हर चुनाव का कोई सबक होता है और हर चुनाव ऐतिहासिक होता है। पार्टियों का व्यवहार बताता है कि सबक कितनी ईमानदारी से लिया गया। इस बार के चुनाव में खास तौर से उत्तर प्रदेश में एंटी इनकम्बैंसी का फायदा लेने के लिए सिर्फ सपा ही तैयार नज़र आई, कांग्रेस और भाजपा कभी इस दौड़ में दिखाई नहीं दी। इसी बीजेपी का गोवा नेतृत्व सत्ता हाथ में लेने को तैयार नज़र आया। पंजाब में अमरेन्द्र सिंह भी विकल्प के रूप में आगे नहीं बढ़े। देश के चुनींदा अखबारों की सम्पादकीय टिप्पणियाँ दो बातों की ओर इशारा कर रही हैं। एक तो यह कि ये परिणाम कांग्रेस के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा दुखद हैं और दूसरे सत्तापक्ष के बराबर ही विपक्ष की भूमिका होती है। उसका काम है सत्ता की कमज़ोरियों पर से पर्दा उठाना। लोकतंत्र का काम तभी पूरा होता है। हिन्दू के सम्पादकीय में इस बात की ओर इशारा किया गया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की निगाह में इस चुनाव ने पहचान की राजनीति को परास्त किया है। कहना मुश्किल है कि सपा और बसपा ने इस संदेश को ग्रहण किया है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार समाजवादी पार्टी को अब कमान अखिलेश के हाथों में सौंप देनी चाहिए।
कोलकाता के टेलीग्राफ ने भी इस बात की ओर इशारा किया है कि उत्तर प्रदेश में वोटर को न सिर्फ यह पता था कि मायावती को हटाना है बल्कि उसे यह भी समझ में आ रहा था कि सपा को लाना है। पायनियर अपनी भाजपा समर्थक लाइन के अनुरूप इस बात पर जोर दे रहा है कि यह कांग्रेस की हार है।
सोनिया गांधी के इस आकलन से सहमत होना कठिन है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों से संप्रग सरकार को कोई नुकसान नहीं होने वाला। नि:संदेह इन चुनाव परिणामों से केंद्र सरकार के लिए सीधे तौर पर कोई खतरा नहीं, लेकिन यह तो तय ही है कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता में कोई वृद्धि नहीं होने जा रही है। एक ऐसे समय जब नीतिगत मामलों में विरोधी दलों की राज्य सरकारों से सहयोग न मिल रहा हो और यहां तक कि सहयोगी दल भी बाधाएं खड़ी कर रहे हों तब राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य में कांग्रेस का एक तरह से जहां का तहां रहना उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता के लिए शुभ कैसे हो सकता है? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पांच राज्यों में से उत्तर प्रदेश में ही कांग्रेस की प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा दांव पर लगी हुई थी। राहुल गांधी ने न केवल पूरी ताकत झोंक दी थी, बल्कि चुनाव प्रचार की कमान भी खुद अपने हाथों में ले रखी थी। इतना ही नहीं पार्टी की ओर से 22 साल बाद सत्ता में लौटने के दावे किए जा रहे थे और वह भी अपने बलबूते। एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस पंजाब में भी खेत रही है और गोवा में भी। उत्तराखंड में वह भले ही सरकार बनाने को आतुर हो, लेकिन यहां भी उसका प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। क्या केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने वाला राष्ट्रीय दल केवल मणिपुर में अपनी जीत से संतुष्ट है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर उसे अपनी पराजय की सही तरह से समीक्षा करनी चाहिए। सोनिया गांधी का यह कहना सही हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में संगठन की कमजोरी और प्रत्याशियों के चयन में गड़बड़ी से पार्टी को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन यदि यह सही भी है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सवाल यह भी है कि क्या 2009 के लोकसभा चुनाव के समय संगठन मजबूत था, जब कांग्रेस को अप्रत्याशित जीत हासिल हुई थी? सोनिया गांधी की मानें तो खराब प्रदर्शन के पीछे महंगाई भी एक कारण हो सकती है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें इसे लेकर संशय है कि यह वास्तव में हार की ठोस वजह है या नहीं? इन चुनावों में भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने संबंधी सवाल पर सोनिया गांधी ने दावा किया कि कांग्रेस अकेली पार्टी है जो भ्रष्टाचार से लड़ रही है। यदि वास्तव में ऐसा है तो फिर एक के बाद एक घोटाले क्यों हुए? