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Friday, January 20, 2012

नए गठबंधनों को जन्म देगा उत्तर प्रदेश


पिछले साल का राजनीतिक समापन राज्यसभा में लोकपाल बिल को लेकर पैदा हुए गतिरोध के साथ हुआ था। वह गतिरोध जारी है। यूपीए के महत्वपूर्ण सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के साथ शुरू हुआ टकराव अनायास नहीं था। और यह टकराव लगातार बढ़ रहा है। आने वाले वक्त की राजनीति और नए बनते-बिगड़ते समीकरणों की आहट सुनाई पड़ने लगी थी। पाँच राज्यों के चुनाव के शोर में ये आहटें नेपथ्य में चली गईं है। पर लगता है कि इस साल राष्ट्रीय राजनीति में कुछ बड़े फेरबदल होंगे, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उतरने वाले गठबंधनों को नई शक्ल देंगे।

इस साल राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव होंगे, उसके बाद जून में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना है। भाजपा अध्यक्ष पद पर नितिन गडकरी का कार्यकाल भी इस साल के अंत में पूरा हो जाएगा। और यदि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में किसी नए नेतृत्व के साथ उतरना चाहती है तो शायद प्रधानमंत्री पद पर बदलाव भी हो। इन सारे बदलावों का एक-दूसरे से कोई रिश्ता नहीं, पर इनका मिला-जुला असर देश की राजनीति और व्यवस्था पर पड़े बगैर नहीं रहेगा।


देश को अब उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों का इंतज़ार है। कांग्रेस को पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश से खुशखबरी आने की आशा है। तीनों राज्य कांग्रेस के हाथ से निकले हुए हैं। पंजाब और उत्तराखंड में एंटी इनकम्बैंसी काम कर सकती है। दोनों राज्यों में कांग्रेस के आसार अच्छे हैं। अलबत्ता त्तराखंड में खंडूरी जी की अच्छी छवि के सहारे भाजपा अपनी इज्जत बचा ले तो आश्टर्य नहीं होना चाहिए।

असली चुनाव उत्तर प्रदेश का है। पिछले चार साल से राहुल गांधी लगातार उत्तर प्रदेश पर काम कर रहे हैं। सन 2009 के चुनाव में राहुल गांधी की कोशिशों का फायदा मिला भी। पिछले साल अन्ना हजारे आंदोलन के कारण पार्टी की छवि पर कितना असर पड़ा है इसका जवाब भी उत्तर प्रदेश में मिलेगा। राहुल गांधी अपने कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि हमारी सरकार आने वाली है। उनके आत्मविश्वास की वजहें होंगी, पर शायद ही कोई होगा जो मान ले कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन सकती है। एक चुनाव सर्वेक्षण में कांग्रेस को 68 सीटें दिखाई गईं तो कार्यकर्ताओं को वह बड़ी विजय लगी। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 18.25 फीसदी वोट और लोकसभा की 21 सीटें मिली थीं। उस सफलता ने पार्टी के आत्मविश्वास को बढ़ाया है। पर विधानसभा चुनाव के मसले अलग होते हैं और मतदान का तरीका भी अलग होता है।

उत्तर प्रदेश की तस्वीर देखें तो दो बातें साफ दिखाई पड़ रहीं हैं। एक बसपा का पराभव निकट है। यह पार्टी यों भी एक व्यक्ति पर केन्द्रित है। प्रदेश की सत्ता में रहने के कारण उसका जो भी आभा मंडल बना था वह पिछले कुछ दिनों में टूट गया है। पार्टी ने अनेक प्रत्याशियों के टिकट बदल कर एक और मुसीबत मोल ले ली है। इससे पार्टी के भीतर बगावत के स्वर हैं। इन बातों के पार्टी के कोर वोटर पर असर नहीं पड़ता, पर कोर वोटर के कारण यह पार्टी सत्ता में नहीं आती। उनके सहारे महत्वपूर्ण पार्टी बनती है।

बसपा के विपरीत समाजवादी पार्टी इस बार बेहतर संगठित है। पार्टी ने अखिलेश यादव को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके उन्हें ताकतवर बनाने के साथ-साथ संगठन के भीतर पनप रहे संदेहों को भी खत्म कर दिया है। जैसा कि लगता है स्पष्ट बहुमत किसी को मिलने वाला नहीं है। इसलिए प्रदेश के सम्भावित गठजोड़ का अनुमान भी लगा लेना चाहिए। सपा-कांग्रेस-रालोद गठजोड़ सहज रूप में ध्यान में आता है। पर इससे जुड़े कुछ सवाल हैं। कांग्रेस क्या इस गठजोड़ में छोटे भाई के रूप में शामिल होगी? क्या राहुल गांधी मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहेंगे? सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस राहुल को प्रादेशिक नेता ही बनाए रखना चाहेगी? और यह भी कि प्रियंका गांधी का इस्तेमाल कांग्रेस क्यों नहीं करना चाहती? संकेत यह भी है कि कांग्रेस प्रधानमंत्री पद पर बदलाव करेगी। पर,कांग्रेस में कौन ऐसा नेता है जिसे प्रधानमंत्री बनाया जा सके?

