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Monday, August 13, 2012

खेलों को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से नहीं जोड़ पाए हैं हम

लंदन ओलिम्पिक खेल भारत के लिए अब तक के सफलतम ओलिम्पिक्स थे। इससे पहले बीजिंग में हमने तीन मेडल जीते थे। इस बार उससे ज्यादा जीतने में सफल रहे। पर हम उतनी सफलता हासिल नही कर पाए, जिसकी उम्मीद थी। खास तौर से हमारी हॉकी टीम का प्रदर्शन बेहद खराब था। अभी तक हॉकी में हमारी टीम की स्थिति दुनिया में दसवें नम्बर पर थी जो इस बार उससे भी नीचे चली गई। पर इस लेख का उद्देश्य खेल-समीक्षा नहीं है, बल्कि इस ओलिम्पिक के बहाने खेल और समाज के रिश्तों को समझना है। ओलिम्पिक खेल राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जुड़ते हैं। पर मामला केवल प्रतिष्ठा का नहीं है। सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना का परिचय भी खेलों से मिलता है।
 खेल सिर्फ शारीरिक सौष्ठव और दम-खम का परिचय ही नहीं देते। इनसे यह पता भी लगता है कि हम कितने अनुशासनबद्ध है, नियमों का पालन करते हैं, प्रतिभाओं का किस तरह सम्मान करते हैं और प्रतियोगिता को कितना बढ़ावा देते हैं। प्रतियोगिता केवल खेल में ही नहीं होती। जीवन के हर क्षेत्र में होती है। जीवन के हर क्षेत्र में हमें ज्यादा ऊँचा, तीव्रतर और दृढ़तर होना चाहिए तभी तो प्रगति करेंगे। साथ ही पूरे समाज के संतुलन का पता भी खेलों से लगता है। लंदन ओलिम्पिक में एक हज़ार के आस पास मेडल दिए गए। उनमें से चार या पाँच कितने होते हैं? बेशक ओलिम्पिक की प्रतियोगिताएं बहुत कड़ी होती हैं। उनमें हिस्सा लेना भर काफी है। पर क्या अपने मन को समझाने के लिए यह बात कह रहे हैं? हॉकी में तो हम अतीत में सर्वश्रेष्ठ थे। यदि उसमें हम एकदम तली में जा पहुँचे हैं तो उसके कारण क्या हैं? सच पूछें तो खेलों के बारे में सिर्फ एक जवाब काफी नहीं है कि हमारी राज-व्यवस्था या राजनीति में खोट है। वह भी एक कारण है, पर वही एकमात्र कारण नहीं है। कुछ कारण शायद हमारे जीन्स में हैं, कुछ संस्कृति में, कुछ गरीबी में, कुछ प्रशासनिक कुशलता में, कुछ शिक्षा में और भी कुछ न कुछ कारण हैं। हम वास्तव में खेलों में बेहद पिछड़े हैं तो मानव विज्ञानियों को इसका अध्ययन करना चाहिए कि ऐसा क्यों है।

खेलों की सामाजिक संरचना को देखें तो पता लगता है कि भूगोल या जीन्स का कोई न कोई रिश्ता इनसे है। मसलन कैरीबियन सागर के छोटे से देश जमैका ओलिम्पिक खेलों की स्प्रिंट यानी छोटी दूरी की रेसों में बोलबाला है। उसैन बोल्ट और अफाफा पॉवेल इसके उदाहरण हैं। हालांकि इस इलाके का सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट है। वेस्टइंडीज़ की टीम में जमैका के खिलाड़ियों की बड़ी संख्या बड़ी होती है। इसी तरह मैराथन जैसी लम्बी दूरी की रेसों में अफ्रीका के केन्या और इथोपिया जैसे देशों की धाक है। कुश्ती और बॉक्सिंग में पूर्वी यूरोप और एशिया की सीमा के कॉकेशियन लोग सफल हैं। मोटे तौर पर गोरे यूरोपियन, अफ्रीकी मूल के अश्वेत और चीनी मूल के खिलाड़ी खेल के मैदान पर राज करते हैं। आर्थिक महाशक्ति के रूप में अमेरिका इन तीनों तरह के खिलाड़ियों को प्रश्रय देता है और दुनिया का नम्बर एक देश बन जाता है। बीजिंग ओलिम्पिक में चीन ने गोल्ड मेडलों के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया था। लंदन ओलिम्पिक की बैडमिंटन और टेबल टेनिस प्रतियोगिताओं के ज्यादातर मेडल चीनी मूल के खिलाड़ियों ने जीते। इस बार के ओलिम्पिक में बैडमिंटन की प्रतियोगिताओं में कुल 170 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया, जिनमें से 50 खिलाड़ी चीनी मूल के थे। चीन के अलावा मलेशिया और इंडोनेशिया से ही नहीं जर्मनी जैसे देशों के खिलाड़ी भी चीनी मूल के होते हैं। टेबल टेनिस की प्रतियोगिताओं में शामिल 173 खिलाड़ियों में से 55 चीनी मूल के थे। इनमें से 45 का जन्म चीन में ही हुआ था। चीन में खेलों के इस उत्कर्ष के सामाजिक-राजनीतिक कारण भी हैं। चीनी सरकार सावधानी के साथ खेलों पर पैसा खर्च करती है और महंगी ट्रेनिंग की व्यवस्था करती है। उसी तरह जैसे शीतयुद्ध के दौर में पूर्वी जर्मनी अपने तैराकों और रोमानिया अपने जिम्नास्टों पर खर्च करते थे।

