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Friday, June 1, 2012

राजनीति में लू-लपट का दौर

हिन्दू में केशव का कार्टून
हमारे यहाँ दूसरे की सफेद कमीज़ सामान्यतः ईर्ष्या का विषय होती है। इसलिए हर सफेद कमीज़ वाले को छींटे पड़ने का खतरा रहता है। राजनीति यों भी छींटेबाजी का मुकाम है। इस लिहाज से देखें तो क्या अन्ना हजारे की टीम द्वारा प्रधानमंत्री पर लगाए गए आरोप छींटेबाज़ी की कोशिश हैं? पिछले कई महीनों से खामोश बैठी अन्ना टोली इस बार नई रणनीति के साथ सामने आई है। उसने प्रधानमंत्री सहित कुछ केन्द्रीय मंत्रियों पर आरोप लगाए हैं। ये आरोप पहले भी थे, पर अन्ना-टोली का कहना है कि अब हमारे पास बेहतर साक्ष्य हैं।

दूसरे मंत्रियों की बात छोड़ दें तो प्रधानमंत्री पर जो आरोप लगाए गए हैं वे सन 2006 से 2009 के बीच कोयला खानों के 155 ब्लॉक्स के बारे में हैं जिन्हें बहुत कम फीस पर दे दिया गया। उस दौरान कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के अधीन था। पहली नज़र में यह बात महत्वपूर्ण लगती है। खासतौर से कुछ महीने पहले एक अखबार में सीएजी की रपट इस अंदाज़ में प्रकाशित हुई थी कि कोई बहुत बड़ा घोटाला सामने आया है। सीएजी की ड्राफ्ट रपट में 10.67 लाख करोड़ के नुकसान का दावा किया गया था। इस लिहाज से यह टूजी मामले से कहीं बड़ा मामला है। पर क्या यह घोटाला है? क्या इसमें प्रधानमंत्री की भूमिका है? क्या इसके आधार पर कोई अदालती मामला बनाया जा सकता है? इन सब बातों पर विचार करने के बजाय सीधे प्रधानमंत्री को आरोप के घेरे में खड़ा करना उचित नहीं है। इसके साथ ही उनके लिए प्रयुक्त शब्द भी सामान्य मर्यादाओं के खिलाफ हैं।


महाभारत और रामायण से रूपकों को खोज कर लाने और उन्हें किसी के साथ जोड़ने के पहले उनके सही अर्थों को समझना चाहिए। वर्तमान राजनीति में कौन शिखंडी है, कौन भीष्म पितामह और कौन अर्जुन है इसे भी समझना चाहिए। टीम अन्ना सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध है तो उसका समर्थन होना चाहिए। लोकपाल विधेयक के पास न हो पाने के पीछे के अनेक कारणों में से एक यह भी है कि टीम अन्ना ने एक ओर उसे पास करने के दिन और तारीख तक को लेकर जबर्दस्त दबाव बनाया और दूसरी ओर पूरे आंदोलन की हवा निकल जाने दी। बेहतर हो कि इसे इसे किन्हीं व्यक्तियों की निजी लड़ाई न बनने दें।

3 जून को अन्ना फिर से दिल्ली आ रहे हैं। इसके बाद बाबा रामदेव अपना अभियान शुरू करने वाले हैं। अभी तक स्पष्ट नहीं है कि आंदोलन का लक्ष्य क्या है। अब कम से कम लोकपाल विधेयक मुख्य लक्ष्य नहीं लगता। यदि वह है भी तो केन्द्र सरकार पर निशाना साधने का लक्ष्य लगता है। केन्द्र की यूपीए सरकार यों भी संकट में है। इस संकट के समाधान के लिए वह परम्परागत फॉर्मूलों का इस्तेमाल कर रही है। उसकी पहली कोशिश किसी तरह से अपना कार्यकाल पूरा करने की है। कहना मुश्किल है कि अगले दो साल यह सरकार निकाल भी पाएगी या नहीं। सवाल केवल कांग्रेस की राजनीति का नहीं है, बल्कि उसे समर्थन देने वालों की और उसका विरोध करने वालों की राजनीति का भी है। क्या अन्ना और बाबा रामदेव भी इस राजनीति का हिस्सा बनने जा रहे हैं?

अन्ना टोली केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ जो नए साक्ष्य लेकर आई है, उनपर अलग-अलग विचार करने के बजाय प्रधानमंत्री वाला मामला चर्चा का विषय है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व साफ-सुथरा है। कोयला खानों के मामले में भी उनपर व्यक्तिगत आरोप नहीं हैं। चूंकि यह काम उनके अधीन विभागों का है, इसलिए आरोप उनपर लगे हैं। भ्रष्टाचार निवारण कानून की धारा 13(डी) के जिन उपबन्धों के तहत ये आरोप लगाए जा रहे हैं, उनके अंतर्गत घोटाला भी तो सामने लाना होगा। यदि सरकार ने आँखें खोलकर कोई काम किया है तो यह नीतिगत और बड़े प्रशासनिक कामकाज का मामला है। सीएजी ने आर्थिक नुकसान का जो अनुमान लगाया है उसका आधार भी सामने नहीं आया है। अब या तो सरकार इन मामलों की जाँच कराए या फिर कोई किसी अदालत का दरवाजा खटखटाए। बहरहाल अप्रत्याशित गर्मी के इस मौसम में आने वाला हफ्ता राजनीतिक लू-लपट वाला होगा।

