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Sunday, May 13, 2012

कार्टून विवाद पर फेसबुक से कुछ पोस्ट

हिमांशु पांड्या की यह पोस्ट मैने उनके फेसबुक नोट्स से ली है। इस चर्चा को आगे बढ़ाने में यह मददगार होगी।

अप्रश्नेय कोई नहीं है - गांधी , नेहरू , अम्बेडकर , मार्क्स....
by Himanshu Pandya on Saturday, May 12, 2012 at 1:17pm ·

जिस किताब में छपे कार्टून पर विवाद हो रहा है, उसमें कुल बत्तीस कार्टून हैं। इसके अतिरिक्त दो एनिमेटेड बाल चरित्र भी हैं - उन्नी और मुन्नी। मैं सबसे पहले बड़े ही मशीनी ढंग से इनमें से कुछ कार्टूनों का कच्चा चिट्ठा आपके सामने प्रस्तुत करूँगा, फिर अंत में थोड़ी सी अपनी बात।


# नेहरु पर सबसे ज्यादा (पन्द्रह) कार्टून हैं। ये स्वाभाविक है क्योंकि किताब है : भारत का संविधान : सिद्धांत और व्यवहार। # एक राज्यपालों की नियुक्ति पर है। उसमें नेहरू जी किक मारकर एक नेता को राजभवन में पहुंचा रहे हैं। # एक भाषा विवाद पर है, उसमें राजर्षि टंडन आदि चार नेता एक अहिन्दी भाषी पर बैठे सवारी कर रहे हैं। # एक में संसद साहूकार की तरह बैठी है और नेहरू, प्रसाद, मौलाना आज़ाद, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई आदि भिखारी की तरह लाइन लगाकर खड़े हैं। यह विभिन्न मंत्रालयों को धन आवंटित करने की एकमेव ताकत संसद के पास होने पर व्यंग्य है। # एक में वयस्क मताधिकार का हाथी है जिसे दुबले पतले नेहरू खींचने की असफल कोशिश कर रहे हैं। # एक में नोटों की बारिश हो रही है या तूफ़ान सा आ रहा है जिसमें नेहरू, मौलाना आजाद, मोरारजी आदि नेता, एक सरदार बलदेव सिंह, एक अन्य सरदार, एक शायद पन्त एक जगजीवन राम और एक और प्रमुख नेता जो मैं भूल रहा हूँ कौन - तैर रहे हैं। टैगलाइन है - इलेक्शन इन द एयर।

# एक में नेहरू हैरान परेशान म्यूजिक कंडक्टर बने दो ओर गर्दन एक साथ घुमा रहे हैं। एक ओर जन-गण-मन बजा रहे आंबेडकर, मौलाना, पन्त, शायद मेनन, और एक वही चरित्र जो पिछले कार्टून में भी मैं पहचान नहीं पाया, हैं। ये लोग ट्रम्पेट, वायलिन आदि बजा रहे हैं जबकि दूसरी ओर वंदे मातरम गा रहे दक्षिणपंथी समूह के लोग हैं। श्यामाप्रसाद मुखर्जी बजाने वालों की मंडली से खिसककर गाने वालों की मंडली में जा रहे हैं। # एक में चार राजनीतिज्ञ नेहरु, पटेल, प्रसाद और एक और नेता भीमकाय कॉंग्रेस का प्रतिनिधित्त्व करते हुए एक लिलिपुटनुमा विपक्ष को घेरकर खड़े हैं। यह चुनाव और प्रतिनिधित्त्व की दिक्कतें बताने वाले अध्याय में है। # ऊपरवाले कार्टून के ठीक उलट है ये कार्टून जिसमें नेहरु को कुछ भीमकाय पहलवाननुमा लोगों ने घेर रखा है, लग रहा है ये अखाड़ा है और नेहरु गिरे पड़े हैं। घेरे खड़े लोगों के नाम हैं - विशाल आंध्रा, महा गुजरात, संयुक्त कर्नाटक, बृहनमहाराष्ट्र। ये कार्टून नए राज्यों के निर्माण के लिए लगी होड़ के समय का है।

