ममता बनर्जी के रुख में बदलाव है और मुलायम सिंह की बातें गोलमोल हैं। लगता है आर्थिक उदारीकरण के सरकारी फैसलों के पहले गुपचुप कोई बात हो गई है।
पिछले साल सरकार आज के मुकाबले ज्यादा ताकतवर थी। 24 नवम्बर को मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश का फैसला करने के बाद सरकार ने नहीं, बंगाल की मुख्यमंत्री ने उस फैसले को वापस लेने की घोषणा की थी। इस साल रेलवे बजट में किराया बढ़ाने की घोषणा रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने की और वे भूतपूर्व हो गए। सरकार लगातार कमज़ोर होती जा रही है। ऐसे में आर्थिक सुधार की इन जबर्दस्त घोषणाओं का मतलब क्या निकाला जाए? पहला मतलब शेयर बाज़ार, मुद्रा बाज़ार और विदेश-व्यापार के मोर्चे पर दिखाई पड़ेगा। देश के बाहर बैठे निवेशकों की अच्छी प्रतिक्रियाएं मिलेंगी और साथ ही देश के राजनीतिक दलों का विरोध भी देखने को मिलेगा। यूपीए सरकार को विपक्ष से ज्यादा अपने बाड़े के भीतर से ही विरोध मिलेगा। ममता बनर्जी ने डीज़ल के दाम फौरन घटाने का सरकार से आह्वान भी कर दिया है। पर सवाल है सरकार में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई? इसका एक अर्थ यही है कि कांग्रेस पार्टी ने मन बना लिया है कि सरकार गिरती है तो गिरे। या फिर बैकरूम पॉलिटिक्स में फैसलों पर सहमतियाँ बन गईं हैं।
सरकार ने 48 घंटे के भीतर तीन-चार बड़े फैसले किए हैं। यूपीए सरकार के पिछले सवा तीन साल के ये सबसे बड़े निर्णय हैं। माना जा रहा था कि यूपीए-2 सरकार आर्थिक उदारीकरण का एजेंडा पूरा करेगी। पर कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व लोकप्रियता हासिल करने के चक्कर में पड़ गया। डीज़ल के दाम बढ़ाने और एलपीजी के छह सिलेंडरों की सीमा बाँधने के बाद तकरीबन 20,300 करोड़ रुपए सरकार के पास जाएंगे। इसके बाद भी सब्सिडी का तकरीबन 1,67, 000 करोड़ अभी अनकवर्ड है। इन फैसलों में केवल रिटेल में विदेशी निवेश का असर ज्यादा व्यापक होगा। सरकार ने इस बार विरोध की पेशबंदी अच्छी तरह की है। देश के दस या ग्यारह राज्य और दो केन्द्र शासित क्षेत्र इसके समर्थन में हैं। जो राज्य अपने यहाँ मल्टी ब्रांड रिटेल को मंज़ूर नहीं करते वे अपने यहाँ न आने दें। रिटेल पर विदेशी निवेश-राशि में से आधी बैकेंड इनफ्रास्ट्रक्चर पर लगानी होगी। यानी प्रोसेसिंग, मैन्युफैक्चरिंग, पैकेजिंग, क्वालिटी कंट्रोल, स्टोरेज, वेयरहाउसिंग वगैरह। इसमें भी ज़मीन और बिल्डिंग वगैरह शामिल नहीं है। ये स्टोर दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में ही खोले जा सकेंगे। यदि ये उपभोक्ता के लिए हितकर होंगे तो सफल होंगे, वर्ना विफल होंगे। उम्मीद है कोल्ड स्टोरेज बनने से खाद्य सामग्री का नुकसान रुकेगा और किसान को फायदे वाला दाम मिलेगा।
नागरिक उड्डयन में विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी करने से अभी कोई बड़ा फायदा मिलने की आशा कम है। ऐसा लगता है कि स्पाइसजेट जैसी अपेक्षाकृत सफल सेवाएं कुछ विदेशी पैसा लाकर अपने कारोबार का विस्तार कर सकती हैं। किंगफिशर एयरलाइंस को इससे फायदा होगा या नहीं अभी यह अनुमान भर है। ब्रॉडकास्टिंग में निवेश सीमा 49 से बढ़ाकर 79 फीसदी करने का असर केबल और डीटीएच सेवाओं पर पड़ेगा। आने वाले समय में इसका काफी विस्तार होने वाला है। केबल प्रसारण का डिजिटाइज़ेशन हो रहा है। शहरी विकास के साथ ऑप्टिक फायबर का जाल बिछता जा रहा है। आने वाले समय की तमाम सेवाएं इसके सहारे चलेंगी। इन सेवाओं को उपलब्ध कराने के लिए काफी पूँजी चाहिए। उधर पावर ट्रेडिंग एक्सचेंज एक नई अवधारणा है, जो बिजली के कारोबार का बाजार है। यह अभी शैशवावस्था में है और इस समय दो एक्सचेंज काम कर रहे हैं। इसमें 49 फीसदी तक विदेशी निवेश का फैसला किया गया है। इसके प्रभाव भविष्य में दिखाई पड़ेंगे।