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि उन्हें रोका क्यों नहीं जा सका? उन्होंने प्रधानमंत्री के हटने संबंधी सवाल पर दो टूक कहा कि इसका सवाल ही नहीं उठता। यह अच्छी बात है कि वह प्रधानमंत्री के साथ खड़ी हैं, लेकिन उन्हें उन कारणों की पड़ताल करनी होगी जिनके चलते केंद्रीय सत्ता अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही है। कोई तो कारण होगा जिनके चलते प्रधानमंत्री अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्र यानी आर्थिक मामलों में भी आगे बढ़ने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। केंद्र सरकार की निर्णय क्षमता पर तो प्रश्नचिह्न लग ही रहे हैं, देश-दुनिया को लगातार यह संदेश जा रहा है कि वह निर्णयहीनता से ग्रस्त हो गई है। यह कांग्रेस के लिए बेहद कठिन समय है। ऐसा समय आगे भी जारी रह सकता है यदि कांग्रेस आम जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती। वह लोगों का भरोसा तब तक नहीं जीत सकती जब तक केंद्रीय सत्ता सुशासन के रास्ते पर नहीं आती।
यह सभी मान रहे थे कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, लेकिन उसे इतना बड़ा बहुमत मिलेगा, यह बहुत कम लोग ही सोच रहे थे। एक पार्टी को पूर्ण बहुमत देकर मतदाताओं ने यह आश्वस्ति कर ली है कि पांच साल तक स्थिर शासन चलेगा और सत्तारूढ़ पार्टी के पास अच्छा प्रशासन न देने का कोई बहाना नहीं होगा। पंजाब में यह माना जा रहा था कि सत्तारूढ़ अकाली-भाजपा गठबंधन छोटे-मोटे अंतर से ही सही, फिर से सरकार नहीं बना पाएगा, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन ने कांग्रेस को अच्छे-खासे अंतर से मात दे दी है।
उत्तराखंड में भी यह माना जा रहा था कि रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के दौर के भ्रष्टाचार और कुशासन का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ेगा और कांग्रेस को साफ विजय हासिल होगी। नतीजों ने इस कयास पर भी पानी फेर दिया। गोवा में भाजपा ने भारी जीत हासिल की। सिर्फ मणिपुर में कांग्रेस को निर्विवाद जीत हासिल हुई है। कुल जमा इन चुनावों में सबसे भारी नुकसान कांग्रेस को हुआ है, जिसे यह उम्मीद थी कि इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन केंद्र की सरकार को कुछ ताकत प्रदान करेगा, जो कई भीतरी मुसीबतों से घिरी रहती है।
भाजपा का प्रदर्शन भी बहुत अच्छा नहीं रहा है, बावजूद इसके कि दो राज्यों में उसका प्रदर्शन आशा से बेहतर रहा है और पंजाब में भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद वह सत्ता की भागीदार बनी रहेगी। उत्तर प्रदेश में उसे सिर्फ यह संतोष रहेगा कि उसका प्रदर्शन कितना ही खराब हो, कांग्रेस से वह आगे है। इन चुनावों ने फिर से मतदाताओं के उसी रुझान को व्यक्त किया है, जो पिछले कुछ वर्षो में दिखाई पड़ता रहा है। ऐसा नहीं है कि जाति और भावनात्मक मुद्दे मतदाता को प्रभावित नहीं करते, लेकिन अब मतदाता सिर्फ जाति के नाम पर या भावनात्मक जुड़ाव के नाम पर वोट नहीं देता, वह ठोस जमीनी परिणाम चाहता है।
अब चुनावी मुद्दे आर्थिक विकास से और अच्छे प्रशासन से जुड़े हुए हैं, अगर इन कसौटियों पर कोई पार्टी खरी उतरती है, तभी उसे वोट मिलता है। जिन पार्टियों या राजनेताओं ने वक्त में बदलाव को समझ लिया है और अपने को उसके मुताबिक ढाल लिया है, वे सफल हुए हैं और जो नहीं समझ पाए, वे नहीं जीत सके।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण उत्तर प्रदेश है। 2007 के चुनावों ने समाजवादी पार्टी को जमीन पर उतार दिया था। इसे बाहुबलियों व माफिया की पार्टी मान लिया गया था, जिसका कोई विकास का एजेंडा नहीं था। मुलायम सिंह यादव के सुपुत्र अखिलेश यादव ने यह स्थिति बदली, उन्होंने बाहुबलियों व अपराधियों को पार्टी से दूर किया और जनता को आधुनिक विकास तथा अच्छे प्रशासन का संदेश दिया। सपा की जीत अखिलेश के नए अंदाज और शैली की जीत है। बसपा के राज में विकास भी काफी हुआ और गुंडागर्दी पर भी लगाम लगी, लेकिन जनता उगाही के किस्सों से आजीज आ गई और उसने पार्टी को बड़ा झटका दिया।