सन 2010 में जब हमने कॉमनवैल्थ खेलों का आयोजन किया तब हमारे पास दो चीजों के प्रदर्शन का मौका था। एक अपनी आयोजन क्षमता का और दूसरे खेल क्षमता का परिचय देने का अवसर हमें मिला था, पर हम दोनों मोर्चों पर विफल रहे। प्रतियोगिता की व्यवस्था और खेल के स्तर पर ध्यान दें। देश की छवि पहले से खराब थी। ऊपर से हमारे सारे निर्माण कार्य देर से पूरे हुए। इस मामले में बीजिंग ओलिम्पिक से हम अपनी तुलना नहीं कर सकते। चीन की व्यवस्था में सरकारी निर्णयों को चुनौती नहीं दी जा सकती। हमारे यहाँ अनेक काम अदालती निर्देशों के कारण भी रुके। इसमें पेड़ों की कटाई से लेकर ज़मीन के अधिग्रहण तक सब शामिल हैं। तब हम लंदन से अपनी तुलना करें। वहाँ भी हमारे जैसा लोकतंत्र है। पर लंदन ओलिम्पिक के दो साल पहले सारे स्टेडियम बन चुके थे। हमारे यहाँ ऐसा नहीं हो पाया। दोष किसका था? भारत सरकार ने कॉमनवैल्थ खेलों के लिए खिलाड़ियों की तैयारी पर खर्च करने के लिए 800 करोड़ रुपए दिए थे। इनमें से 500 करोड़ ही खर्च हो पाए। यह भी अकुशलता थी। इतना स्पष्ट है कि खेल की संस्कृति पूरे समाज के मनोबल को बढ़ाने का काम कर सकती है। दूसरे यह कि हमारी अकुशलता खेल में हमारी विफलता के रूप में व्यक्त होती है।

खेल का अर्थ-व्यवस्था से रिश्ता है तो वह बात भी हमारे मामले में सही साबित नहीं होती। हमारी तुलना में ब्राजील, मैक्सिको, मलेशिया और दक्षिण अफ्रीका का प्रदर्शन बेहतर रहा। जापान, दक्षिण कोरिया और ईरान जैसे देशों का प्रदर्शन हमारे प्रदर्शन के दुगने से सात-आठ गुना तक बेहतर रहा। इथोपिया और केन्या जैसे गरीब देशों के मेडल हमसे ज्यादा हैं। दुनिया के सबसे फिसड्डी देश दक्षिण एशिया के हैं, जहाँ सिर्फ भारत को मेडल मिले हैं। पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और मालदीव को कोई मेडल नहीं मिला। 2008 के बीजिंग ओलिम्पिक में अफगानिस्तान के रोहुल्ला निकपाई ने ताईक्वांडों में कांस्य पदक जीतकर अपने देश को पहला मेडल दिलाया था। लंदन ओलिम्पिक में भी रोहुल्ला ने कांस्य पदक जीता है। इन देशों में सफलता के मानदंड क्या है इस बात की झलक पाकिस्तान की हॉकी टीम के कोच ख्वाजा ज़ुनैद के बयान से मिलती है। पाकिस्तान की टीम को इस ओलिम्पिक में सातवाँ स्थान मिला। पाकिस्तान को ऑस्ट्रेलिया की टीम ने 7-0 से हराया था। पर पाक कोच को संतोष है कि उन्होंने पिछली बार के आछवें की जगह इस बार सातवाँ स्थान पाया। पर इससे बड़ा संतोष इस बात से है कि हमारा स्थान भारत से ऊपर रहा। दूसरे इस बात पर कि एशिया की टीमों में सबसे ऊँचा स्थान पाकिस्तान का रहा। भारत से बेहतर होना पाकिस्तान के लिए संतोष का विषय है। इस बात से इस इलाके की सांस्कृतिक समझ का परिचय भी मिलता है। पर क्या आश्चर्य की बात नहीं कि दुनिया की एक तिहाई आबादी को कुल जमा पाँच मेडल मिलें?

सच यह भी है कि हमारी शर्म खत्म हो चुकी है। अपमानबोध शून्य है। पिछले कुछ साल से हमारी हॉकी संस्थाएं आपस में लड़ रहीं थीं। किसी ने इसकी चिंता नहीं की। टेनिस की टीम तय करते वक्त तमाशा होता रहा, किसी को परेशानी नहीं थी। एक अरसे से खेल संघों के पदाधिकारियों के कार्यकाल को लेकर विवाद चल रहा है, उसे ठीक करने की किसी को फिक्र नहीं। एक तरफ खेलों की यह व्यवस्था जिम्मेदार है वहीं इस देश की जनता भी कम जिम्मेदार नहीं है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि दुनिया के सबसे फिसड्डी खेल क्षेत्र दक्षिण एशिया में सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट है जो पागलपन के स्तर तक जा पहुँचा है। क्रिकेट में भी हम विश्व के सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं। दूसरे ओलिम्पिक में सबसे सफल देशों में इंग्लैंड को छोड़ किसी की दिलचस्पी क्रिकेट में नहीं है। क्रिकेट को भी हम खेल के लिए नहीं मनोरंजन के लिए देखते हैं। हमारे भीतर खेलों के लिए तड़प है ही नहीं, तो वह खिलाड़ियों में क्यों होगी? क्या वह तड़प नहीं होनी चाहिए? आप सोचें। सीएक्सप्रेस में प्रकाशित

2 comments:

  1. बढ़िया प्रस्तुति !
    काश,इस ओलंपिक में पदकों की संख्या दहाई में होती|
    दक्षिण एशियाई देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जिसने पदक जीता हैं |
    एक भी स्वर्ण ना जितने वालें देशों में भारत पहले नंबर पर आया है, यह हमारे लिए सुखद समाचार है |

    यहाँ भी पधारे-
    "मन के कोने से..."
    "एक और स्वतंत्रता दिवस "
    आभार ..!

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