प्रणब मुखर्जी के वित्तमंत्री की कुर्सी से हटने के बाद अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपेक्षाकृत खुले हाथों से फैसले कर सकेंगे। देखना है कि इन कदमों का असर क्या होता है। और यह भी कि कि हमारी आर्थिक समस्याओं के समाधान का रास्ता किधर से होकर जाता है। कुछ महीने पहले भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने भारतीय राजनीति के संदर्भ में जो कुछ कहा वह किस हद तक सही साबित होगा यह वक्त बताएगा, पर मनमोहन सिंह सरकार का यह फैसला एक हद तक ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ के आरोप को धोने के लिए है। सरकार के सामने इसके अलावा रास्ता भी नहीं बचा था। अभी अनेक बिलों को संसद से पास कराना है। लोकसभा भंग करनी पड़ी तो वे सारे बिल खत्म हो जाएंगे। पेंशन बैंकिंग और टैक्स सुधार के तमाम कानूनों को क्या सरकार संसद से पास करा सकती है? भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा के कानून कैसे पास होंगे? जीएसटी कब से लागू होगा? सच यह है कि हमारे राजनीतिक दलों ने आर्थिक नीतियों पर आम राय नहीं बनाई है। हम नहीं जानते कि उदारीकरण हमारे लिए उपयोगी है या नहीं। मीडिया ने इस संशय को और बढ़ाया है।
हमारा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी तकरीबन 90 लाख करोड़ रुपए का है। इसमें एक प्रतिशत की वृद्धि से तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए की प्राप्ति होती है। इतनी राशि से ढाई लाख रुपए सालाना आमदनी के 40 लाख रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण को आसानी से रोका नहीं जा सकता और अब हम विकास दर में गिरावट को झेल नहीं सकते। यह बात इतनी सरल है तो सबको समझ में क्यों नहीं आती? और यह गलत है तो कोई राजनीतिक दल क्यों नहीं सिर्फ आर्थिक उदारीकरण के पहिए को रोकने के नाम पर चुनाव नहीं लड़ता। समस्या यह नहीं है। समस्या यह है कि हम आर्थिक विकास के फायदे कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक पहुँचाने में विफल रहे हैं। पर ऐसा भी सम्भव नहीं कि सुदामा की तरह अचानक किसी एक सुबह देश के 80 करोड़ लोग झोंपड़े के बजाय महल में उठें। तमाम राजनीतिक दल उदारीकरण को धिक्कारते हैं और जब खुद सरकार बनाते हैं तब उसी रास्ते पर जाते हैं। सन 1991 के बाद केन्द्र की कांग्रेसी सरकार ही उदारीकरण के रास्ते पर नहीं गई थी। बंगाल और केरल की वाम मोर्चे की सरकारों ने भी उदारीकरण का रास्ता पकड़ा था।
मनमोहन सिंह की जो प्रथमिकताएं अभी दिखाई पड़तीं हैं उनमें पहली है रुपए की गिरावट को रोकना। इससे हमारे आयात का बोझ कम होगा। दूसरे शेयर बाजार में गिरावट रोकना चाहेंगे ताकि निवेश का माहौल बना रहे। तीसरे वे विदेश व्यापार में घाटे को कम करना चाहेंगे। विदेश व्यापार के घाटे और राजकोषीय घाटे में कोई टकराव नहीं है। विदेश व्यापार घाटा मार्च 2012 में जीडीपी के 4.5 फीसदी हो गया था। रुपए की घटती कीमत के कारण यह बढ़ता जा रहा है। रुपए की कीमत गिरने पर हम निर्यात बढ़ाकर लाभ ले सकते हैं, क्योंकि तब हमारा माल सस्ता हो जाएगा, पर यूरोप में स्थितियाँ खराब हैं जहाँ हमारा माल जाता था। उधर राजकोषीय घाटा पाँच फीसदी के ऊपर है। उसे इस साल 5.1 पर लाने का लक्ष्य है। इसके लिए सरकारी खर्चों में कमी करनी होगी। मनमोहन सिंह की दृष्टि में विदेशी मार्ग से अर्थव्यवस्था को साधना आसान है। हमारी विदेश में छवि बेहतर होगी तो वे यहाँ निवेश करेंगे। इससे नई तकनीक आएगी और रोजगार बढ़ेंगे। सम्भव है निर्यात भी बढ़े। पर यह विचार तब तक अधूरा है जब तक हमारा बुनियादी ढाँचा ठीक नहीं होगा, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में तेज विकास नहीं होगा और कृषि उत्पादन नहीं बढ़ेगा। राजकोषीय घाटा बढ़ने की वजह है करीब एक लाख नब्बे हजार करोड़ की सब्सिडी। करेंट एकाउंट (विदेश-व्यापार) घाटे की वजह है विदेश में हमारी छवि में गिरावट और उनकी अर्थव्यवस्था के अपने संकट।
