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Saturday, June 9, 2012

न इधर और न उधर की राजनीति

मंजुल का कार्टून साभार
ममता बनर्जी ने पेंशन में विदेशी निवेश के प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया है। पिछले गुरुवार को हुई कैबिनेट की बैठक में उदारीकरण के प्रस्ताव सामने ही नहीं आ पाए। सरकार दुविधा में नज़र आती है। अब लगता है कि पहले राष्ट्रपति चुनाव हो जाए, फिर अर्थव्यवस्था की सुध लेंगे। पिछले सोमवार को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद अचानक सरकार आर्थिक उदारीकरण के अपने एजेंडा को तेज करने को उत्सुक नज़र आने लगी। बुधवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े विभागों के मंत्रियों की बैठक में तमाम कामों में तेजी लाने का फैसला हुआ। इस साल तकरीबन साढ़े नौ हजार किमी लम्बे राजमार्गों के निर्माण और 4360 किमी लम्बे राजमार्गों के पुनरुद्धार का काम शुरू होना है। दो नए ग्रीनफील्ड हवाई अड्डों, दो नए बंदरगाहों और कम से कम 18,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता का सृजन होना है। बुलेट ट्रेन चलाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना होनी है। हजारों लाखों करोड़ की परियोजनाएं पिछले कुछ समय से स्वीकृति के लिए पड़ी हैं। आर्थिक उदारीकरण की राह में आगे बढ़ने के लिए विमानन, इंश्योरेंस, पेंशन और रिटेल से जुड़े फैसले करने की घड़ी आ गई है। डीज़ल और रसोई गैस से सब्सिडी खत्म करने का मौका आ गया है और शायद मनरेगा और खाद्य सुरक्षा बिल जैसे लोक-लुभावन कार्यों से हाथ खींचने की घड़ी भी। क्या यह काम आसान होगा? और क्या सरकार के सामने यही समस्या है? लगता है जैसे केन्द्र सरकार आर्थिक सन्निपात और राजनीतिक बदहवासी में है।


इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े विभागों के मंत्रियों की बैठक में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह उपस्थित नहीं थे। और रेलमंत्री मुकुल रॉय आए नहीं। कहा गया कि जिन विभागों की बैठक थी, उनमें वित्त मंत्रालय नहीं आता। पर क्या इस किस्म की बैठकों में वित्तमंत्री की उपस्थिति उपयोगी नहीं होती? रेलमंत्री का मामला राजनीति से जुड़ा है। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के रिश्ते अभी सुलझे नहीं हैं। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की सीमा 51 फीसदी करने के लिए ममता बनर्जी को मनाने का काम अजित सिंह को सौंपा गया है।सरकार के सामने इस वक्त निर्यात बढ़ाने, आयात पर नियंत्रण रखने और रुपए की गिरती कीमत को थामने की चुनौती है।

रह-रह कर 1991 जैसे हालात का ज़िक्र हो रहा है। गोकि आज के हालात कहीं बेहतर हैं। हमारे पास 25 मई तक 290 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा कोष था जो किसी भी नजरिए से खराब नहीं है। रुपए की कीमत गिरने की एक वजह स्वाभाविक रूप से डॉलर की बढ़ती माँग है, साथ ही विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा शेयर बाजार से पैसा ले जाना भी है। ये सारी बातें एक-दूसरे से जुड़ी हैं। वोडाफोन पर पिछली तारीख से टैक्स लेने की कोशिश को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय बिरादरी द्वारा डाला गया दबाव भी काम कर रहा है। रिटेल, उड्डयन, इंश्योरेंस और पेंशन में विदेशी निवेश के द्वार खुलते ही आपको शेयर बाजार से लेकर रुपए की कीमतों में फर्क नज़र आ जाएगा। पेट्रोल की कीमतें भी गिर जाएंगी, क्योंकि एक बार रुपए की कीमत बढ़ी तो पेट्रोल की कीमतें गिर जाएंगी।

सच बात यह है कि उदारीकरण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने की हिम्मत सरकार में नहीं बची है। और देश के राजनीतिक दल समस्याओं के समाधान नहीं चाहते, बल्कि समस्याएं बने रहने में उन्हें लाभ नज़र आता है। कोई माने या न माने यह पॉलिसी पैरेलिसिस ही है। केन्द्र सरकार के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने दो महीने पहले भारतीय राजनीति के संदर्भ में जो कुछ कहा वह पूरी तरह गलत नहीं था। उसके पहले रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट में जो प्रस्ताव पेश किए थे वे जिन कारणों से बदले गए वे कारण आर्थिक नहीं थे। सरकार को खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की अनुमति देने का आदेश भी उन्हीं कारणों से वापस लेना पड़ा था। तब क्या अब सरकार की ताकत बढ़ गई है जो ये फैसले करा लेगी?

