्चिम बंगाल 10,000
    आंध्र प्रदेश 9,250
    गुजरात 8,100
    उत्तर प्रदेश 7,500
    पंजाब 5,200
    महाराष्टï्र 4,700
    हरियाणा 3,650
    राजस्थान 3,500
    कर्नाटक 1,800
    हिमाचल प्रदेश 1,360
    बिहार 750
    झारखंड 500

    (ये बाजार से उधार लेने वाले राज्यों की सूची है। इन राज्यों का कर्ज क्यों न माफ कयिा जाए? संविधान नाम की कोई चीज है तो एक राज्य को कैसे छूट जी जा सकती है?)

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  3. बंगाल के ऊपर 22,000 करोड़ रुपये ब्याज का भार हैं। राज्य पर 2.3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। साथ ही राज्य सरकार ने अब तक वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए कोई कदम नई उठाया है। वह धड़ल्ले से कर्ज उठा रही है, बाजार से।

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