### कवर पर बना कार्टून सबसे तीखा है। आश्चर्य है इससे किसी की भावनाएं आहत क्यों नहीं हुईं। यह आर. के. लक्ष्मण का है। इसमें उनका कॉमन मैन सो रहा है, दीवार पर तस्वीरें टंगी हैं - नेहरु, शास्त्री, मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, राव, अटल बिहारी और देवैगोडा... और टीवी से आवाजें आ रही हैं - "unity, democracy, secularism, equality, industrial growth, economic progress, trade, foreign collaboration, export increase, ...we have passenger cars, computers, mobile phones, pagers etc... thus there has been spectacular progress... and now we are determined to remove poverty, provide drinking water, shelter, food, schools, hospitals...

कार्टून छोड़िये, इस किताब में उन्नी और मुन्नी जो सवाल पूछते हैं, वे किसी को भी परेशान करने के लिए काफी हैं। वे एकबारगी तो संविधान की संप्रभुता को चुनौती देते तक प्रतीत होते हैं। मसलन, उन्नी का ये सवाल - क्या यह संविधान उधार का था? हम ऐसा संविधान क्यों नहीं बना सके जिसमें कहीं से कुछ भी उधार न लिया गया हो? या ये सवाल (किसकी भावनाएं आहत करेगा आप सोचें) - मुझे समझ में नहीं आता कि खिलाड़ी, कलाकार और वैज्ञानिकों को मनोनीत करने का प्रावधान क्यों है? वे किसका प्रतिनिधित्त्व करते हैं? और क्या वे वास्तव में राज्यसभा की कार्यवाही में कुछ खास योगदान दे पाते हैं? या मुन्नी का ये सवाल देखें - सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले बदलने की इजाज़त क्यों दी गयी है? क्या ऐसा यह मानकर किया गया है कि अदालत से भी चूक हो सकती है? एक जगह सरकार की शक्ति और उस पर अंकुश के प्रावधान पढ़कर उन्नी पूछता है - ओह! तो पहले आप एक राक्षस बनाएँ फिर खुद को उससे बचाने की चिंता करने लगे। मैं तो यही कहूँगा कि फिर इस राक्षस जैसी सरकार को बनाया ही क्यों जाए?

किताब में अनेक असुविधाजनक तथ्य शामिल किये गए हैं। उदाहरणार्थ, किताब में बहुदलीय प्रणाली को समझाते हुए ये आंकड़े सहित उदाहरण दिया गया है कि चौरासी में कॉंग्रेस को अड़तालीस फीसदी मत मिलने के बावजूद अस्सी फीसदी सीटें मिलीं। इनमें से हर सवाल से टकराते हुए किताब उनका तार्किक कारण, ज़रूरत और संगती समझाती है। यानी किताब अपने खिलाफ उठ सकने वाली हर असहमति या आशंका को जगह देना लोकतंत्र का तकाजा मानती है। वह उनसे कतराती नहीं, उन्हें दरी के नीचे छिपाती नहीं, बल्कि बच्चों को उन पर विचार करने और उस आशंका का यथासंभव तार्किक समाधान करने की कोशिश करती है। उदाहरण के लिए जिस कार्टून पर विवाद है, वह संविधान निर्माण में लगने वाली देरी के सन्दर्भ में है। किताब में इस पर पूरे तीन पेज खर्च किये गए हैं, विस्तार से समझाया गया है कि संविधान सभा में सभी वर्गों और विचारधाराओं के लोगों को शामिल किया गया। उनके बीच हर मुद्दे पर गहराई से चर्चा हुई। संविधान सभा की विवेकपूर्ण बहसें हमारे लिए गर्व का विषय हैं, किताब ये बताती है। मानवाधिकार वाले अध्याय में सोमनाथ लाहिड़ी को (चित्र सहित) उद्धृत किया गया है कि अनेक मौलिक अधिकार एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाए गए हैं यानी अधिकार कम हैं, उन पर प्रतिबन्ध ज्यादा हैं। सरदार हुकुम सिंह को (चित्र सहित) उद्धृत करते हुए अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सवाल उठाया गया है। किताब इन सब बहसों को छूती है।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि जहाँ देर के कारण गिनाए गए हैं, वहाँ ये रेखांकित किया गया है कि संविधान में केवल एक ही प्रावधान था जो बिना वाद-विवाद सर्वसम्मति से पास हो गया - सार्वभौम मताधिकार। किताब में इस पर टिप्पणी है – “इस सभा की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का इससे बढ़िया व्यावहारिक रूप कुछ और नहीं हो सकता था।”

