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Tuesday, July 10, 2012

राष्ट्रपति-चुनाव से जुड़ी अटपटी-चटपटी राजनीति

भारतीय जनता पार्टी ने धमकी दी है कि प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत भी गए तो उनके खिलाफ चुनाव याचिका दायर की जाएगी। रिटर्निंग अफसर वीके अग्निहोत्री द्वारा विपक्ष की आपत्ति खारिज किए जाने के बाद अब सोमवार को जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी कुछ नए प्रमाणों के साथ एक नई शिकायत दर्ज कराएंगे। रिटर्निंग अफसर ने विपक्ष की इस आपत्ति को खारिज कर दिया था कि प्रणव मुखर्जी चूंकि भारतीय सांख्यिकी संस्थान के अध्यक्ष पद पर काम कर रहे हैं जो लाभ का पद है इसलिए उनका नामांकन खारिज कर दिया जाए। रिटर्निंग अफसर का कहना है कि प्रणव मुखर्जी ने 20 जून को यह पद छोड़ दिया था।

भाजपा नेता सुषमा स्वराज का कहना है कि प्रणव मुखर्जी नामांकन पत्र दाखिल करने के पहले इस्तीफा नहीं दे पाए थे। यह इस्तीफा बाद में बनाया गया, जिसमें प्रणव मुखर्जी के दस्तखत भी जाली हैं। यह इस्तीफा संस्थान के रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है। यह 20 जून को लिखा गया, उसी रोज कोलकाता भेजा गया, उसी रोज स्वीकार होकर वापस आ गया। यह फर्जी है। बहरहाल इस मामले में जो भी हो, देखने की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी इतने तकनीकी आधार पर इस मामले को क्यों उठा रही है? इससे क्या उसे कोई राजनीतिक लाभ मिल पाएगा? दो महीने पहले लगता था कि इस बार कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति चुनाव भारी पड़ेगा और एनडीए उसे अर्दब में ले लेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। एनडीए ने एक ओर तो अपना प्रत्याशी तय करने में देरी की, फिर अपने दो घटक दलों शिव सेना और जनता दल युनाइटेड को यूपीए प्रत्याशी के समर्थन में जाने से रोक नहीं पाया। और अब यह तकनीकी विरोध बचकाना लगता है। शुरू में सुषमा स्वराज ने कहा था कि हम कांग्रेस प्रत्याशी का समर्थन नहीं करेंगे, क्योंकि 2014 के चुनाव में हम यूपीए से सीधे मुकाबले में हैं। यह हमारे लिए राजनीतिक प्रश्न है।

राष्ट्रपति पद के चुनाव में मुकाबला मोटे तौर पर एकतरफा लगता है। कोई बड़ी बात नहीं हुई तो प्रणव मुखर्जी इसे आसानी से जीत जाएंगे। पर भाजपा ने यदि पीए संगमा का समर्थन किया था तो इसका लाभ लेने की कोशिश भी करनी चाहिए थी। सबको यह बात समझ में आती है कि संगमा की हार-जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण 2014 के चुनाव की भूमिका है। एनडीए इस चुनाव के मार्फत राष्ट्रपति की भूमिका और अतीत के कांग्रेस के अंतर्विरोधों को लेकर उसे घेर सकता था। ऐसा नहीं है कि प्रणव मुखर्जी एकदम एक तरफा मुकाबले में हैं। और हैं भी तो पार्टी को कांग्रेस के अंतर्विरोधों को खोलने से किसने रोका था? ममता बनर्जी के मामले में कांग्रेस फँस ही चुकी थी। पर लगता है कि भाजपा में नेतृत्व के स्तर पर आपसी टकराव और असमंजस के कारण भाजपा नेतृत्व के पैरों को भँवरों ने लपेट लिया है।

वास्तव में राष्ट्रपति पद का यह चुनाव अगली लोकसभा की राजनीति का प्रस्थान बिन्दु बन गया है। इसमें केवल एनडीए ही नहीं यूपीए के लिए संकट के बीज पैदा हो चुके हैं। प्रणव मुखर्जी के नाम पर शरद पवार, बाल ठाकरे, नीतीश कुमार, मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, तेदेपा, और सीपीएम एक नाव पर आ गए हैं। बेशक यह कोई मोर्चा नहीं है, और है भी तो मायावती-मुलायम और नीतीश-लालू एक म्यान की तलवारें नहीं हैं। पर किसी मोर्चे की आहट ज़रूर है। इसमें नीतीश इसमें नीतीश कुमार को देखकर कुछ लोगों ने अनुमान लगाना शुरू कर दिया है कि क्या वे कांग्रेस के साथ मिलकर यूपीए-3 बनाएंगे। हालांकि यही तर्क ममता बनर्जी के साथ है। इनमें सीपीएम को छोड़ दें तो वैचारिक मामला किसी का नहीं है। सवाल है कि क्या अगला राष्ट्रपति किसी परोक्ष राजनीति का केन्द्र बनेगा? फिलहाल सबसे ज्यादा साँसत में ममता बनर्जी हैं जो तय नहीं कर पाईं हैं कि वे किसे वोट दें। पार्टी ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था, लेकिन कलाम ने मना कर दिया। ममता बनर्जी अभी तक प्रणब मुखर्जी की दावेदारी का विरोध करती रही है। उन्होंने कहा है कि मतदान से दो-तीन दिन पहले मैं अपना निर्णय करूँगी। फिलहाल वे संगमा के समर्थन में आगे आने से कतरा रहीं हैं।

