इस हफ्ते शेयर बाज़ार, मुद्रा बाज़ार और विदेश-व्यापार के मोर्चे से कुछ अच्छी खबरें मिल सकती हैं। शायद मॉनसून भी इस हफ्ते तेजी पकड़े, पर बड़े स्तर पर बदलाव के लिए सरकार और मोटे तौर पर पूरी राजनीति को हिम्मत दिखानी होगी।
बहरहाल हमारा आर्थिक संकट कितना कृत्रिम और अस्थायी है इसका अनुमान इन घटनाओं से लगाया जा सकता है। जनरल एंटी-टैक्स एवॉयडेंस रूल्स (गार) के बारे में, जिसे हम वोडाफोन टैक्स के नाम से बेहतर जानते हैं, सरकार का रुख कुछ साफ होने मात्र से घरेलू शेयर बाजारों में शुक्रवार को जबरदस्त लिवाली का माहौल रहा। सेंसेक्स ने 439.22 अंक की छलांग लगा ली। सेंसेक्स का यह 19 अप्रैल के बाद का सबसे ऊंचा बंद स्तर और जनवरी 2012 से अब तक की यह सबसे तेज बढ़त रही। डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट का रुख थम गया और एक डॉलर की कीमत 55.60 रु हो गई जो पिछले हफ्ते 57.32 रु तक हो गई थी। शुक्रवार की यह उछाल पिछले तीन साल में किसी एक रोज की सबसे लम्बी छलांग है।
विदेशी संस्थागत निवेशकों ने शुक्रवार को शेयर बाजार में 3000 करोड़ रुपए का निवेश करके अचानक माहौल बदल दिया। डॉलर की वापसी के साथ ही स्थितियाँ बेहतर हो गईं। यों इसके बढ़ने की दूसरी वजह यह भी है कि वह गिरावट के ऐसे स्तर पर आ गया है जहाँ से अब उसे ऊपर उठना चाहिए। पैसा कमाने वालों को एक ऐसा न्यूनतम स्तर चाहिए जहाँ से वे फिर से खरीद की शुरूआत करें। मॉर्गन स्टेनले ने भारतीय शेयर बाजारों की रेटिंग अंडर-वेट से बढ़ाकर इक्वल-वेट कर दी है, जिससे विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) की लिवाली फिर से शुरू होने की उम्मीद बढ़ी गई है। मॉर्गन स्टेनले ने कहा है कि भारतीय शेयर बाजारों के मौजूदा वैल्यूएशन वर्ष 2002 व वर्ष 2008 में देखे गए निचले स्तरों के करीब आ गए हैं। पर शेयर बाजार के डॉलरों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए। हमें जरूरत है एफडीआई की।
देश के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री प्रो प्रशांत चन्द्र महालनबीस के जन्मदिन 29 जून को मनाए जाने वाले सांख्यिकी दिवस पर वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने देश के कोर उद्योग के मई महीने के जो आँकड़े जारी किए हैं वे हालांकि अतिशय आशा से भरे नहीं हैं, पर अप्रेल के महीने से बेहतर हैं। कोर उद्योगों की विकास दर मई में 3.8 फीसदी रही जो अप्रेल में 2.2 थी। इसका असर भी आज शेयर बाजार में दिखाई पड़ना चाहिए। पर बात शेयर बाजार की नहीं है, बल्कि निराशा के उस माहौल से निकलने की है जो पिछले कुछ महीनों में बन गया है। इनफ्रास्ट्रक्चर पर भारी निवेश की ज़रूरत है। सरकार इस साल करीब दो लाख करोड़ के निवेश की योजनाएं तैयार कर ही है। एक अरसे से दिल्ली के से सटे नोएडा-गाज़ियाबाद इलाके में निर्माण की गतिविधियाँ रुकी पड़ी हैं। अब य़ह काम शुरू होने के आसार भी बने हैं। इस साल करीब 9500 किलोमीटर लम्बी सड़कों का काम होना है, नवी मुम्बई, गोवा और कन्नूर में एटरपोर्ट्स के ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट्स पर काम होना है। लखनऊ, वाराणसी, गया, और कोयम्बत्तुर के हवाई अड्डों को अंतरराष्ट्रीय बनाना है। बिजलीघरों पर भारी निवेश की योजनाएं हैं। इधर राजकोषीय घाटे के बारे में अप्रेल और मई के आँकड़े पिछले साल की तुलना में बेहतर हैं। मनमोहन सिंह डीज़ल और घरेलू गैस की सब्सिडी को कम कर पाएंगे या नहीं अब यह देखना है।
भारत पर वैश्विक अर्थव्यवस्था का दबाव भी है। खासतौर से यूरोज़ोन के संकट और ग्रीस के यूरोज़ोन से बाहर निकलने के अंदेशों के कारण भी हमारे यहाँ डॉलर के निवेश में कमी आ गई थी। और निर्यात पर असर पड़ा था। फिलहाल यूरोप के लीडरों ने अपने संकटों को टालने में सउलता हासिल कर ली है। यूरोपीय परिषद के ब्रसेल्स सम्मेलन में यूरोपीय संघ के नेता मंदी से जूझ रही यूरोजोन की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए 150 अरब डॉलर के एक पैकेज पर सहमत हो गए हैं। यूरोपीयन यूनियन के नेताओं की यह मंशा साफ हो गई है कि वे किसी बड़े डिफॉल्ट या दिवालिएपन को नहीं होने देंगे। उधर ग्रीस में हुए चुनाव के बाद राहत पैकेज समर्थक गठबंधन के सत्ता में आने पर तनाव थोड़ा कम हुआ है।