बंगाल में ममता बनर्जी ने दो कांग्रेसी मंत्रियों के विभाग छीन लिए। अभिषेक मनु संघवी ने ममता दी को गठबंधन धर्म की याद दिलाकर आगे कुछ नहीं कहा। पर लगता है उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद इस गठबंधन में बदलाव होगा। नरेन्द्र मोदी जयललिता के मार्फत एक नए गठबंधन की आधारशिला तैयार कर रहे हैं। क्या इसमें बसपा को भी शामिल किया जा सकता है? उत्तर प्रदेश में भाजपा की हैसियत कैसी रहेगी इस पर भी काफी बातें टिकी हैं। दूसरे मुलायम सिंह पूरी तरह जब तक यूपीए के साथ नहीं जाते तब तक बसपा की पोज़ीशन भी साफ नहीं होगी। कौन जाने उत्तर प्रदेश के परिणाम किस करवट बैठेंगे। बहरहाल तेदेपा और बीजू जनता दल क्या फिर से एनडीए के साथ आएंगे हैं?

पाँच राज्यों के परिणाम आने के बाद राज्य सभा में दलीय स्थिति कुछ बदलेगी, पर इतनी नहीं बदलेगी कि लोकपाल बिल वहाँ से पास हो सके। इस मामले में यूपीए की रणनीति क्या होगी यह भी अभी स्पष्ट नहीं है। जून राष्ट्रपति पद के चुनाव हैं। ऐसा लगता नहीं कि प्रतिभा पाटिल को एक मौका और दिया जाएगा। कयास है कि उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को यह पद दिया जा सकता है। पर वे पार्टी वाले नहीं हैं। एक कयास यह भी है कि कांग्रेस प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाने को तैयार हो जाएगी। 2007 में भी उनका नाम चला था, पर कट गया। इस बार यूपीए के सामने राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को जिताने की चुनौती भी होगी। यूपीए के पास पर्याप्त वोट नहीं है। उसे अपना प्रत्याशी जिताने के लिए सपा, बसपा, वाम दल, बीजद, अद्रमुक वगैरह से बात करनी होगी। सारी बातें नए राष्ट्रीय गठबंधन के सापेक्ष होंगी।

इस साल के अंत में भाजपा अध्यक्ष पद का चुनाव भी होना है। लोकसभा चुनाव के पहले इस पद पर काम करने के लायक काबिल व्यक्ति कौन है? संघ के गलियारों में अब इस विषय पर बातचीत चलने लगी है। शायद नरेन्द्र मोदी भी इस पद के दावेदार हैं। पर कहते हैं कि संघ परिवार ऐसा नहीं चाहता। हो सकता है वह भाजपा अध्यक्ष पद का कार्यकाल तीन के बजाय पाँच साल कराने का प्रस्ताव लाए। नितिन गडकरी ने घोषणा की है कि मैं अगला लोकसभा चुनाव लड़ूँगा। अगले साल गुजरात विधान सभा के चुनाव भी हैं। क्या नरेन्द्र मोदी गुजरात में ही बने रहेंगे? भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह एक साथ नज़र आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में उमा भारती आगे आ रहीं हैं। यदि वे सफलता हासिल करती हैं तब भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति की शक्ल कुछ बदलेगी। आडवाणी जी अब भी लोकसभा चुनाव लड़ना चाहेंगे। कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के अंदरूनी लोकतंत्र के पेच इस साल खुलेंगे। एनडीए के सहयोगी दलों में से जेडीयू की बिहार से बाहर जाने की आकांक्षा उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़ रही है। कुछ लोग नीतीश कुमार में भी प्रधानमंत्री का मैटीरियल देखते हैं। पर उसके पहले यह देखना होगा कि एनडीए में लोकसभा चुनाव जीतने का माद्दा है या नहीं।

उत्तर भारत इस वक्त ठंड की चपेट में है। उसके साथ राष्ट्रीय राजनीति भी इन दिनों रज़ाई ओढ़कर आराम कर रही है। विवाद के तमाम मसले अचानक ठहर गए हैं। सबकी निगाहें विधान सभा चुनावों पर हैं। पाँचों राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश है। एक तो यह सबसे बड़े राज्य है दूसरे दोनों महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दलों के अलावा दो महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दलों का गढ़ भी यही है। देश की जातीय, धार्मिक, साम्प्रदायिक राजनीति को जोड़-तोड़ यहीं तैयार होते हैं। एक प्रकार से यह देश की राजनीतिक प्रयोगशाला है। इस प्रयोगशाला से जो परिणाम निकलेगा वह सन 2014 की दिल्ली सरकार का रास्ता तैयार करेगा। जनवाणी में प्रकाशित


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