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Friday, September 14, 2012

कांग्रेस पर भारी पड़ेगी राहुल की हिचक

भारतीय राजनीतिक दल खासतौर से कांग्रेस पार्टी जितना विदेशी मीडिया के प्रति संवेदनशील है उतना भारतीय मीडिया के प्रति नहीं है। पिछले दिनों सबसे पहले टाइम मैगज़ीन की ‘अंडर अचीवर’ वाली कवर स्टारी को लेकर शोर मचा, फिर वॉशिंगटन पोस्ट की सामान्य सी टिप्पणी को लेकर सरकार ने बेहद तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। और अब राहुल गांधी को लेकर इकोनॉमिस्ट की और भी साधारण स्टोरी पर चिमगोइयाँ चल रहीं हैं। पश्चिमी मीडिया की चिन्ता भारत के आर्थिक सुधारों पर लगा ब्रेक और कांग्रेस की क्रमशः बढ़ती अलोकप्रियता को लेकर है। सच यह है कि इन सारी कथाओं में बाहरी स्रोतों पर आधारित अलल-टप्पू बातें हैं। खासतौर से इकोनॉमिस्ट की कथा एक भारतीय लेखिका आरती रामचन्द्रन की पुस्तक पर आधारित है। राहुल गांधी के जीवन को ‘डिकोड’ करने वाली यह पुस्तक भी किसी अंदरूनी सूचना के आधार पर नहीं है। इकोनॉमिस्ट ने 'द राहुल प्रॉब्लम' शीर्षक आलेख में कहा है कि राहुल ने "नेता के तौर पर कोई योग्यता नहीं दिखाई है। और और ऐसा नहीं लगता कि उन्हें कोई भूख है। वे शर्मीले स्वभाव के हैं, मीडिया से बात नहीं करते हैं और संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं।" बहरहाल यह वक्त राहुल गांधी और कांग्रेस के बारे में विचार करने का है। कांग्रेस के पास अपनी योजना को शक्ल देने का तकरीबन आखिरी मौका है। राहुल की ‘बड़ी भूमिका’ की घोषणा अब होने ही वाली है।
सबसे बड़ा सवाल है कि जब तक राहुलगांधी का उदय नहीं होता तब तक कांग्रेस क्या करे? और राहुल गांधी का उदय भी हो तो वे क्या करें? राहुल गांधी पिछले कुछ साल में सक्रिय हुए हैं और उनकी यात्राओं और कार्यक्रमों को अच्छी मीडिया कवरेज भी मिली है। ऐसा लगता है कि वे गरीब भारतीयों की जीवन-दशा को सुधारना चाहते हैं। पर कैसे? पार्टी की ओर से एक बात पूरे विश्वास के साथ कही जा रही है कि राहुल गांधी भविष्य में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता होंगे। हाल में सोनिया गांधी ने कहा कि वे जब चाहेंगे तब फैसला करेंगे। पर फैसला केवल राहुल का ही क्यों? फैसला तो पार्टी को करना चाहिए। पर केवल राहुल के पदारोहण का सवाल नहीं है। शायद अब किसी दिन उनके लिए उपयुक्त पद की घोषणा हो जाएगी। सवाल है वे जनता के पास क्या कार्यक्रम लेकर जाने वाले हैं।

पिछले साल जब श्रीमती सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से विदेश गईं थीं, तब आधिकारिक रूप से राहुल गांधी को पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। अन्ना-आंदोलन के कारण वह समय राहुल को प्रोजेक्ट करने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सका। राहुल को महत्वपूर्ण बनाने का वह महत्वपूर्ण मौका था। उस दौरान अन्ना को गिरफ्तार करने से लेकर संसद में लोकपाल-प्रस्ताव रखने तक के सरकारी फैसलों में इतने उतार-चढ़ाव आए कि बजाय श्रेय मिलने के पार्टी की फज़ीहत हो गई। बेहतर होता कि उसी वक्त राहुल बागडोर हाथ में लेते ताकि कहा जा सकता कि उन्होंने इस बिखराव को रोक दिया। उन्हें शून्य-प्रहर में बोलने का मौका दिया गया और उन्होंने लोकपाल के लिए संवैधानिक पद की बात कहकर पूरी बहस को बुनियादी मोड़ देने की कोशिश की। पर उनका सुझाव हवा में उड़ गया। फिर पता लगा कि शायद 19 नवम्बर को श्रीमती इंदिरा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर वे कोई नई भूमिका ग्रहण करेंगे। ऐसा भी नहीं हुआ। राहुल गांधी स्वयं और पार्टी भी उत्तर प्रदेश के चुनावों में बड़ी सफलता की उम्मीद कर रही थी। वह उम्मीद गलत साबित हुई। पार्टी ने उम्मीद क्यों रखी थी और पार्टी का आधार क्या था और विफलता क्यों मिली, यह देखने समझने का जिम्मा राहुल को लेना चाहिए था, पर वे चुनाव परिणाम आने के बाद से पृष्ठभूमि में चले गए हैं। यह बात उनके खिलाफ जाती है।

