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Friday, June 22, 2012

पाकिस्तान में बिखरता लोकतंत्र

हिन्दू में केशव का कार्टून
पाकिस्तान में नागरिक सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सीधे-सीधे स्वीकार करके टकराव को टालने की कोशिश की है, पर इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुष्ट होने के बजाय बिखरने के खतरे ज्यादा पैदा हो गए हैं। संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव की नौबत नही आनी चाहिए थी, पर लगता है कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीति के बीच फर्क करने वाली ताकतें मौजूद नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला किया है उसकी याचिका देश को राजनीतिक दलों ने ही की थी। 26 अप्रेल को जब सुप्रीम कोर्ट ने गिलानी को दोषी पाने के बाद उन्हें प्रतीकात्मक सजा दी थी और सदस्यता खत्म करने का फैसला न करके यह निर्णय कौमी असेम्बली की स्पीकर पर छोड़ दिया था। उस वक्त तक लग रहा था कि विवाद अब तूल नहीं पकड़ेगा। अदालत ने अब अपने फैसले को बदल कर दो संदेह पैदा कर दिए हैं। पहला यह कि गिलानी के बाद जो दूसरे प्रधानमंत्री आएंगे उन्हें भी आदेश थमाया जाएगा कि आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ स्विट्ज़रलैंड की अदालतों में मुकदमे फिर से शुरू कराने की चिट्ठी लिखो। वे चिट्ठी नहीं लिखेंगे तो उनके खिलाफ भी अदालत की अवमानना का केस चलाया जाएगा। दूसरा अंदेशा यह है कि कहीं देश की न्यायपालिका सेना के साथ-साथ खुद भी सत्ता के संचालन का काम करना तो नहीं चाहती है। ऐसे मौकों पर टकराव टालने की कोशिश होती है पर यहाँ ऐसा नहीं हो रहा है, बल्कि व्यवस्था की बखिया उधेड़ी जा रही है।


26 अप्रेल को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने युसुफ रज़ा गिलानी को अदालत की अवमानना का दोषी पाया था। उन्हें कैद की सज़ा नहीं दी गई। पहले अंदेशा था कि शायद प्रधानमंत्री को अपना पद और संसद की सदस्यता छोड़नी पड़े, पर अदालत ने इस किस्म के आदेश जारी करने के बजाय कौमी असेम्बली के स्पीकर के पास अपना फैसला भेज दिया। साथ ही निवेदन किया है कि वे देखें कि क्या गिलानी की सदस्यता खत्म की जा सकती है। पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 63 के अंतर्गत स्पीकर के पास यह अधिकार है कि वे तय करें कि यह सदस्यता खत्म करने का मामला बनता है या नहीं। गिलानी ने इस लड़ाई को संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार का प्रश्न बना दिया। उनका कहना था कि संविधान ने राष्ट्रपति को छूट दी है। मैं संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए कोई भी सजा स्वीकार करने को तैयार हूँ। पर मेरी सदस्यता खत्म करने का अधिकार सिर्फ असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्जा को और सदन को है। स्पीकर ने सदस्यता खत्म करने की माँग को अस्वीकार कर दिया। और अब अदालत स्पीकर के उस फैसले को स्वीकार नहीं कर रही है। ऐसा ही था तो पहले ही फैसला क्यों नहीं कर लिया?

सवाल इतना ही नहीं है। पिछले साल ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद से पाकिस्तान का कट्टरपंथी धड़ा नागरिक सरकार के खिलाफ हो गया है। वह एक ओर सेना को उकसा रहा है और दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट को। पाकिस्तान की विडंबना है कि वहाँ आज तक किसी नागरिक शासन को कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया। दूसरी ओर वहाँ की न्यायपालिका ने किसी फौजी सरकार को गैर-कानूनी करार नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश इफ्तेकार मुहम्मद चौधरी ने 1999 में नवाज शरीफ का तख्ता पलट करके सत्ता में आई परवेज़ मुशर्रफ की फौजी सरकार को वैधानिक साबित करने में मदद की थी। सन 2005 में परवेज़ मुहम्मद ने ही उन्हें मुख्य न्यायाधीश की शपथ दिलाई थी। पर इफ्तिकार चौधरी धीरे-धीरे अपने स्वतंत्र निर्णयों के लिए मशहूर होने लगे। अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के बाद पाकिस्तान में जब कट्टरपंथियों ने मुशर्रफ के खिलाफ हल्ला बोला तबसे अदालत ने मुशर्रफ के खिलाफ निर्देश देने शुरू कर दिए। अंततः 2007 में परवेज मुहम्मद में इफ्तिकार चौधरी को बर्खास्त कर दिया। बर्खास्ती के वास्तविक कारणों पर से पर्दा कभी नहीं उठा, पर लगता है कि परवेज़ मुशर्रफ ने लोकतंत्र के पक्ष में उठती आवाज़ों का पेशबंदी में या अमेरिकी सरकार के प्रभाव में बेनज़ीर भुट्टो की वापसी को स्वीकार कर लिया था। इसके तहत 5 अक्टूबर 2007 को नेशनल रिकांसिलिएशन ऑर्डिनेंस (एनआरओ) जारी किया गया। इसका औपचारिक अर्थ था कि भाईचारा बढ़ाने के लिए कुछ बातों को भुला दिया जाए। कानूनी अर्थ यह था कि 1 जनवरी 1986 से 12 अक्टूबर 1999 के बीच कानूनी कार्रवाइयाँ, मुकदमे वगैरह वापस ले लिए जाएंगे।