अगर बसपा अगले पांच साल में अपने को बदलती है, तो उसे अगले चुनाव में उम्मीद हो सकती है। कांग्रेस को अलबत्ता बहुत सख्त आत्मनिरीक्षण करना होगा। समस्या यह है कि राहुल गांधी हालांकि ईमानदार और गंभीर नेता दिखते हैं, लेकिन जो संदेश वह जनता तक पहुंचाते हैं, वह चालीस बरस पुराने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे का नया रूप दिखता है। इस दौरान देश काफी आगे जा चुका है और अब लोगों की उम्मीदें दूसरी हैं। फिर स्टार प्रचारक कितने ही चमकदार हों, वे जमीनी संगठन और नेताओं का विकल्प नहीं हो सकते। जनता का संदेश साफ है- वह पार्टियों और नेताओं से ठोस काम और जवाबदेही चाहती है और भावनात्मक वजहों से रियायत करने का उसका इरादा नहीं है।
कोलकाता के टेलीग्राफ ने भी इस बात की ओर इशारा किया है कि उत्तर प्रदेश में वोटर को न सिर्फ यह पता था कि मायावती को हटाना है बल्कि उसे यह भी समझ में आ रहा था कि सपा को लाना है। पायनियर अपनी भाजपा समर्थक लाइन के अनुरूप इस बात पर जोर दे रहा है कि यह कांग्रेस की हार है।
Five verdicts, one lesson
Anti-incumbency is one word for many failures. While
electors have different reasons to vote out a government, these are usually
massed together under this catch-all concept. Even so, this intangible factor
is of great explanatory value to the 2012 Assembly elections, which actually
threw up mixed results: Uttar Pradesh and Goa bringing about regime change,
Punjab and Manipur voting for continuity and Uttarakhand leaving no one with a
clear majority. Just as Mulayam Singh Yadav's Samajwadi Party consolidated the
anti-Bahujan Samaj Party votes in Uttar Pradesh, so did the Bharatiya Janata
Party the anti-ruling party votes in Goa. In Punjab and Uttarakhand, the
Congress failed to do what the SP and the BJP did: attract sizeable sections of
those wanting to vote against the incumbent. Punjab 2012 was an election for
the Congress to lose. Since the reorganisation of the State in 1966, no party
has managed to retain power in Punjab. But, although the Akali Dal-BJP combine
lost a part of its vote share, the Congress gained nothing. The votes went to
the Akali breakaway, People's Party of Punjab, founded by the estranged nephew
of Chief Minister Parkash Singh Badal. The development plank the Akali Dal
chose over its traditional religious platform might have yielded some benefits,
but, unmistakably, the Congress failed to bring together all the anti-Akali
votes. For many, the Congress under Amarinder Singh was not the alternative
they were looking for. In Uttarakhand, similarly, the Congress could not pack a
killer punch; despite edging ahead of the BJP, the party was left having to try
and cobble together a majority.
Goa was a different story, where the BJP made good use of
its years in the opposition. Manohar Parrikar, as Leader of the Opposition, was
in the forefront of efforts to expose the illegal mining scam. The Congress and
its outgoing Chief Minister, Digambar Kamat, were entangled in controversies
over mining irregularities and Mr. Parrikar kept up the pressure until the very
end. The BJP made the opposition space its own, raising development issues
while attacking the government on corruption and nepotism. In contrast, the
Congress in Punjab and Uttarakhand behaved as though any benefit from an
anti-incumbency sentiment would automatically accrue to it. Unlike the other
four States, Manipur was in a category of its own, voting back the Congress
with a thumping majority. The ruling party had no opposition worth the name.