बच्चों को उपदेशों की खुराक नहीं चाहिए, उन्हें सहभागिता की चुनौती चाहिए। उपदेशों का खोखलापन हर बच्चा जानता है। यह और दो हज़ार पांच में बनी अन्य किताबें बच्चों को नियम/ सूत्र/ आंकड़े/ तथ्य रटाना नहीं चाहतीं। प्रसंगवश पाठ्यचर्या दो हज़ार पांच की पृष्ठभूमि में यशपाल कमेटी की रिपोर्ट थी। बच्चे आत्महत्या कर रहे थे, उनका बस्ता भारी होता जा रहा था, पढ़ाई उनके लिए सूचनाओं का भण्डार हो गयी थी, जिसे उन्हें रटना और उगल देना था। ऐसे में इस तरह के कार्टून और सवाल एक नयी बयार लेकर आये। ज्ञान एक अनवरत प्रक्रिया है, यदि ज्ञान कोई पोटली में भरी चीज़ है जिसे बच्चे को सिर्फ ‘पाना’ है तो पिछली पीढ़ी का ज्ञान अगली पीढ़ी की सीमा बन जाएगा। किताब बच्चे को अंतिम सत्य की तरह नहीं मिलनी चाहिये, उसे उससे पार जाने, नए क्षितिज छूने की आकांक्षा मिलनी चाहिए।

किताब अप्रश्नेय नहीं है और न ही कोई महापुरुष। कोई भी - गांधी, नेहरु, अम्बेडकर, मार्क्स... अगर कोई भी असुविधाजनक तथ्य छुपाएंगे तो कल जब वह जानेगा तो इस धोखे को महसूस कर ज़रूर प्रतिपक्षी विचार के साथ जाएगा। उसे सवालों का सामना करना और अपनी समझ/ विवेक से फैसला लेने दीजिए। यह किताब बच्चों को किताब के पार सोचने के लिए लगातार सवाल देती चलती है, उदाहरणार्थ यह सवाल - (क्या आप इससे पहले इस सवाल की कल्पना भी कर सकते थे?) क्या आप मानते हैं कि निम्न परिस्थितियाँ स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंधों की मांग करती हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दें – क* शहर में साम्प्रदायिक दंगों के बाद लोग शान्ति मार्च के लिए एकत्र हुए हैं। ख* दलितों को मंदिर प्रवेश की मनाही है। मंदिर में जबरदस्ती प्रवेश के लिए एक जुलूस का आयोजन किया जा रहा है। ग* सैंकड़ों आदिवासियों ने अपने परम्परागत अस्त्रों तीर-कमान और कुल्हाड़ी के साथ सड़क जाम कर रखा है। वे मांग कर रहे हैं कि एक उद्योग के लिए अधिग्रहीत खाली जमीं उन्हें लौटाई जाए। घ* किसी जाती की पंचायत की बैठक यह तय करने के लिए बुलाई गयी है कि जाती से बाहर विवाह करने के लिए एक नवदंपत्ति को क्या दंड दिया जाए।

अब आखिर में, जिन्हें लगता है कि बच्चे का बचपन बचाए रखना सबसे ज़रूरी है और वो कहीं दूषित न हो जाए, उन्हें छान्दोग्य उपनिषद का रैक्व आख्यान पढ़ना चाहिए। मेरी विनम्र राय में बच्चे को यथार्थ से दूर रखकर हम सामाजिक भेदों से बेपरवाह, मिथकीय राष्ट्रवाद से बज्बजाई, संवादहीनता के टापू पर बैठी आत्मकेंद्रित पीढ़ी ही तैयार करेंगे। तब, कहीं देर न हो जाए।