पीए संगमा को आगे बढ़ाने में बीजू जनता दल और जयललिता का हाथ है। भाजपा संगमा का साथ देने को क्यों मजबूर हुई, जबकि बीजद प्रत्यक्षतः भाजपा विरोधी है? एनसीटीसी मसलेपर नरेन्द्र मोदी भी इनके साथ खड़े थे। भाजपा की मुम्बई कार्यकारिणी बैठक के बाद से वे केन्द्रीय राजनीति में आने को उत्सुक हैं, हालांकि गुजरात विधान सभा का अगला चुनाव उन्हें लड़ना है। पार्टी के शिखर नेतृत्व में उनके विरोधियों की संख्या काफी है। इधर गुजरात के भीतर केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता और काशीराम राणा ने कल से उनके खिलाफ ‘बस अब तो परिवर्तन’ अभियान शुरू कर दिया है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पिछले चुनाव में 182 में से 117 सीटें जीतीं थीं। भाजपा को 49.12 फीसदी और कांग्रेस को 38.0 फीसदी वोट मिले थे। सम्भव है इसमें कुछ बदलाव हो, पर ऐसा नहीं लगता कि भाजपा को गुजरात में 92 से कम सीटें मिलेंगी, जो बहुमत के लिए ज़रूरी है। पर इसमें कमी-बेशी से नरेन्द्र मोदी पर फर्क ज़रूर पड़ेगा। पार्टी के भीतर नरेन्द्र मोदी समर्थक तत्व कौन सा है अभी यह साफ नहीं है, पर मोदी ने पार्टी के बाहर सम्पर्क साधना शुरू कर दिया है। वे कर्नाटक के बीएस यदुरप्पा जैसे ताकतवर नेताओं के सम्पर्क में भी हैं।

राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कुछ राज्यों में पार्टियों के अंतर्विरोध भी सामने आएंगे। मसलन राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के भीतर इतनी कलह है कि भितरघात का खतरा भी पैदा हो गया है। कुछ नेता जानबूझकर प्रतीक रूप में भितरघात करना चाहते हैं ताकि केन्द्रीय नेतृत्व का ध्यान इस ओर जाए। राजस्थान से ही जनजातीय फैक्टर भी उभर रहा है। वहाँ निर्दलीय सांसद किरोड़ीलाल मीणा ने जनजातीय विधायकों और सांसदों से अपील की है कि वे संगमा को वोट दें। राजस्थान में 30 जनजातीय विधायक हैं। इनमें से 21 कांग्रेसी हैं। किरोड़ीलाल मीणा की अपील देशभर के जनजातीय विधायकों और सांसदों से है। कहना मुश्किल है कि इसका क्या असर होगा।

दिल्ली में यूपीए की सरकार बनवाने में आंध्र प्रदेश की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। वहाँ वाईएसआर कांग्रेस के रूप में कांग्रेस को चुनौती देने वाली पार्टी खड़ी हो गई है। पिछले महीने हुए उपचुनाव में विधानसभा की 18 में से 15 और नेल्लोर लोकसभा जीतकर वाईएसआर कांग्रेस ने कांग्रेस के लिए परेशानी खड़ी कर दी है। हालांकि प्रणव मुखर्जी और संगमा दोनों ने पार्टी के वोट माँगे हैं, पर जगनमोहन रेड्डी ने अभी फैसला नहीं किया है। पार्टी के पास कुल वोटों के एक प्रतिशत से कुछ ज्यादा वोट हैं। शायद इतने से परिणामों पर कोई असर न पड़े, पर यह भावी राजनीति के लिए महत्वपूर्ण होगा। उधर तेलंगाना राष्ट्र समिति ने किसी को वोट न देने का फैसला किया है। उसके पास भी तकरीबन एक फीसदी वोट हैं।

राष्ट्रपति पद के चुनाव के बाद संसद का सत्र काफी महत्वपूर्ण होने वाला है। इसमें आर्थिक उदारीकरण से जुड़े कुछ विधेयकों को पेश किया जाएगा और सम्भवतः उसी दौरान खुदरा व्यापार से जुड़े कारोबार में विदेशी निवेश की अनुमति देने वाले आदेश को लागू कर दिया जाए। ममता बनर्जी की तृणमूत कांग्रेस यूपीए में बनी रहेंगी या नहीं यह भी तभी साफ होगा। और उस दौरान इस बात का आभास भी मिलेगा कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होंगे या नहीं। बहरहाल ममता बनर्जी को प्रणव मुखर्जी के मामले में जो धक्का लगा है उससे वे उबर नहीं पाईं हैं। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के नेता अब्दुल मन्नान ने कहा कि राष्ट्रीय राजनीति में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस की प्रासंगिकता खत्म हो गई है। राष्ट्रपति चुनाव में इनके समर्थन की आवश्यकता नहीं है।

इस बार के चुनाव की विडंबना है कि उपराष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी देर से सामने आए हैं। शुरू में अनुमान था कि एनडीए और यूपीए के बीच कोई समझौता हो जाएगा कि आप राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन दे दो उपराष्ट्रपति पद के लिए हम आपका समर्थन कर देंगे। 7 अगस्त को उपराष्ट्रपति पद का चुनाव है और उसकी कोई सरगर्मी नहीं है। कांग्रेस की ओर से अब वर्तमान उप राष्ट्रपति मुहम्मद हामिद अंसारी  का नाम लिया गया है। इस पद पर चुनाव होगा या नहीं अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं है।  जो भी होगा वह राजनीतिक संशय को बढ़ाएगा। कम नहीं करेगा।

स्वतंत्र भारत में प्रकाशित

1 comment:

  1. जितनी घटिया राजनीति आज दोनों और से हो रही है, ऐसी ज़िन्दगी में कभी नहीं देखी.... बल्कि सोची भी नहीं...

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