अरुण जेटली ने कभी कहा था कि हमारे यहाँ राजनीति मुख्यतः गणित है। सिर्फ जोड़-घटाना, गुणा-भाग का खेल। आप दिल्ली का सीन देखें तो एक ओर बड़े-बड़े आरोप लग रहे हैं वहीं राष्ट्रपति चुनाव का गणित लग रहा है। यूपीए और एनडीए में से कोई भी अपने प्रत्याशी सामने लाने में कामयाब नहीं हैं। दिक्कत सिर्फ कांग्रेस के सामने नहीं है। बल्कि उसके लिए अच्छा यह है कि विपक्षी दल भाजपा अपनी कलह से घिरा है। मुम्बई में हुई पार्टी कार्यकारिणी बैठक के बाद नए गुणा-भाग का खेल शुरू हो गया है। नरेन्द्र मोदी अचानक राष्ट्रीय प्रश्नों पर बोलने लगे हैं। उन्होंने पार्टी के बड़े नेताओं की इस बात पर घिसाई की है कि वे केन्द्र सरकार पर वार करने में चूक रहे हैं।

हमारी राजनीति कुछ परिवारों का खेल है। कांग्रेस माने नेहरू-गांधी परिवार और भाजपा माने संघ परिवार। इनकी सीमाएं इन्हें देश की वास्तविक समस्याओं से रूबरू होने से रोकती हैं। तमाम क्षेत्रीय पार्टियाँ परिवारवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं। इसका बेहतर उदाहरण है आंध्र जहाँ कांग्रेस का मुकाबला अपनी पार्टी के एक पुराने सहयोगी परिवार से है। यह परिवार है पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर का। इस महीने कांग्रेस को वहाँ एक झटका लगने वाला है। सन 2004 में यूपीए सरकार की दिल्ली में वापसी के पीछे आंध्र और तमिलनाडु में एनडीए की हार एक बड़ा कारण थी। इसके बाद तेलंगाना राज्य वनाने का वादा कांग्रेस के गले की हड्डी बन गया। अब वाईएसआर के बेटे जगनमोहन रेड्डी की गिरफ्तारी उसके लिए संकट लेकर आ रही है। पिछले साल पुलिवेन्दुला विधान सभा और कडपा लोकसभा सीटों पर वाईएसआर की पत्नी विजयम्मा और बेटे जगनमोहन रेड्डी ने विजय हासिल करके कांग्रेस का ज़ायका बिगाड़ा था। अब 12 जून को आंध्र में नेल्लोर लोकसभा और 18 विधानसभा सीटों के उपचुनाव हैं। इनमें 16 सीटें वे हैं जो वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन करने वाले विधायकों की सदस्यता समाप्त होने के कारण खाली हुई हैं। सन 2009 में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनाने में आंध्र की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अब दिल्ली में कांग्रेस के संकट के पीछे आंध्र का हाथ होगा।

आंध्र प्रदेश में वाईएसआर परिवार का उत्कर्ष राष्ट्रीय राजनीति की कहानी है। इस परिवार को सोनिया गांधी ने ही बढ़ावा दिया। और अब इस राजनीति के अंतर्विरोध दूसरी दिशा में जा रहे हैं। कांग्रेस के मंत्री शंकर राव और तेलुगु देसम के दो नेताओं की याचिका पर आंध्र प्रदेश उच्य न्यालय ने सीबीआई को जगनमोहन रेड्डी की संपत्ति की छानबीन का आदेश दिया था और जगनमोहन की गिरफ्तारी हुई। इसका कांग्रेस को भी हुआ है। अब वाईएसआर की छवि "गरीबों के मसीहा" से ज्यादा भ्रष्ट नेता की है। किसने बनाया उन्हें नेता? जब वाईएसआर यह सब कुछ कर रहे थे तो कांग्रेस आलाकमान क्या कर रही थी?

सेनाध्यक्ष वीके सिंह की सेवा निवृत्ति अंततः कल हो गई। पिछले एक साल में भारतीय मीडिया पर अन्ना हजारे के बाद शायद उनका नाम ही सबसे ज्यादा बार आया होगा। उन्हें भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के कारण याद किया जाएगा। सेवानिवृत्त होने के एक दिन पहले उन्होंने पुणे में कहा कि भ्रष्टाचार केवल मेरी नहीं सभी की लड़ाई है। देश के हर नागरिक का फर्ज है कि वह इसके खिलाफ आवाज उठाए। और इस वक्त यह चर्चा है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद राजनीति में आ सकते हैं या टीम अन्ना के साथ शामिल हो सकते हैं। वे शामिल होंगे या नहीं, पर इतना स्पष्ट है कि देश के लोग सार्वजनिक जीवन में आचरण को लेकर चौकन्ने हैं। यह बड़ा आंदोलन बन सकता है, पर उसके लिए जिस सादगी और ईमानदारी की ज़रूरत है वह भी नज़र नहीं आती। अफसोस इस बात का है कि जनता बदलाव की उम्मीदें कर रही है और नेताओं को गणित से मुक्ति नहीं मिल रही है। 
जनवाणी में प्रकाशित

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