कानून सड़क पर नहीं संसद में बनते हैं। शक्तिशाली लोकपाल विधेयक सर्वसम्मति से पास होगा। देश की संवैधानिक शक्तियों को काम करने दीजिए। राजनीति को बदनाम करने की कोशिशें सफल नहीं होंगी। इस किस्म के तमाम वक्तव्यों के बाद गुरुवार की रात संसद का शीतकालीन सत्र भी समाप्त हो गया। कौन जाने कल क्या होगा, पर हमारा राजनीतिक व्यवस्थापन लोकपाल विधेयक को पास कराने में कामयाब नहीं हो पाया। दूसरी ओर अन्ना मंडली की हवा भी निकल गई। इस ड्रामे के बाद आसानी से कहा जा सकता है कि देश की राजनीतिक शक्तियाँ ऐसा कानून नहीं चाहतीं। और उनपर जनता का दबाव उतना नहीं है जितना ऐसे कानूनों को बनाने के लिए ज़रूरी है।
देश की पहला संविधान संशोधन जिस संसद ने किया वह उस तरह से चुनी नहीं गई थी जैसी लोकसभा है। पहली लोकसभा 17 अप्रेल 1952 में बनी थी, पर पहला संविधान संशोधन 1951 में ही हो गया था। संविधान सभा को अस्थायी संसद का रूप दे दिया गया था। उसी संसद में राजनीतिक कदाचार का पहला मामला सामने आया था। सदन के सदस्य एचजी मुदगल की सदस्यता समाप्त की गई थी। तबसे सत्ता और नैतिकता का द्वंद राजनीतिक क्षितिज पर चल रहा है। भ्रष्टाचार और उसे समाप्त करने पर चर्चा पिछले साठ साल से चली आ रही है। लोकपाल पिछले 43 साल से हमारे राजनीतिक शब्दकोश में है। सम्भव है उसे पूरी तरह प्रभावी होने में कुछ समय और लगे।
यह आंदोलन शुरू होने के साथ ही सबसे पहले यह बात कही गई कि कानून बनाने के लिए बाहर से दबाव बनाना संसद की अवमानना है। कानून बनाने का काम संसद का है। पर यह पहला मौका नहीं था जब संसद पर बाहर से दबाव पड़ा हो। सन 1988 में मानहानि विधेयक लोकसभा से पास होने के बावजूद पत्रकारों के जबर्दस्त विरोध के कारण कानून नहीं बन सका। संसदीय कर्म शेष समाज से पृथक नहीं होता। आपतकाल में इंदिरा सरकार के लाए 42 वें संविधान संशोधन के प्रवधानों को खारिज करने के लिए 43 वें और 44वें संविधान संशोधनों को लाया गया। दोनों कार्य संसद ने ही किए। दोनों की परिस्थितियाँ अलग-अलग थीं। अंततः जनता ने जिसे स्वीकार किया वही कानून प्रभावी हुआ।
गुरुवार को एक से ज्यादा अखबारों में अन्ना आंदोलन को फ्लॉप शो बताते हुए शीर्षक लगे हैं। यह शब्द एक रोज पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने दिया था। कुछ दिन पहले तक कहा जा रहा था कि यह आंदोलन मीडिया ने खड़ा किया है। मीडिया को अब यह फ्लॉप शो लग रहा है। पर शो तो जनता का था। मीडिया तो संदेशवाहक है, मैसेंजर। उसे तो वही दिखाना है जो है। क्या जनता के मसले खत्म हो गए? या वे मसले थे ही नहीं? सब कुछ हवाई था? या फिर मीडिया ने हवा में महल बनाया और फिर फूँक मारकर उड़ा दिया? क्या सामाजिक आंदोलन आए दिन खुलते बंद होते चैनलों या अखबारों जैसे हैं?