प्रणव मुखर्जी के हटने के बाद वित्त मंत्रालय का काम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास आ गया है। फिलहाल अक्टूबर तक नए वित्तमंत्री के आने की आशा नहीं है। मनमोहन सिंह ने पिछले हफ्ते गार को लेकर नीतियों में बदलाव का संकेत किया तो अचानक माहौल बदल गया। इंश्योरेंस में विदेशी निवेश की सीमा 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने का काम करीब दस साल से टल रहा है। यह राजनीतिक मामला है। और इसमें सहयोगी दलों के साथ बीजेपी का सहयोग लेने की ज़रूरत भी हो सकती है। जनरल एंटी-टैक्स एवॉयडेंस रूल्स (गार) को लेकर बीजेपी ने मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया है। पर क्या भाजपा हर बात पर आसानी से समर्थन करने को तैयार हो जाएगी? राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली का कहना है कि राष्ट्रीय हित में हों तो हम आर्थिक सुधारों का स्वागत करेंगे, भले ही कांग्रेस के सहयोगी दल उनके खिलाफ हों। उनका कहना है कि सरकार में खुद ही इन सुधारों को आगे ले जाने की हिम्मत नहीं है। अलबत्ता उन्हें लगता है कि खुदरा बाजार में निवेश खोलने के लिए यह समय ठीक नहीं है। और उड्डयन में निवेश का मसौदा हम देखना चाहेंगे।
मनमोहन सिंह की जो प्रथमिकताएं अभी दिखाई पड़तीं हैं उनमें पहली है रुपए की गिरावट को रोकना। इससे हमारे आयात का बोझ कम होगा। दूसरे वे शेयर बाजार में गिरावट रोकना चाहेंगे ताकि निवेश का माहौल बना रहे। तीसरे वे विदेश व्यापार में घाटे को कम करना चाहेंगे। विदेश व्यापार के घाटे और राजकोषीय घाटे में कोई टकराव नहीं है। विदेश व्यापार घाटा मार्च 2012 में जीडीपी के 4.5 फीसदी हो गया था। रुपए की घटती कीमत के कारण यह बढ़ता जा रहा है। रुपए की कीमत गिरने पर हम निर्यात बढ़ाकर लाभ ले सकते हैं, क्योंकि तब हमारा माल सस्ता हो जाएगा, पर यूरोप में स्थितियाँ खराब हैं जहाँ हमारा माल जाता था। उधर राजकोषीय घाटा पाँच फीसदी के ऊपर है। उसे इस साल 5.1 पर लाने का लक्ष्य है। इसके लिए सरकारी खर्चों में कमी करनी होगी।
मनमोहन सिंह की दृष्टि में विदेशी मार्ग से अर्थव्यवस्था को साधना आसान है। हमारी विदेश में छवि बेहतर होगी तो वे यहाँ निवेश करेंगे। इससे नई तकनीक आएगी और रोजगार बढ़ेंगे। सम्भव है निर्यात भी बढ़े। पर यह विचार तब तक अधूरा है जब तक हमारा बुनियादी ढाँचा ठीक नहीं होगा, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में तेज विकास नहीं होगा और कृषि उत्पादन नहीं बढ़ेगा। राजकोषीय घाटा बढ़ने की वजह है करीब एक लाख नब्बे हजार करोड़ की सब्सिडी। करेंट एकाउंट (विदेश-व्यापार) घाटे की वजह है विदेश में हमारी छवि में गिरावट और उनकी अर्थव्यवस्था के अपने संकट। दोनों के समाधान हमारे तेज आर्थिक विकास से जुड़े हैं। इसमें हमने राजनीतिक पेच और संकटों को शामिल नहीं किया है। जबकि चाभी फिलहाल राजनीति के हाथों में है। यूपीए नेतृत्व को अपनी दिशा तय करनी होगी। दिक्कत सरकार के उस फॉर्मूले में है जिसमें प्रधानमंत्री की हैसियत और भूमिका भ्रामक है। पहले उस भ्रम को खत्म करने की ज़रूरत है। मनमोहन सिंह क्या ऐसा कर पाएंगे? कर भी सकते हैं।
स्वतंत्र भारत में प्रकाशित
साहस चाहिये, पर साहस के पहले समझ भी आवश्यक है
ReplyDeleteहाँ प्रवीण जी। मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि सुधार के ज्यादातर कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। यदि कोई कहे कि ज़रूरत नहीं है तब फिर साहस वगैरह का सवाल पैदा नहीं होता। सच यह है कि उदारीकरण के ज्यादातर कार्यक्रमों को रोका नहीं जा सकेगा। सिर्फ लटकाया जा सकता है। दिल्ली में कभी सीपीएम की सरकार आ जाएगी तब भी वे लागू होंगे।
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