पेंशन बैंकिंग और टैक्स सुधार के तमाम कानूनों को क्या सरकार संसद से पास करा सकती है? जीएसटी और डीएसटी को लागू कराने में दिक्कतें क्यों पैदा हो रही हैं? केन्द्र सरकार ही नहीं तकरीबन सारे दल इन दिनों दोहरा खेल खेल रहे हैं। सरकार उदारीकरण चाहती है तो पार्टी लोक-लुभावन रास्ते पर चलना चाहती है। न तो उदारीकरण के कानून पास होते हैं और न भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा के बिल। हमारा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी तकरीबन 90 लाख करोड़ रुपए का है। इसमें एक प्रतिशत की वृद्धि से तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए की प्राप्ति होती है। इतनी राशि से ढाई लाख रुपए सालाना इनकम के 40 लाख रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण रोकने का मतलब है सीधे नए रोजगारों पर लात मारना। यह बात इतनी सरल है तो सबको समझ में क्यों नहीं आती? राजनीतिक विचार कहता है कि आर्थिक विकास तब तक निरर्थक है जब तक वह कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक न पहुँचे। इस बात को कौन समझाएगा कि विकास आखिरी आदमी तक क्यों नहीं पहुँचा? समावेशी विकास की धारणा को समझने के साथ यह भी समझना होगा कि विकास का वैश्विक मॉडल अपने साथ असमानता भी लाएगा। ऐसा सम्भव नहीं कि सुदामा की तरह अचानक किसी एक सुबह देश के 80 करोड़ लोग झोंपड़े के बजाय महल में उठें।

कांग्रेस कार्यसमिति की सोमवार को हुई बैठक के आर्थिक पहलू पर मीडिया ने ध्यान दिया, राजनीतिक पक्ष की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। पिछले दिनों पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह पिटी कांग्रेस पार्टी राजनीतिक स्तर पर क्या करने वाली है? एंथनी रपट का क्या हुआ? पार्टी किस तरह से खुद को रिइनवेंट करेगी? राहुल गांधी कब नेतृत्व सम्हालेंगे? राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस किसे खड़ा करेगी? कांग्रस को किसी और से नहीं पहले खुद से सवाल करने चाहिए। सच यह है कि यूपीए-2 ने राजनीतिक मैदान को बेहद आसान समझ लिया था। पिछले साल अन्ना-हजारे आंदोलन से निपटने में पार्टी ने अधकचरापन दिखाया। उसके बाद खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मामले पर यही हुआ, एनसीटीसी पर भी यही रुख देखने को मिला। यह सब तब है जब बीजेपी वार करने की स्थिति में नहीं है।

देश में आर्थिक उदारीकरण सायास शुरू नहीं हुआ। कम से कम कांग्रेस पार्टी इसे लेकर नहीं आई। यह परिस्थितियों के कारण आया। और इसीलिए इसके पीछे कोई सोच-विचार नहीं है। आर्थिक विकास का मतलब पूँजीपतियों को नोच-खसोट का खुला मौका देना नहीं है। समृद्धि का लाभ आखिरी आदमी तक पहुँचे यह देखना सरकार का काम है। पर सरकार ऐसा नहीं करती। वह उद्योग लगाने के नाम पर जमीन खरीदती है और अपने ही लोगों को दे देती है। व्यवस्था ने क्रोनी कैपिटलिस्टों को बढ़ने का मौका दिया है। वास्तविक उद्यमी यहाँ भी पीछे रह जाते हैं। तमाम रोने-पीटने के बावज़ूद आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद एनडीए की सरकार बनी। वह भी उस रास्ते पर चली। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं, पर उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उदारीकरण के मुखर समर्थक हैं और न विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।

केन्द्र सरकार दोहरे दबाव में है। एक ओर आर्थिक उदारीकरण के कार्यक्रम रुके हुए हैं। दूसरी ओर अर्थ-व्यवस्था मंदी की ओर बढ़ चली है। राजनीतिक दलों की करनी और कथनी में भेद है। हम न इधर हैं और न उधर हैं। बेशक यूरोप में आर्थिक संकट है, पर हमारे वर्तमान संकट के पीछे यूरोप नहीं है। हाल में जयराम रमेश ने पूछा, हम कितने कुएं खोदेंगे? उनका आशय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम से था। सोनिया गांधी ने इस कार्यक्रम को सफलता का मंत्र मान लिया था। पर ऐसा है नहीं। ज़रूरत आर्थिक विकास, गवर्नेंस और नियमन की है।
जनवाणी में प्रकाशित लेख का अद्यतन रूप

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