पृष्ठ

Monday, September 10, 2012

पाकिस्तान के साथ ठंडा-गरम

पाकिस्तान से जुड़ी इस हफ्ते की दो बड़ी खबरें हैं। एक, पाकिस्तान के साथ सार्थक बातचीत और दूसरे हक्कानी नेटवर्क पर कसता शिकंजा। विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि है नई वीज़ा व्यवस्था। पर इसे आंशिक उपलब्धि कहा जाना चाहिए। मई में यह समझौता तैयार था। दोनों देशों के विदेश सचिव इसपर दस्तखत करने वाले थे कि पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक ने कहा कि इसपर दस्तखत राजनीतिक स्तर पर होने चाहिए। अलबत्ता यह उपलब्धि है, क्योंकि दोनों देशों के लोग बड़ी संख्या में आना-जाना चाहते हैं। तमाम रिश्तेदारियाँ हैं, सांस्कृतिक रिश्ते हैं, मीडिया का संवाद है और नया व्यापारिक माहौल है। दोनों देशों के बीच एक सांस्कृतिक समझौते के आशय पत्र पर भी दस्तखत हुए हैं। एक लिहाज़ से हम एक एक कदम आगे बढ़े हैं। 26 नवम्बर 2008 के बाद से रिश्तों में तल्खी आ गई थी, उसमें कुछ कमी हुई है। पर कुछ बुनियादी सवाल सामने आते हैं। एक, क्या भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कभी खुशनुमा हो पाएंगे? क्या दोनों देशों की सरकारों में इतनी सामर्थ्य है कि वे बुनियादी सवालों पर समझौते कर सकें? और क्या अमेरिका के अफगानिस्तान से हटने के बाद इस इलाके में अस्थिरता और नहीं बढ़ेगी? भारत-पाकिस्तान रिश्तों में अफगानिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका हमेशा बनी रहेगी। इस इलाके में पश्चिमी देशों के साथ चीन और रूस की दिलचस्पी भी है, इसलिए किसी भी घटनाक्रम के व्यापक और दूरगामी परिणाम होंगे। संयोग से भारत, पाकिस्तान, चीन और अमेरिका राजनीतिक बदलाव के दौर से गुज़र रहे हैं। इस साल अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव हैं, पाकिस्तान में यह सरकार चलती भी रही तो छह महीने बाद चुनाव होंगे। भारत की आंतरिक राजनीति बेहद अस्थिर दौर से गुज़र रही है। वर्तमान सरकार बड़े फैसले करने की स्थिति में नहीं है। मसलन कश्मीर, सियाचिन, सर क्रीक और पानी के विवाद पर कोई बड़ा फैसला सम्भव नहीं। भारत की आंतरिक राजनीति पाकिस्तान के बरक्स हमे सख्त रुख अख्तियार करने का मौका नहीं देगी। पाकिस्तान की नागरिक सरकार कट्टरपंथी राजनीति पर अंकुश लगाने की स्थिति में नहीं है। ऐसा होता तो लश्करे तैयबा के प्रमुख हफीज़ सईद में यह कहने की हिम्मत न होती कि भारत को पहले हमसे बात करनी होगी। जब तक कश्मीर का मसला हल नहीं होगा तब तक न तिज़ारत होगी और न कोई समझौता होगा। सच है कि हफीज़ सईद पाकिस्तान की मुख्यधारा के प्रतिनिधि नहीं है, पर उनसे पंगा लेने की ताकत किसी राजनीतिक समीकरण में नहीं है। तब क्या यह माना जाए कि दोनों देशों के बीच समझौतों का कोई मतलब नहीं? भारत की पीठ में बने नासूर का नाम पाकिस्तान है? हमारी सफलता का सबसे बड़ा विरोधी? उसका जन्म हमें परेशान करने के लिए हुआ है? उससे कैसी दोस्ती?

एसएम कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा के पहले दोनों देशों के अखबारों में दोनों विदेश मंत्रियों के इंटरव्यू छपे हैं। विदेश मंत्रियों के बयानों से लगता है कि सरहद के दोनों ओर सद्भाव का माहौल है। दोनों के पास एक साझा अतीत है जो इस इलाके को अलग पहचान देता है। पाकिस्तानी समाज अंततः अपने कट्टरपंथी तत्वों पर जीत हासिल करेगा। हमें उनकी सिविल सोसायटी पर भरोसा करना चाहिए। यह बात भी पूरी तरह निराधार नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों सरकारों की बातचीत के बाद तल्ख बयानी तकरीबन खत्म हो चुकी है। पाकिस्तानी सिविल सोसायटी पूरी तरह से न सही, एक हद तक जेहादियों को अलग-थलग करने में कामयाब हुई है। पाकिस्तानी मीडिया ने ही अजमल कसाब के पाकिस्तानी होने के सुबूत दिए थे। वहाँ भी हर तरह के पत्रकार हैं, जेहादियों के आलोचक भी है। पिछले दिनों नेटो सेनाओं की रसद सप्लाई फिर से शुरू होने पर दिफाए पाकिस्तान कौंसिल के लांग मार्च का देश पर कोई असर नज़र नहीं आया। वास्तव में वहाँ के लोगों की समस्या भी वहीं है, जो हमारी है। शिक्षा, रोज़गार, महंगाई, स्वास्थ्य और आवास वगैरह।