बेनज़ीर भुट्टो की वापसी के लिए इस किस्म का कानूनी संरक्षण ज़रूरी था, क्योंकि उन पर तथा उनके पति आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम मुकदमे ठोक दिए गए थे। इनमें से ज्यादातर मुकदमे नवाज़ शरीफ की सरकार के समय दायर किए गए थे। अनेक आरोप सच भी होंगे, पर पाकिस्तानी व्यवस्था में ऐसे आरोप किसी पर भी लगाए जा सकते हैं। बहरहाल इफ्तिकार चौधरी की सदारत में सुप्रीम कोर्ट ने एक हफ्ते के भीतर परवेज मुशर्रफ के इस एनआरओ को गैर-कानूनी करार दिया। इसके बाद परवेज मुशर्रफ का सुप्रीम कोर्ट से सीधा टकराव शुरू हो गया।

इफ्तिकार चौधरी की बर्खास्तगी के बाद नए मुख्य न्यायाधीश अब्दुल हमीद डोगर ने 27 फरवरी 2008 को एनआरओ को फिर से लागू करा दिया। उधर सन 2008 में देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू होने के पहले ही बेनज़ीर भुट्टो की हत्या कर दी गई। चुनाव होने के बाद नवाज शरीफ की पार्टी ने जजों की बहाली की लड़ाई शुरू कर दी। वे इस लड़ाई को सड़कों पर ले गए और इफ्तिकार चौधरी को बहाल कराने में कामयाब हुए। मार्च 2009 में इफ्तकार चौधरी वापस आ गए। इस बीच पाकिस्तान सरकार ने कोशिश की कि एनआरओ को संसद से मंज़ूरी दिला दी जाए, पर ऐसा हो नहीं सका। 16 दिसम्बर 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने इसे फिर से असंवैधानिक करार दिया। इस अध्यादेश के तहत पाकिस्तान सरकार ने 8041 लोगों की सूची बनाई थी, जिन्हें कानूनी कार्रवाई से छूट मिलनी थी। पर असली निशाना आसिफ अली ज़रदारी थे।

आसिफ अली ज़रदारी को राष्ट्रपति होने के नाते संविधान के अनुच्छेद 248 के तहत कानूनी कार्रवाई से छूट मिली है। पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि ज़रदारी के खिलाफ स्विस कोर्ट में बंद हो चुके मुकदमों को फिर से शुरू करया जाए। प्रधानमंत्री ने ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की। अंततः अदालत ने उनपर अवमानना का मुकदमा चलाया और सजा दी। युसुफ रज़ा गिलानी का कहना था कि सन 1956, 1962 और 1973 के तानाशाहों को संवैधानिक छूट मिली हुई है तो एक चुने हुए राष्ट्रपति को यह छूट क्यों नहीं मिलनी चाहिए? उनका यह भी कहना है कि यह कानून मैने नहीं बनाया, पहले से चला आ रहा है। पाकिस्तान में न्यायपालिका एक से ज्यादा बार फौजी तानाशाहों की सरकारों को वैधानिकता प्रदान कर चुकी है। कौमी और सूबों की असेम्बलियों की बर्खास्तगी को वैधानिक बता चुकी हैं। तब क्या वजह है कि इस बार वहाँ की न्यायपालिका का रुख इतना सख्त है?

आज पाकिस्तान में नए प्रधानमंत्री का चुनाव हो जाएगा, पर सवालों का जवाब नहीं मिलेगा। पीपीपी की सरकार के पास बहुमत है, पर पाकिस्तान में लोकतांत्रिक संस्थाओं की रक्षा को लेकर जज़्बा कमज़ोर है। इस सवाल को ज़रदारी या नवाज़ शरीफ का सवाल बना दिया गया। यह सब तब है जब इस नई संसद के चुनाव में अब कुछ महीने बाकी हैं। राष्ट्रपति पद के चुनाव भी अगले साल हैं। बेहतर होता कि फैसले वोटरों पर छोड़े जाते। पाकिस्तान की विडंबना है कि वहाँ लोकतांत्रिक संस्थाओं और परम्पराओं का इतिहास लगभग शून्य है। धीरे-धीरे सिविल सोसायटी उभर रही है। सार्वजनिक सवालों पर विमर्श का माहौल बन रहा है। देश आर्थिक संकट से गुज़र रहा है। आए दिन धमाकों में लोग मारे जा रहे हैं। ऐसे में लोकतांत्रिक संस्थाओं को अस्थिर करने की कोशिशों को देखते हुए लगता है कि इसके पीछे कोई और भी है। कौन हो सकता है वह? जनवाणी में प्रकाशित



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