कांग्रेस पार्टी और सरकार का सबसे कमज़ोर पक्ष है उसका जनता से कटे होना। राहुल गांधी का अपने कुछ मित्रों को छोड़ मीडिया, लेखकों, पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों या एक्टिविस्टों से सम्पर्क नज़र नहीं आता है। वे संसद में अपनी भूमिका दर्ज करा सकते थे। अभी कोयले को लेकर चल रहे विवाद में भी उन्हें सामने आना चाहिए था। क्या वे इच्छुक नहीं हैं? क्या उनके आत्मविश्वास में कमी है? या वे इतने बड़े संगठन के अंतर्विरोधों को सुलझा पाने में खुद को असहाय पा रहे हैं? यूपीए-2 की सरकार बनते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्री का पद देने की पेशकश की थी, पर राहुल ने उसे स्वीकार नहीं किया। आमतौर पर माना जा रहा है कि 2014 में कांग्रेस की सरकार बनी तो राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे। पर सरकार नही बनी तब क्या होगा? सरकार बने या न बने राहुल को 2014 के चुनाव में सबसे आगे रहना होगा। प्रधानमंत्री बनने के लिए जिस किस्म की सक्रियता चाहिए वह अगले डेढ़ साल में नज़र आनी चाहिए। पिछले एक साल में कांग्रेस की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई है। ऐसा जारी रहा तो 2014 में सरकार कैसे बनेगी? इस गिरावट को रोककर सफलता का नया रास्ता तैयार करने के लिए अब राहुल की ज़रूरत है।

राहुल गांधी को प्रधानमंत्री न बनाने और उनके स्वयं तैयार न होने के पीछे की समझ यह है कि वे अनुभवहीन हैं। पर 41 साल की उम्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे। राहुल 42 के हैं। राजीव के पास राजनीति का उतना अनुभव नहीं था, जितना राहुल के पास है। उन्होंने देश के लगभग सभी इलाकों को देखा है। देश की समस्याओं का गहराई से अध्ययन किया है। राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर बुनियादी दृष्टिकोणों को समझा है। वैचारिक समझ के लिहाज से देश के तमाम नेताओं के मुकाबले राहुल बेहतर स्थिति में हैं। पर व्यावहारिक राजनीति का अनुभव ज्यादा माने रखता है। उनके इर्द-गिर्द की युवा मंडली में ज़मीन से जुड़े लोग हैं या नहीं कहना मुश्किल है। तमाम सक्रियता के बावज़ूद उनके चारों ओर एक प्रति-चुम्बकीय घेरा है।

राहुल गांधी और कांग्रेस को अब यह भी देखना चाहिए कि हालात 1984 जैसे नहीं हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की उपस्थिति ने कहानी पूरी तरह बदल दी है। इसकी विशेषता यह है कि मिनटों में लोकप्रियता बढ़ती है और मिनटों में खत्म होती है। राहुल को अपने इर्द-गिर्द बने घेरे को तोड़ना होगा और फिर बहादुर योद्धा की तरह अपने प्रतिस्पर्धियों से जूझना होगा। यह संग्राम सिर्फ एक व्यक्ति के बूते नहीं लड़ा जाना है, इसलिए उन्हें अपने संगठन का संचालन भी करना होगा। कांग्रेस को 1971 के रास्ते पर जाना चाहिए, जब इंदिरा गांधी नई उम्मीदें लेकर आईं थीं। तब के मुहावरे आज नहीं चलेंगे, पर जनता की उम्मीदें आज भी वही हैं। आर्थिक सुधार के एजेंडा को जनोन्मुखी किस तरह बनाया जाए, यह सोचना चाहिए। बढ़ता मध्य वर्ग चुनाव-सुधार और बेहतर गवर्नेंस चाहता है। उसे गरीबों की बदहाली पसंद नहीं। क्योंकि मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा इसी निम्न वर्ग से ऊपर उठकर आ रहा है।
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
कांग्रेस को उत्तर भारत में फिर से जमाने के प्रयास करने चाहिए। उसका व्यापक सामाजिक आधार कहीं गया नहीं है। बेशक कुछ पार्टियाँ सीमित जातीय आधारों पर खड़ी हैं, पर यही आधार उनकी कमज़ोरी है। वे अकेले खड़ी नहीं हो सकतीं। वे क्षेत्रीय प्रश्नों की पार्टियाँ नहीं हैं। उनकी सफलता के पीछे सामाजिक पहचान ज़रूर है, पर एक कारण यह भी है कि राष्ट्रीय पार्टियों ने अपनी ज़मीन खो दी। ऐसा नहीं कि उत्तर भारत ने कांग्रेस को मौका नहीं दिया। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति सुधारी और राजस्थान में सरकार बनाई। पंजाब में वह जीत सकती थी, पर वहाँ भी वही गलती हुई जो उत्तर प्रदेश में की गई। महलों और बंगलों में रहकर और 10 जनपथ का विश्वास पाने से पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका तो बनी रह सकती है, पर जनता का साथ नहीं मिलता। इस लिहाज से राहुल के लिए आने वाला वक्त मुश्किल का होगा। उन्होंने बहुत देर कर दी है।
जनवाणी में प्रकाशित

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