- हिमांशु पंड्या

(जानकारी हेतु, मैं हिन्दी की पाठ्यक्रम निर्माण समिति का सदस्य रहा हूँ।)


यह पोस्ट मुसाफिर बैठा की है। उनके स्टेटस को सीधे पढ़ने के लिए यहाँ जाएं

Musafir Baitha
आंबेडकर-कार्टून विवाद...............मेरा पर्यवेक्षण :

कल और आज न्यूज चैनलों पर तत्सम्बन्धी समाचार देखे-सुने और वादविवाद भी.

घर में एनसीआरटी, कक्षा-११ की बच्चों द्वारा पढ़ी गयी पुस्तकें हैं पर राजनीति विज्ञान की नहीं. उनने विज्ञान स्ट्रीम से पढाई की है. सो, मौजूदा आंबेडकर-कार्टून विवाद के मद्देनजर आज सुबह बुकस्टाल जाकर उक्त कक्षा की 'भारत का संविधान : सिद्धांत और व्यवहार' नामक राजनीति विज्ञान की पुस्तक खरीद लाया हूँ. लगभग तीन घंटे उस किताब का अध्ययन भी किया है.

पुस्तक १० अध्यायों में विभक्त है जिसके 'संविधान-क्यों और कैसे?' नामक पहले चैप्टर में ही विवादित कार्टून भी डाला गया है. कुल पांच कार्टूनों वाले इस अध्याय का यह आखिरी कार्टून है. इनके अलावे अन्य अध्यायों में भी कुल जमा अन्य २० कार्टून चित्रित हैं.

सभी कार्टून 'कार्टून बूझें' शीर्षक देकर लगाये गये हैं . छात्रों/शिक्षकों के मार्गदर्शन के लिए कार्टून के नीचे पुस्तक संपादक की ओर से टिप्पणियाँ की गयी हैं, कुछ सवाल छोड़े गए हैं, कार्टून के निहितार्थ पर कुछ अपनी बात कहने को छात्रों को प्रोत्साहित किया गया है.

किताब में विवादित कार्टून का पूरा सन्दर्भ देखें तो मामला डॉ आंबेडकर या नेहरु के बारे में कोई पूर्वग्रह भरा नजरिया रखने का बिलकुल नहीं बनता.

कार्टून के नीचे ऐसा लिखा गया है : "संविधान बनाने की रफ़्तार को घोंघे की रफ़्तार बताने वाला कार्टून. संविधान के निर्माण में तीन वर्ष लगे. क्या कार्टूनिस्ट इसी बात पर टिप्पणी कर रहा है? संविधान सभा को अपना कार्य करने में इतना समय क्यों लगा?"

चित्र में आमजन का समूह कछुआ रुपी संविधान को बनते देख रहा है, इस कछुए पर हंटर ले डॉ आंबेडकर (व्यञ्जना-संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष रूपी मुखिया/वाहक) सवार हैं और पीछे से नेहरु (बतौर प्रधानमंत्री इस कार्य को संपन्न करने में संलग्नता) भी हंटर से ही कछुए को हांक रहे हैं. यानी, नेहरु और आंबेडकर दोनों संविधान को जल्द तैयार होते देखना चाहते हैं, जनता की तरह, पर परिस्थितियां ऐसी हैं कि लाख जतन के बावज़ूद संविधान के निर्माण की गति कच्छप की ही है.

जबकि कुछ अन्यार्थ लेकर अभी संसद के बाहर भीतर इस विषय पर भूचाल मची है.

आप यह पाठ/अध्याय पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि यहाँ कार्टूनिस्ट ने जो संविधान बनने में लगे दीर्घ समय पर व्यंग्य प्रस्तुत किया है उसको संविधान बनने की जटिल परिस्थितियों एवं गहन विचार-विमर्श के दौरों की जरूरत ने निरर्थक या कि गैरवाजिब साबित किया है. यानी कार्टूनिस्ट के व्यंग्य-विचार को पाठ ने निर्मूल साबित किया है. अतः छात्र भी यहाँ कार्टूनिस्ट के विचार से असहमत हो सकता है, अलग मंतव्य रख सकता है. यानी पाठ छात्रों में व्यंग्य की इक विश्लेषणात्मक समझ विकसित करने का उद्देश्य लेकर भी चलता है.

पुस्तक के मुख्य सलाहकार द्वय सुहास पलशीकर एवं योगेन्द्र यादव ने इसी पुस्तक में अन्तर्हित 'एक चिट्ठी आपके नाम' शीर्षक से संबोधित छात्रों के नाम अपने सन्देश में कार्टून पर अलग से बात भी की है जो काबिलेगौर है : "अनेक अध्यायों में 'कार्टून' दिए गए हैं. इन कार्टूनों का उद्देश्य महज हँसाना-गुदगुदाना नहीं है. ये कार्टून आपको किसी बात की आलोचना, कमजोरी और संभावित असफलता के बारे में बताते हैं. हमें आशा है कि आप इन कार्टूनों का मज़ा लेने के साथ साथ इनके आधारों पर राजनीति के बारे में सोचेंगे और बहस करेंगे."


सुहास पालसीकर और योगेन्द्र यादव का पत्र

Text of resignation letter written by Prof. Suhas Palshikar and Prof. Yogendra Yadav to the head of the National Council of for Educational Research and Training following Union Human Resource Development Minister Kapil Sibal's announcement that the government is withdrawing a political science textbook containing an “objectionable” cartoon of Babasaheb Ambedkar:
1.The textbook (‘Indian Constitution at Work') was first published in 2006 and so far has received appreciation from various quarters, scholars, educationists and students. This book is being taught since 2006 without change since then. The purpose of the textbook is to not only give reliable information but also to encourage students to think, and seek more information on their own. From this perspective, the textbook has included many additional elements besides the text; these include dialogues by two student characters, photographs, original documents (in facsimile), newspaper clippings and cartoons.
2. The cartoon on page 18 is by the famous cartoonist Shankar. This is a cartoon not done for the textbook but published at the time when the Constituent Assembly was working. It does not criticise or comment upon Dr. Ambedkar. It depicts Dr. Ambedkar as the one who is in charge of Constitution-making. Since the book has included many cartoons from that era, it is only natural that those cartoons depict many leaders of that time, including the makers of the Constitution.
3. However, the text on pages 17 and 18 amply elaborates why the making of the Constitution took considerable time, and what procedures were followed by the Assembly. It is also explained that deliberation and consensus were the key elements of Constitution-making.
4. In no way does the text or the cartoon denigrate or downplay the contribution of Dr. Babasaheb Ambedkar. Since this textbook is in continuation of the Standard X textbook, it assumes the knowledge about the role and contribution of Dr. Ambedkar. In the Standard X textbook, on page 48, Dr. Ambedkar's role is explained, and also a quotation from his speech is given for students to better understand his approach.
5. It may also be mentioned that the textbook had gone through very detailed scrutiny and finally was also vetted by a Monitoring Committee co-chaired by Professors Mrinal Miri and G.P. Deshpande. The national Monitoring Committee included, among others, Professors Gopal Guru and Zoya Hasan of JNU.
6. Before publication the textbook was also reviewed by many eminent scholars and was highly appreciated for its balanced treatment and student-friendly structure.
Suhas Palshikar, Professor, Department of Politics & Public Administration, University of Pune.
Yogendra Yadav, Senior Fellow, Centre for the Study of Developing Societies, Delhi.

1 comment:

  1. There is a need of self inspection instead of hue&cry with political interest ,perfection of constitution is based on our debate , accordance with of our time demand . reality provides perfection and affection ,these are the root cause of concerted democracy and Nation .Reliable
    and commendable post .thanks

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