For opposition parties to take advantage of any anti-incumbency sentiment, they
will have to expose each and every failure of the government, highlighting all
acts of omission and commission adversely affecting people's welfare. Waiting
out five years is not enough.
Mandate’s Message
The outcome of 2012's assembly elections carries big
lessons. Voters, yet again, have refused to be taken for granted by poll-eve
dispensers of quotas and other forms of state paternalism. And they have
rejected the politics of symbolism favoured by arrogant and inaccessible
power-wielders. So, the first takeaway for the political class is that identity
politics has its limits. Else, the Samajwadi Party in UP wouldn't have got the
decisive mandate cutting across caste and community that it has.
Nor is it surprising that the Congress is a big loser in
this round of assembly polls. It unabashedly indulged in quota politics in UP,
besides complacently banking on anti-incumbency to aid it elsewhere. Yet,
neither Salman Khurshid's gimmicky skirmishes with the Election Commission over
minority reservations nor Digvijay Singh's cynical resort to the politics of
grievance - take his references to the Batla House controversy - impressed UP's
Muslims. 'Mahadalits' too weren't swayed by pledges of special treatment. The
dynasty-driven party also tripped up by expecting Nehru-Gandhi charisma alone
to work magic. That it's made little serious attempt at grassroots revival over
the years merely bolstered the SP's chances.
The second lesson is that, beyond a point, aam admi won't
rest content with vicarious consumption of the fruits of growth and
development. They want the real thing. Mayawati seemed to think that
self-promoting monuments to "dalit pride" made up for uneven
provision of bijli-sadak-paani, hospitals and schools in a mammoth state where
many regions remain poor and backward. The electorate had other ideas. Her
ouster is a warning to all those who rely on a destructive mix of
authoritarianism, parochialism and populism, such as Bengal's Mamata Banerjee.
For, people across the country increasingly want a governance style that brings
about tangible improvements in their material conditions of living. There's
just no getting away from the need for broad-based, secular governance agendas
that treat citizens as individuals to be empowered rather than supplicants for
patronage.
Will the winners in these state elections deliver? It's in
their interest to do so, given voters are punishing business-as-usual -
developmental shortfalls, poor services delivery, administrative apathy,
corruption, vote-bank politicking - repeatedly. And will the Congress wake up?
It must start by not misreading the poll results as a justification to turn
populist in the upcoming budget. If anything, the Centre must now resolutely
push systemic reform, jettisoning a socio-economically harmful dole culture and
relying on business-friendly policies to raise resources for well-targeted
spending on education, health and infrastructure. Youth-driven India's
burgeoning popular aspirations should drive home the urgent need for more
inclusive growth and accelerated development. The budget is the UPA's chance to
show that it not only understands this, but also has the political will to act.
New UP, new CM
Akhilesh Yadav delivered his party the seats, it should now
give him the keys to the govt
As the Samajwadi Party decides on its chief minister, there
are many reasons to choose Akhilesh Yadav. On the rath and on the bicycle, he
led the SP’s long and arduous campaign for the state. Two, in a party with
major legacy issues, Akhilesh is the only leader with a clean slate. In its
last tenure in government, the SP deservedly earned itself a bad name for
“goonda raj”, or the virtual outsourcing of the thana to SP goons. UP was rife
with stories of cadres of the ruling party wantonly unleashing brute force, and
of the administration colluding in their misdemeanour or just standing by.
Those memories haven’t faded in UP and the SP must be warned that incidents
like the post-victory rampage by party workers are likely to resurrect them.
Yet, one of the main reasons why UP’s aam admi, alienated from the Mayawati
regime, suspended disbelief to give the SP another chance was this: Akhilesh
lends a certain credibility to his party’s acknowledgment that it erred on the
law-and-order front and to its promise that those mistakes would not be
repeated. He has pledged not just a softer, but also a more modern version of
the SP. He has been responsible for talking down its anti-English,
anti-computer message, be it with the “let them have laptops” poll promise, or
his insistence that the SP was not against English, only committed to the
spread of Hindi and Urdu.