विदेश मंत्री की पाकिस्तान यात्रा के दिन ही अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पाकिस्तान के हक्कानी नेटवर्क को आतंकवादी संगठन करार देने वाले दस्तावेज पर दस्तखत किए। इसके एक महीने पहले 10 अगस्त को अमेरिकी कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास कर सरकार से तीस दिन के भीतर कारवाई करने को कहा था। शायद यह कदम दोनों देशों की बातचीत से जुड़ा था। 7 जुलाई 2008 को काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हक्कानी नेटवर्क ने ही हमला किया था। उस हमले के बाद अफगानिस्तान सरकार और अमेरिकी खुफिया विभाग ने इस बात को रेखांकित किया कि इस हमले के पीछे पाकिस्तानी आईएसआई का हाथ भी है। मुम्बई पर हुए हमले के कुछ महीने पहले की यह घटना थी। मुम्बई हमले के पीछे भी आईएसआई का हाथ नज़र आया। डेविड हेडली द्वारा दी गई सूचनाएं पाकिस्तानी सेना और कट्टरपंथी तत्वों की मिलीभगत का बयान करती है। अलबत्ता हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ अमेरिकी कारवाई केवल भारत को संतुष्ट करने के वास्ते नहीं है।

वज़ीरिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों की सबसे बड़ी ताकत यह हक्कानी नेटवर्क है, जो अफगान जेहाद के दौर में सीआईए के साथ मिलकर काम करता था। और अब नेटो सेनाओं के खिलाफ है। इसलिए अब पाकिस्तानी सेना पर दबाव है कि इसके खिलाफ कारवाई करे। हक्कानी नेटवर्क पूर्वी अफगानिस्तान और राजधानी काबुल में कई बम धमाके कर चुका है। कुछ प्रेक्षकों का कहना है कि अमेरिका के इस कदम से पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते खराब हो सकते हैं। पर यह भी अटकल लगती है। आर्थिक रूप से पाकिस्तान अमेरिका के सहारे है। पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान और अमेरिकी प्रशासन के बीच लगातार बातचीत हो रही है। अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पैनेटा और विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने सेना को लगभग आखिरी चेतावनी दे दी थी कि उत्तरी वज़ीरिस्तान में कार्रवाई होनी चाहिए। इसके बाद आईएसआई के प्रमुख ज़हीरुल इस्लाम हाल में अमेरिका यात्रा पर होकर आए हैं। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी के रुख में भी बदलाव आया है। 14 अगस्त की आज़ादी परेड में जनरल कयानी ने पहली बार खुलकर कहा है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई हमारी अपनी लड़ाई है। हम नहीं लड़ेंगे तो देश में सिविल वॉर हो जाएगी। हक्कानी नेटवर्क को आतंकवादी घोषित किए जाने पर पाकिस्तान सरकार ने कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है।

भारत-पाकिस्तान रिश्ते अमेरिका, चीन और रूस के आर्थिक हितों से भी जुड़े हैं। पाकिस्तानी सिविल सोसायटी को भी यह बात समझ में आ रही है। समस्याओं के लिहाज से देखें तो दोनों देशों के बीच किसी महत्वपूर्ण समस्या का समाधान निकट भविष्य में दिखाई नहीं पड़ता, पर दोनों देशों की शब्दावली पर ध्यान दें तो काफी कुछ बदल गया है। पर हफीज सईद के मामले में पाकिस्तान सरकार अपनी अदालतों का हवाला देकर निकल जाती है। क्या यह सिर्फ अदालतों के कारण रुका है? क्या हमने जो साक्ष्य दिए हैं वे कच्चे हैं? तेहरान में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आसिफ अली ज़रदारी से बातचीत के बाद कहा था कि हम पाकिस्तान से कहेंगे कि वह एक और न्यायिक आयोग भारत भेजे जिसे मुम्बई मामले के गवाहों और न्यायिक अधिकारियों से ज़िरह की अनुमति होगी। दोनों सरकारों को एक-दूसरे पर विश्वास हो और न्याय करने की इच्छा हो तो रास्ते निकल सकते हैं। पाकिस्तान में दो प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ रहीं हैं। एक तरफ हैं हफीज़ सईद जैसे लोग जो कहते हैं कि कश्मीर के रास्ते से हम भारत पर कब्ज़ा करेंगे। दूसरी ओर हसन निसार, मारवी सरमद, नजम सेठी और आसमां जहांगीर जैसे लोग भी हैं जो उन पर लानत भेजते हैं।

एसएम कृष्णा की यात्रा के बाद क्या मनमोहन सिंह भी पाकिस्तान जाएंगे? इस सवाल का जवाब देश की आंतरिक राजनीति को देखने के बाद ही दिया जा सकता है। पाकिस्तान में भी राजनीति अस्थिर है। इसलिए फिलहाल यही मानकर चलना चाहिए कि व्यापार और गीत, संगीत और खेल के रास्ते से हमारे रिश्ते बेहतर होंगे। पर जिन्हें लगता है कि पाकिस्तान के साथ हुक्का-पानी सम्भव नहीं, तो उन्हें ज़मीनी बदलाव को देखना चाहिए।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment