सतीश आचार्य का कार्टून साभार |
पिछले साल अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के सहारे सारी फुटेज ले गए थे। इस साल आमिर खान आईबॉल मैग्नेट लेकर आए हैं। रविवार की सुबह कभी दूरदर्शन के कब्जे में हुआ करती थी। पर अब दूरदर्शन पीछे चला गया है। फिर भी उसकी पहुँच काफी है और राष्ट्रीय सवालों को लेकर उसकी अपील भी है। शायद इसीलिए उसे भी इसमें शामिल कर लिया गया। नब्बे मिनट के इस शो में विज्ञापनों के लिए पर्याप्त जगह रखी गई है। पर स्टार पर दूरदर्शन जैसा पनीला पॉपुलिज्म नहीं चलता। वहाँ शुद्ध व्यवसाय होता है। संयोग है कि जिस वक्त ब्रिटिश सांसद रूपर्ट मर्डोक को अंतरराष्ट्रीय कम्पनी चलाने में अनफिट घोषित कर रहे हैं, उसी वक्त उनकी भारतीय कम्पनी सत्य की विजय का संदेश लेकर आई है।
किसी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सवाल को लेकर कोई सेलेब्रिटी खड़ा हो तो उस तरफ ध्यान जाता ही है। समस्या इतनी बड़ी गहरी है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अन्याय इतना भारी है कि सहन नहीं होता। हकीकत बयानी इतनी साफ है कि मामले को समझने में देर नहीं लगती। और अपराधी इतने परिचित हैं कि उन पर गुस्सा आता है। आमिर का शो अपरिभाषित कैटेगरी का शो है। इसमें ओप्रा विनफ्रे शो की भावुकता है और समाचार चैनलों की पड़ताल भी। इसमें एक समाचार चैनल के स्टिंग ऑपरेशन को भी शामिल किया गया, जिसे तब इतनी प्रतिष्ठा नहीं मिली जो आज मिल रही है। यह बात सरसरी तौर पर निकल गई कि सात साल पहले प्रसारित उस स्टिंग ऑपरेशन को व्यवस्था पचा गई। शो में पेश किए गए तमाम पहलुओं और तथ्यों से हम वाकिफ हैं। पर आम दर्शक के लिए कुछ बातें नई थीं। मसलन स्त्री भ्रूण हत्या गरीबों और अनपढ़ों और आदिवासियों की समस्या नहीं है। पढ़े-लिखे ऊँचे घरानों की समस्या है। दूसरे न्याय और प्रशासनिक व्यवस्था ने अपराधियों में भय पैदा नहीं किया। और तीसरे मीडिया के कुछ लोगों ने मसले को उठाया तो उन्हें अदालतों में खींच लिया गया।
यह पहला एपीसोड था। अभी कम से कम बारह और आएंगे। समस्याओं की जड़ें गहरी हैं। समाधान इतने आसान नहीं। अलबत्ता ऐसे कार्यक्रम जनमत बना सकते हैं। पर क्या इस कार्यक्रम की स्पांसर कम्पनियों का उद्देश्य यही है? जब आमिर इस बात को लेकर आते हैं बाकायदा एक मार्केटिंग स्ट्रेटजी के साथ, तब बात दूर तक जाती है। और तभी मुख्यमंत्री को समझ में आता है कि कुछ करना चाहिए।
सत्यमेव जयते किसी समाचार चैनल का कार्यक्रम नहीं है। मनोरंजन शो है। आमिर खान एक स्क्रिप्ट के अनुसार चलते हैं, जिसके पीछे तमाम लोगों की रिसर्च, रिपोर्टिंग और लेखन का श्रम छिपा है। इसके तमाम पहलू सकारात्मक हैं। आमिर की फिल्मों की तरह यह परफेक्ट शो है। इसमें भारतीय पत्रकार, रिपोर्टर और रिसर्चर लगातार ऑब्जेक्टिव और प्रफेशनल तरीके से काम करते नज़र आएंगे। यह सारियल उनकी सफलता की कहानी भी लिखेगा। जब न्यूज़ चैनल मनोरंजन चैनलों की जगह ले रहे हैं, तब एक मनोरंजन चैनल उनके छोड़े गैप्स को भर रहा है। इसमें उसकी कितनी दिलचस्पी है और क्यों है यह बाद में पता लगेगा। याद आता है दूरदर्शन का कार्यक्रम जनवाणी जो अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा। समस्याओं की गहराई तक जाना हँसी-खेल नहीं है।
सामाजिक प्रश्नों पर सेलेब्रिटीज़ की मदद लेने के तमाम फायदे हैं। पल्स पोलियो कार्यक्रम संसार के सफलतम कम्युनिकेशन कार्यक्रमों में एक है। मिले सुर मेरा तुम्हारा और देशराग जैसे कार्यक्रम हमें काफी समय तक याद रहेंगे। पर सामाजिक जीवन में उतरे स्टार कलाकारों की हमारे जीवन में क्या भूमिका रही है इसे भी देखना चाहिए। हाल में सचिन तेन्दुलकर को राज्य सभा की सदस्यता देते वक्त क्या सवाल हमारे मन में नहीं आता कि तीस-बत्तीस चीजों का विज्ञापन करने वाले कलाकार संसद में किस प्रकार की भूमिका निभाएंगे? आमिर खान के सहारे पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान वोटर की जागृति का कार्यक्रम भी चलाया गया। अन्याय के प्रतिकार में नागरिकों से सामने आने की अपील करते भी आमिर खान नज़र आते हैं। क्या वे समस्याओं के समाधान में हमारी मदद करेंगे? और करेंगे तो किस किस्म की समस्याओं को सुलझाएंगे?