Of course, it is possible to overestimate the importance of
Akhilesh Yadav. The SP may yet go back on his word. It could also be that the
party is irreversibly in transition, irrespective of Akhilesh. The focus on him
may be projecting agency on someone who is only taking the cue from a larger
change that is afoot in UP, requiring its political parties to talk to the
voter in a more forward-looking language. Having said that, however, it must
also be acknowledged that whether by design or by accident, it is Akhilesh, and
not Mulayam Singh Yadav, who is seen as the face of a changing SP. In popular
perception, therefore, it is Akhilesh who will be held accountable should the
project be reversed or aborted midway.
It is only in India that a politician can be seen to be only
38. Given the way Akhilesh led his party’s campaign, it would be a travesty if
he had to bide his time because his father’s friends refuse to make space for
him. That would be against the mandate the voter has given to the Samajwadi
Party.
CHANGE IN FLAG
Elections in Uttar
Pradesh, even when they are for the state assembly, are invariably endowed with
a special significance. They are seen as indicators of political trends going
beyond the province of UP. State elections are often seen, as indeed they were this
time, as a semi-final to the national polls. The elections just concluded also
had a special importance because Rahul Gandhi decided to lead the Congress
campaign and make UP his testing ground. It is undeniable that the results of
the UP elections are dramatic since the people of UP chose to completely
overthrow the government led by the Bahujan Samaj Party and Mayavati. The
verdict is unambiguous: the majority of the voters wanted the Samajwadi Party
to form the new government. It is easy to read this as an anti-incumbency
verdict but the scale of the Samajwadi Party's victory suggests something a
little deeper. The voters not only wanted Ms Mayavati to be dislodged from
power, but they were also clear about who they wanted in power. They did not waste
their votes by pushing the buttons in favour of the Congress and the Bharatiya
Janata Party which, they knew, were not contenders for forming a government.
Attempts to explain the poor performance of the Congress in terms of giving
tickets to wrong candidates overlook the most significant feature of the UP
election results.
The resounding success of
the Samajwadi Party is to a large measure due to the overwhelming support it
received from the Muslims. The Congress tried to woo the Muslim vote through
the usual ploy of offering sops. The offer was rejected perhaps because it was
seen as disingenuous. More importantly , in the rejection is probably embedded
a clue to the way Indian politics is changing, especially in the rural world.
The politics of patronage and sops is slowly but surely giving way to choices
made on the basis of a sense of empowerment and aspirations. The old rhetoric
no longer persuades voters. It will also be an error to write off Ms Mayavati
as a political force. Her constituency, the Dalits, is a powerful presence
without which no future of UP can be scripted.
Only the very naïve or
the utterly prejudiced will see the Samajwadi Party as the herald of good
governance. Empowerment has given the Samajwadi Party another innings; that
same empowerment could refuse it another chance if it fails to meet at least
some of the aspirations of the people. The days of blind faith belong clearly
to the past.
नतीजों का असर