पिछले साल दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। क्या भारत में अतिशय लोकतंत्र है? चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था है। राजनीतिक विपक्ष वहाँ नहीं है। सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है। वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं। हमारा लोकतंत्र बिखरा हुआ है। उसे समझदार बनाने की ज़रूरत है।
सरकार ने 48 घंटे के भीतर तीन-चार बड़े फैसले किए हैं। यूपीए सरकार के पिछले सवा तीन साल के ये सबसे बड़े निर्णय हैं। माना जा रहा था कि यूपीए-2 सरकार आर्थिक उदारीकरण का एजेंडा पूरा करेगी। पर कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व लोकप्रियता हासिल करने के चक्कर में पड़ गया। डीज़ल के दाम बढ़ाने और एलपीजी के छह सिलेंडरों की सीमा बाँधने के बाद तकरीबन 20,300 करोड़ रुपए सरकार के पास जाएंगे। इसके बाद भी सब्सिडी का तकरीबन 1,67, 000 करोड़ अभी अनकवर्ड है। इन फैसलों में केवल रिटेल में विदेशी निवेश का असर ज्यादा व्यापक होगा। सरकार ने इस बार विरोध की पेशबंदी अच्छी तरह की है। देश के दस या ग्यारह राज्य और दो केन्द्र शासित क्षेत्र इसके समर्थन में हैं। जो राज्य अपने यहाँ मल्टी ब्रांड रिटेल को मंज़ूर नहीं करते वे अपने यहाँ न आने दें। रिटेल पर विदेशी निवेश-राशि में से आधी बैकेंड इनफ्रास्ट्रक्चर पर लगानी होगी। यानी प्रोसेसिंग, मैन्युफैक्चरिंग, पैकेजिंग, क्वालिटी कंट्रोल, स्टोरेज, वेयरहाउसिंग वगैरह। इसमें भी ज़मीन और बिल्डिंग वगैरह शामिल नहीं है। ये स्टोर दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में ही खोले जा सकेंगे। यदि ये उपभोक्ता के लिए हितकर होंगे तो सफल होंगे, वर्ना विफल होंगे। उम्मीद है कोल्ड स्टोरेज बनने से खाद्य सामग्री का नुकसान रुकेगा और किसान को फायदे वाला दाम मिलेगा।
नागरिक उड्डयन में विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी करने से अभी कोई बड़ा फायदा मिलने की आशा कम है। ऐसा लगता है कि स्पाइसजेट जैसी अपेक्षाकृत सफल सेवाएं कुछ विदेशी पैसा लाकर अपने कारोबार का विस्तार कर सकती हैं। किंगफिशर एयरलाइंस को इससे फायदा होगा या नहीं अभी यह अनुमान भर है। ब्रॉडकास्टिंग में निवेश सीमा 49 से बढ़ाकर 79 फीसदी करने का असर केबल और डीटीएच सेवाओं पर पड़ेगा। आने वाले समय में इसका काफी विस्तार होने वाला है। केबल प्रसारण का डिजिटाइज़ेशन हो रहा है। शहरी विकास के साथ ऑप्टिक फायबर का जाल बिछता जा रहा है। आने वाले समय की तमाम सेवाएं इसके सहारे चलेंगी। इन सेवाओं को उपलब्ध कराने के लिए काफी पूँजी चाहिए। उधर पावर ट्रेडिंग एक्सचेंज एक नई अवधारणा है, जो बिजली के कारोबार का बाजार है। यह अभी शैशवावस्था में है और इस समय दो एक्सचेंज काम कर रहे हैं। इसमें 49 फीसदी तक विदेशी निवेश का फैसला किया गया है। इसके प्रभाव भविष्य में दिखाई पड़ेंगे।
प्रणब मुखर्जी के वित्तमंत्री की कुर्सी से हटने के बाद अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपेक्षाकृत खुले हाथों से फैसले कर सकेंगे। देखना है कि इन कदमों का असर क्या होता है। और यह भी कि कि हमारी आर्थिक समस्याओं के समाधान का रास्ता किधर से होकर जाता है। कुछ महीने पहले भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने भारतीय राजनीति के संदर्भ में जो कुछ कहा वह किस हद तक सही साबित होगा यह वक्त बताएगा, पर मनमोहन सिंह सरकार का यह फैसला एक हद तक ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ के आरोप को धोने के लिए है। सरकार के सामने इसके अलावा रास्ता भी नहीं बचा था। अभी अनेक बिलों को संसद से पास कराना है। लोकसभा भंग करनी पड़ी तो वे सारे बिल खत्म हो जाएंगे। पेंशन बैंकिंग और टैक्स सुधार के तमाम कानूनों को क्या सरकार संसद से पास करा सकती है? भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा के कानून कैसे पास होंगे? जीएसटी कब से लागू होगा? सच यह है कि हमारे राजनीतिक दलों ने आर्थिक नीतियों पर आम राय नहीं बनाई है। हम नहीं जानते कि उदारीकरण हमारे लिए उपयोगी है या नहीं। मीडिया ने इस संशय को और बढ़ाया है।
हमारा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी तकरीबन 90 लाख करोड़ रुपए का है। इसमें एक प्रतिशत की वृद्धि से तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए की प्राप्ति होती है। इतनी राशि से ढाई लाख रुपए सालाना आमदनी के 40 लाख रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण को आसानी से रोका नहीं जा सकता और अब हम विकास दर में गिरावट को झेल नहीं सकते। यह बात इतनी सरल है तो सबको समझ में क्यों नहीं आती? और यह गलत है तो कोई राजनीतिक दल क्यों नहीं सिर्फ आर्थिक उदारीकरण के पहिए को रोकने के नाम पर चुनाव नहीं लड़ता। समस्या यह नहीं है। समस्या यह है कि हम आर्थिक विकास के फायदे कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक पहुँचाने में विफल रहे हैं। पर ऐसा भी सम्भव नहीं कि सुदामा की तरह अचानक किसी एक सुबह देश के 80 करोड़ लोग झोंपड़े के बजाय महल में उठें। तमाम राजनीतिक दल उदारीकरण को धिक्कारते हैं और जब खुद सरकार बनाते हैं तब उसी रास्ते पर जाते हैं। सन 1991 के बाद केन्द्र की कांग्रेसी सरकार ही उदारीकरण के रास्ते पर नहीं गई थी। बंगाल और केरल की वाम मोर्चे की सरकारों ने भी उदारीकरण का रास्ता पकड़ा था।
मनमोहन सिंह की जो प्रथमिकताएं अभी दिखाई पड़तीं हैं उनमें पहली है रुपए की गिरावट को रोकना। इससे हमारे आयात का बोझ कम होगा। दूसरे शेयर बाजार में गिरावट रोकना चाहेंगे ताकि निवेश का माहौल बना रहे। तीसरे वे विदेश व्यापार में घाटे को कम करना चाहेंगे। विदेश व्यापार के घाटे और राजकोषीय घाटे में कोई टकराव नहीं है। विदेश व्यापार घाटा मार्च 2012 में जीडीपी के 4.5 फीसदी हो गया था। रुपए की घटती कीमत के कारण यह बढ़ता जा रहा है। रुपए की कीमत गिरने पर हम निर्यात बढ़ाकर लाभ ले सकते हैं, क्योंकि तब हमारा माल सस्ता हो जाएगा, पर यूरोप में स्थितियाँ खराब हैं जहाँ हमारा माल जाता था। उधर राजकोषीय घाटा पाँच फीसदी के ऊपर है। उसे इस साल 5.1 पर लाने का लक्ष्य है। इसके लिए सरकारी खर्चों में कमी करनी होगी। मनमोहन सिंह की दृष्टि में विदेशी मार्ग से अर्थव्यवस्था को साधना आसान है। हमारी विदेश में छवि बेहतर होगी तो वे यहाँ निवेश करेंगे। इससे नई तकनीक आएगी और रोजगार बढ़ेंगे। सम्भव है निर्यात भी बढ़े। पर यह विचार तब तक अधूरा है जब तक हमारा बुनियादी ढाँचा ठीक नहीं होगा, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में तेज विकास नहीं होगा और कृषि उत्पादन नहीं बढ़ेगा। राजकोषीय घाटा बढ़ने की वजह है करीब एक लाख नब्बे हजार करोड़ की सब्सिडी। करेंट एकाउंट (विदेश-व्यापार) घाटे की वजह है विदेश में हमारी छवि में गिरावट और उनकी अर्थव्यवस्था के अपने संकट।
पिछले साल दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। क्या भारत में अतिशय लोकतंत्र है? चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था है। राजनीतिक विपक्ष वहाँ नहीं है। सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है। वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं। हमारा लोकतंत्र बिखरा हुआ है। उसे समझदार बनाने की ज़रूरत है।
मंजुल का कार्टून From policy paralysis to rush of reforms |
हिन्दू में केशव का कार्टून |
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