हाल में युनीसेफ के एक कार्यक्रम में एनडीटीवी की पत्रकार निधि कुलपति ने सुझाव दिया कि सामाजिक समस्याओं को टीवी सीरियलों का विषय बनाया जाए तो फर्क पड़ता है। वैश्वक गरीबी को लेकर अभिजित बनर्जी और एस्थर दूफ्लो की पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में ब्राज़ील का उदाहरण दिया है जहाँ के टीवी सीरियलों ने यह काम किया। कैथलिक देश ब्राज़ील में राज्य ने सायास परिवार नियोजन को बढ़ावा देने के काम से खुद को अलग किया। वहाँ टेलीविज़नखासा लोकप्रिय है, खासतौर से टेलीनोवेला (सोप ऑपेरा) जो मुख्य चैनल रीडे ग्लोबो में प्राइम टाइम पर प्रसारित होते हैं। टेलेनोवेला के दर्शकों की संख्या बढ़ने के साथ 1970 के दशक से 1990 के दशक तक रीडे ग्लोबो की पहुँच में नाटकीय विस्तार हुआ। 1980 के दशक में टेलीनोवेलाओं की लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष के दौर में इन सोप ऑपेराओं के पात्र क्लास और सामाजिक बर्ताव के मामले में आम ब्राज़ीली से फर्क थे। 1970 के आसपास एक औसत ब्राजीली महिला की छह संतानें होती थीं। जबकि सोप ऑपेराओं में पचास तक की उम्र के स्त्री पात्रों की कोई संतान नहीं होती और बाकी की एक संतान होती। जिस इलाके में सोप ऑपेरा देखे जाते वहाँ जन्म दर में तेज गिरावट देखने को मिलती। यही नहीं स्त्रियां अपने बच्चों के नाम सोप ऑपेरा के पात्रों के नाम पर रखने लगीं।...ब्राजील के सुस्त शुद्धाचारी संयमी समाज में सोप ऑपेरा ने अनेक रचनात्मक और प्रगतिशील कलाकारों को अभिव्यक्ति का मौका दिया। क्या ऐसा मौका हमारे यहाँ नहीं मिला?
आमिर के शो के साथ स्टार के नए-पुराने टीवी सीरियल्स को देखें। उनके पात्र हमें क्या प्रेरणा देते हैं? आमिर के शो को सफल बनाने में कई तरह के लोगों ने मदद की है। इनमें बगैर साधनों के काम करने वाले पत्रकार भी है। प्रसून जोशी ने इसके लिए अच्छे गीत लिखे हैं। पर वे एलीट कवि हैं। बॉलीवुड में उनके अलावा गुलज़ार और जावेद अख्तर और परिचित कवि हैं। साहिर लुधयानवी, कैफी आज़मी और जांनिसार अख्तर ऐसे नहीं थे। सीरियलों पर पहनावे और पृष्ठभूमि के साथ-साथ उच्चभ्रू संस्कृति भी हावी है। अच्छी पड़ताल और चुस्त प्रतुति के साथ चीजें बनाई जाएं तो दर्शक स्वागत करेंगे। हमारे चैनलों पर जो निरर्थक चीजें दिखाई पड़ती हैं उसकी एक वजह यह भी है कि समझदार पड़ताल में समय लगता है और साधन भी। गुण-दोष की नीर-क्षीर जानकारी देने के लिए डिसर्निंग दर्शक और कुशल मीडिया दोनों की दरकार है। अभी हम निर्मल बाबा के दरबार और सत्यमेव जयते में फर्क करना नहीं जानते। दोनों में आकुल-व्याकुल जनता है जो समाधान चाहती है।
जनवाणी में प्रकाशित
सीएनएन आईबीएन पर छोटी सी चर्चा Can a film star bring social change?
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सामाजिक मुद्दों को आय का साधन बनाया जा रहा है और नासमझ इसमें क्रांति देख रहे हैं.
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