सोनिया गांधी के इस आकलन से सहमत होना कठिन है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों से संप्रग सरकार को कोई नुकसान नहीं होने वाला। नि:संदेह इन चुनाव परिणामों से केंद्र सरकार के लिए सीधे तौर पर कोई खतरा नहीं, लेकिन यह तो तय ही है कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता में कोई वृद्धि नहीं होने जा रही है। एक ऐसे समय जब नीतिगत मामलों में विरोधी दलों की राज्य सरकारों से सहयोग न मिल रहा हो और यहां तक कि सहयोगी दल भी बाधाएं खड़ी कर रहे हों तब राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य में कांग्रेस का एक तरह से जहां का तहां रहना उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता के लिए शुभ कैसे हो सकता है? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पांच राज्यों में से उत्तर प्रदेश में ही कांग्रेस की प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा दांव पर लगी हुई थी। राहुल गांधी ने न केवल पूरी ताकत झोंक दी थी, बल्कि चुनाव प्रचार की कमान भी खुद अपने हाथों में ले रखी थी। इतना ही नहीं पार्टी की ओर से 22 साल बाद सत्ता में लौटने के दावे किए जा रहे थे और वह भी अपने बलबूते। एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस पंजाब में भी खेत रही है और गोवा में भी। उत्तराखंड में वह भले ही सरकार बनाने को आतुर हो, लेकिन यहां भी उसका प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। क्या केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने वाला राष्ट्रीय दल केवल मणिपुर में अपनी जीत से संतुष्ट है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर उसे अपनी पराजय की सही तरह से समीक्षा करनी चाहिए। सोनिया गांधी का यह कहना सही हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में संगठन की कमजोरी और प्रत्याशियों के चयन में गड़बड़ी से पार्टी को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन यदि यह सही भी है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सवाल यह भी है कि क्या 2009 के लोकसभा चुनाव के समय संगठन मजबूत था, जब कांग्रेस को अप्रत्याशित जीत हासिल हुई थी? सोनिया गांधी की मानें तो खराब प्रदर्शन के पीछे महंगाई भी एक कारण हो सकती है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें इसे लेकर संशय है कि यह वास्तव में हार की ठोस वजह है या नहीं? इन चुनावों में भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने संबंधी सवाल पर सोनिया गांधी ने दावा किया कि कांग्रेस अकेली पार्टी है जो भ्रष्टाचार से लड़ रही है। यदि वास्तव में ऐसा है तो फिर एक के बाद एक घोटाले क्यों हुए? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि उन्हें रोका क्यों नहीं जा सका? उन्होंने प्रधानमंत्री के हटने संबंधी सवाल पर दो टूक कहा कि इसका सवाल ही नहीं उठता। यह अच्छी बात है कि वह प्रधानमंत्री के साथ खड़ी हैं, लेकिन उन्हें उन कारणों की पड़ताल करनी होगी जिनके चलते केंद्रीय सत्ता अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही है। कोई तो कारण होगा जिनके चलते प्रधानमंत्री अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्र यानी आर्थिक मामलों में भी आगे बढ़ने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। केंद्र सरकार की निर्णय क्षमता पर तो प्रश्नचिह्न लग ही रहे हैं, देश-दुनिया को लगातार यह संदेश जा रहा है कि वह निर्णयहीनता से ग्रस्त हो गई है। यह कांग्रेस के लिए बेहद कठिन समय है। ऐसा समय आगे भी जारी रह सकता है यदि कांग्रेस आम जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती। वह लोगों का भरोसा तब तक नहीं जीत सकती जब तक केंद्रीय सत्ता सुशासन के रास्ते पर नहीं आती।
जनता का फैसला
यह सभी मान रहे थे कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, लेकिन उसे इतना बड़ा बहुमत मिलेगा, यह बहुत कम लोग ही सोच रहे थे। एक पार्टी को पूर्ण बहुमत देकर मतदाताओं ने यह आश्वस्ति कर ली है कि पांच साल तक स्थिर शासन चलेगा और सत्तारूढ़ पार्टी के पास अच्छा प्रशासन न देने का कोई बहाना नहीं होगा। पंजाब में यह माना जा रहा था कि सत्तारूढ़ अकाली-भाजपा गठबंधन छोटे-मोटे अंतर से ही सही, फिर से सरकार नहीं बना पाएगा, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन ने कांग्रेस को अच्छे-खासे अंतर से मात दे दी है।
उत्तराखंड में भी यह माना जा रहा था कि रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के दौर के भ्रष्टाचार और कुशासन का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ेगा और कांग्रेस को साफ विजय हासिल होगी। नतीजों ने इस कयास पर भी पानी फेर दिया। गोवा में भाजपा ने भारी जीत हासिल की। सिर्फ मणिपुर में कांग्रेस को निर्विवाद जीत हासिल हुई है। कुल जमा इन चुनावों में सबसे भारी नुकसान कांग्रेस को हुआ है, जिसे यह उम्मीद थी कि इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन केंद्र की सरकार को कुछ ताकत प्रदान करेगा, जो कई भीतरी मुसीबतों से घिरी रहती है।