लोकपाल बनने या न बनने से ज्यादा जनता की उम्मीदों और सपनों का सवाल है। सरकार को अन्ना हजारे के हाथ में कोड़ा नजर आता था। वह कोड़ा जनता के सपनों से बुना हुआ था। वह हर रोज सरकारी प्रक्रियाओं से गुजरती है। हमारे जीवन को इस सरकारी चक्रव्यूह से निकालने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है। लोकतंत्र की हमारी परिभाषाएं अभी तक राजनीति के मार्फत ही समझ में आती हैं। और जनता के नाम पर होने वाली राजनीति प्रकारांतर से सबसे ऊपर बैठना चाहती है। वहाँ जहाँ जनता को होना चाहिए। ऐसा भारत में ही नहीं सारी दुनिया में हो रहा है। इसीलिए इस वक्त सारी दुनिया में राजनीति के खिलाफ नाराजगी है। और राजनीति चाहती है कि जनता के सपनों से बुना कोड़ा किसी के हाथ में न रहे। बल्कि हमारे पास जादुई शीशा हो जो हम जनता को दिखाते रहें।
लोकपाल विधेयक को लेकर कई बार सरकार ने कहा कि बहस संसद में होनी चाहिए। अब यह मामला संसद के पास है। वह इसपर अपनी सर्वानुमति बनाएगी। लोकसभा में हुई बहस में कानूनी नुक्तेबाज़ी हुई, पर एक बात साफ नज़र आई कि राजनीतिक ताकतें सड़क के आंदोलनों को तभी तक पसंद करती हैं, जब वे उनके झंडे तले हों। लगभग हर दल ने सड़क के आंदोलन पर तानाकशी की। जब लालू प्रसाद यादव कह रहे थे कि लोकपाल बन गया तो समझ लीजिए कि हर एमपी के जेल जाने का खतरा बढ़ जाएगा। खारिज कर दीजिए ऐसे लोकपाल को। इस मौके पर ट्रेजरी बेंचों की तरफ से भी मेजें थपथपाई गईं। क्या वास्तव में खतरनाक और लगभग तानाशाह जैसे लोकपाल का खतरा हमारे सामने है? एक कहता है कि सरकारी लोकपाल लाचार है। दूसरा कहता है कि वह तानाशाह होगा। कानून सड़क पर नहीं बनते, पर उनपर बहस तो सड़क पर हो ही सकती है।
संसदीय राजनीति की विडंबना है कि हम अपनी पार्टी के हितों को देखते हुए किसी नतीजे पर पहुँचते हैं। जनता का दृष्टिकोण यह नहीं होता। उसके सामने इस या उस पक्ष को बेहतर मानने की मजबूरी होती है। इसका कारण यह है कि जनता के बीच विशेषज्ञता की कमी है। साधन भी नहीं हैं। और विमर्श का लम्बा इतिहास भी नहीं है। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में आजादी अकेला मुद्दा थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर हमारा विमर्श लगभग अनुपस्थित था। आजादी के तकरीबन बीस साल बाद 1967 में पहली बार कांग्रेस पार्टी को राजनीतिक चुनौती मिली थी। संयोग से उसी दौरान लोकपाल का विचार तैयार हुआ। सत्तर के दशक में कांग्रेस के समानांतर राजनीतिक शक्तियों ने सिर उठाना शुरू किया। उसी दौरान क्षेत्रीय राजनीति का विकास हुआ, सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सवाल उठे। इसका अगला चरण था सामाजिक अंतर्विरोधों पर आधारित राजनीति का।
धर्म और जाति पर आधारित हमारे सामाजिक अंतर्विरोध अस्सी के दशक में खुले। राजनीतिक व्यवस्था पर तब भी हमने ध्यान नहीं दिया। सन 1991 में आर्थिक उदारीकरण हमारी राजनीति की देन नहीं था। वह आर्थिक मजबूरी थी। यदि वह सहज उदारीकरण होता तो उसके बराबर-बराबर पारदर्शी व्यवस्था की स्थापना भी होती। व्यवस्थागत बदलाव समय से हो गए होते तो घोटालों की संख्या कम होती। भ्रष्टाचार के केन्द्रों पर एक निगाह डालें। शेयर बाजार का घोटाला, हथियारों की खरीद का घोटाला, दूरसंचार घोटाला और इसका ही अगला चरण टूजी घोटाला है। हम जिस सीबीआई की बात कर रहे हैं उसके पूर्वज स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट का जन्म दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हुई खरीद-फरोख्त वगैरह में घूसखोरी और भ्रष्टाचार की जाँच के लिए हुआ था। अर्थव्यवस्था के समानांतर सामाजिक-राजनीति व्यवस्था का विकास भी होता है। हाल के आर्थिक विकास का एक परिणाम है शहरी मध्य वर्ग का उदय। यही शहरी मध्य वर्ग अन्ना-आंदोलन का हिस्सा है।
अन्ना-आंदोलन क्या सत्ता की राजनीति में किसी ताकत के साथ बँधा है? कांग्रेस के कुछ नेताओं का आरोप है कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ अन्ना-मंडली का गठजोड़ है। यह है या नहीं इसे साबित करना खासा मुश्किल काम है, खासतौर से तब जब अन्ना-मंडली खुद इससे इनकार करती है। तथ्यों के सहारे अनुमान लगाया जा सकता है। पर सवाल यह है ही नहीं। सवाल यह है कि क्या अन्ना-आंदोलन या अन्ना टाइप आंदोलन का वक्त गया? क्या मुम्बई को ‘फ्लॉप शो’ के बाद कहानी खत्म? ऐसा सम्भव नहीं। अन्ना हों या न हों, आने वाले वक्त में जनता का दबाव और बढ़ेगा। हमारी राजनीति अभी तक खामोश प्रजा की आदी रही है। प्रजा जो फॉलोवर होती है। जातीय और धार्मिक आधार पर राजनीति करने वाली ताकतें अपने सॉलिड बेस के सहारे खड़ी रहना चाहती हैं। पर यह लम्बा चलने वाला नहीं है। नए समय के फॉलोवर सवाल भी करेंगे।
सन 2011 के साल की उपलब्धि है ‘राष्ट्रीय मंतव्य’(सेंस ऑफ नेशन) का प्रकटन। देश लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास और विस्तार चाहता है। लम्बे समय से वह अपने नेताओं के भाषण सुनता रहा है। अब वह खुद भी कुछ कहना चाहता है। ज़रूरत है उन संस्थाओं की जिनके मार्फत देश कुछ कहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक नया शब्द दिया है ‘ब्रेक’। इंतजार करें ब्रेक के बाद होता क्या है। जनवाणी में प्रकाशित
हिन्दू में केशव का कार्टून
आपकी पोस्ट में ज़बर्दस्त गुणवत्ता होती है। हिंदी ब्लॉगिंग को आप पर नाज़ है और हमें भी।
ReplyDeleteपंडित हो तो ऐसा कि पंडित शब्द की लाज तो रखे।
धन्यवाद !
http://vedquran.blogspot.com/2011/12/salvation.html
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ReplyDeleteमैं तो यही सोच-सोचकर हैरान होता रहता हूँ कि एक अन्ना के द्वारा उठाई गई देश हित की बात इन्हें इतनी चुभी और इन्होने इतने सारे प्रपंच रचे तो सोचिये कि ६५ सालों में हमारे इन माननीयों ने क्या-क्या गुल नहीं खिलाये होंगे ? अब सवाल एक ही है कि कोई इनसे पूछे कि जो सरकार अल्पमत में है उसे सत्ता में बने रहने का अधिकार क्या है ?
ReplyDeleteआपको नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये !
बहुत ही बढ़िया आलेख. वास्तव में जनता के बीच बहस कि शुरुआत हुई है और यह ए़क महत्वपूर्ण उपलब्धि है इस आंदोलन की.
ReplyDeleteनव वर्ष के आगमन पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ...
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