भाजपा का प्रदर्शन भी बहुत अच्छा नहीं रहा है, बावजूद इसके कि दो राज्यों में उसका प्रदर्शन आशा से बेहतर रहा है और पंजाब में भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद वह सत्ता की भागीदार बनी रहेगी। उत्तर प्रदेश में उसे सिर्फ यह संतोष रहेगा कि उसका प्रदर्शन कितना ही खराब हो, कांग्रेस से वह आगे है। इन चुनावों ने फिर से मतदाताओं के उसी रुझान को व्यक्त किया है, जो पिछले कुछ वर्षो में दिखाई पड़ता रहा है। ऐसा नहीं है कि जाति और भावनात्मक मुद्दे मतदाता को प्रभावित नहीं करते, लेकिन अब मतदाता सिर्फ जाति के नाम पर या भावनात्मक जुड़ाव के नाम पर वोट नहीं देता, वह ठोस जमीनी परिणाम चाहता है।
अब चुनावी मुद्दे आर्थिक विकास से और अच्छे प्रशासन से जुड़े हुए हैं, अगर इन कसौटियों पर कोई पार्टी खरी उतरती है, तभी उसे वोट मिलता है। जिन पार्टियों या राजनेताओं ने वक्त में बदलाव को समझ लिया है और अपने को उसके मुताबिक ढाल लिया है, वे सफल हुए हैं और जो नहीं समझ पाए, वे नहीं जीत सके।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण उत्तर प्रदेश है। 2007 के चुनावों ने समाजवादी पार्टी को जमीन पर उतार दिया था। इसे बाहुबलियों व माफिया की पार्टी मान लिया गया था, जिसका कोई विकास का एजेंडा नहीं था। मुलायम सिंह यादव के सुपुत्र अखिलेश यादव ने यह स्थिति बदली, उन्होंने बाहुबलियों व अपराधियों को पार्टी से दूर किया और जनता को आधुनिक विकास तथा अच्छे प्रशासन का संदेश दिया। सपा की जीत अखिलेश के नए अंदाज और शैली की जीत है। बसपा के राज में विकास भी काफी हुआ और गुंडागर्दी पर भी लगाम लगी, लेकिन जनता उगाही के किस्सों से आजीज आ गई और उसने पार्टी को बड़ा झटका दिया।
अगर बसपा अगले पांच साल में अपने को बदलती है, तो उसे अगले चुनाव में उम्मीद हो सकती है। कांग्रेस को अलबत्ता बहुत सख्त आत्मनिरीक्षण करना होगा। समस्या यह है कि राहुल गांधी हालांकि ईमानदार और गंभीर नेता दिखते हैं, लेकिन जो संदेश वह जनता तक पहुंचाते हैं, वह चालीस बरस पुराने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे का नया रूप दिखता है। इस दौरान देश काफी आगे जा चुका है और अब लोगों की उम्मीदें दूसरी हैं। फिर स्टार प्रचारक कितने ही चमकदार हों, वे जमीनी संगठन और नेताओं का विकल्प नहीं हो सकते। जनता का संदेश साफ है- वह पार्टियों और नेताओं से ठोस काम और जवाबदेही चाहती है और भावनात्मक वजहों से रियायत करने का उसका इरादा नहीं है।
A non BJP Non Congress government now is the need of common men of this country. National parties lost their credability among common men. Regional parties will only rule in states and central politics will go under coaliation. Now a time has come for a strong third front in centre without BJP and Congress. NDA and UPA-1 is the best example when common men were relatively more comfortable than Now.
ReplyDeleteThanks for people of Uttar Pradesh , who voted for clear mandate for Samajvadi Party.
It shows Country need a third alternative other than Congress and BJP at Centre also.
Good Governance and Development with social Justice and corruption free administration are need of people of this country now. Political party who are ready to come under this sphare , will definetly win.
Raj Kishore Yadava , Patna , Bihar. 9431024439
आज का वोटर बहुत जागरूक हो चला है. इसमें इलेक्ट्रोनिक मीडिया का काफी योगदान है. दूसरे अब पहले की भाँती 'बूथ कैप्चरिंग' संभव नहीं है. इसलिए जो भी नतीजे आये हैं वह साफ़ बता रहे हैं की नेता सावधान. यदि पांच साल में काम नहीं करके दिखाया तो तुम्हारा पत्ता साफ़ हो जाएगा! वोटर तो तो अब समझदार हो चले हैं, पर अभी नेताओं को यह समझने में कमसे कम १० वर्ष और लगेंगे.
ReplyDeleteहालाँकि भ्रष्टाचार चहु ओर है, फिर भी मिडिया बेहतरीन भूमिका निभा रहा है...
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
-Good piece of information.
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