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Monday, November 28, 2011

नीतीश सरकार के छह साल

नीतीश सरकार के छः साल:न्याय के साथ
विकास की वास्तविक हकीकत


युवा पत्रकार गिरजेश कुमार ने नीतीश सरकार की उपलब्धियों पर यह आलेख लिखा है। बिहार में नीतीश सरकार को विकास का श्रेय मिला है, पर व्यावहारिक अर्थ में यह विकास कैसा है? साथ ही वहाँ का मीडिया क्या कर रहा है? अपनी राय दें।

डेढ़ दशक तक जंगल राज भुगत चुके बिहार के लोगों के लिए 24 नवंबर 2005 की सुबह जब स्पष्ट बहुमत के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में आया तो लगा कि अब शायद बिहार का कायाकल्प हो जाएगा। बीमारू और सबसे पिछड़े राज्य के रूप में जाने जानेवाले बिहार की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पिछले पन्द्रह वर्षों के लालू-राबड़ी राज में जर्जर हो चुकी थी ऐसे में नयी सरकार के सामने दो चुनौतियाँ थी,एक जर्जर हो चुके सिस्टम को पटरी पर लाना और दूसरी जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरना। इस नयी सरकार ने पिछले २४ नवंबर को 6 साल पुरे कर लिए। अपनी दूसरी पारी के एक साल पूरा होने पर नीतीश सरकार ने “न्याय के साथ विकास यात्रा” नामक रिपोर्ट कार्ड जारी किया। ज़ाहिर है सरकार अपनी रिपोर्ट कार्ड में अपनी कमियाँ नहीं गिनाती लेकिन आखिर कितना बदला बिहार? यह सवाल अब भी मौंजू है? यह सवाल राजनीतिक गलियारों में भी उठना लाजिमी था।और उठा भी लेकिन राजनीतिक रोटी की आँच तले गुम हो गया। मीडिया ने तारीफों के पुल बाँधे और लोगों ने जैसे खुली आँखों से बिहार के विकास की तस्वीर खींच ली। रिपोर्ट कार्ड में बिहार में समृद्धि और खुशहाली का दावा किया गया है और तरक्की की राह पर अग्रसर बताया गया है लेकिन दावों को आँकड़ों की कसौटी पर कसकर देखा जाए तो वास्तविक हकीकत सामने आ जायेगी।


नीतीश सरकार कह रही है उसने बिहार में सुशासन ला दिया है। लेकिन सवाल है अगर सुशासन है तो अपराध क्यों हो रहे हैं? घोटाले क्यों हो रहे हैं? आई ए एस के मकान में स्कूल खोलने की अपने और अपने सरकार की बड़ी उपलब्धि बताने वाली नीतीश सरकार भ्रष्टाचारियों और काला बाजारियों के खिलाफ अभियान छेड़ने वाले पटना के सिटी एस पी का तबादला क्यों करती है? अपने रिपोर्ट कार्ड में सरकार ने संज्ञेय अपराध, अपहरण और चोरी के आँकड़े पेश नहीं किये हैं। बिजली के मामले में नीतीश सरकार ने स्वीकारा है कि इस क्षेत्र में वह अबतक कुछ नहीं कर पायी है और बिना बिजली के विकास संभव नहीं है। हाँ , फ्यूल सरचार्ज के रूप में बिजली के बिल में ज़रूर बढोत्तरी की गयी है ताकि पहले से मंहगाई से जूझ रही जनता की जेब और ढीली हो सके।

राज्य सरकार जिस आर्थिक विकास दर के आँकड़े को दिखाकर वाहवाही लुट रही है उसकी वास्तविकता भी जांचनी चाहिए। यह सच है कि बिहार का आर्थिक विकास दर देश में सबसे अधिक 14.15 फीसदी है। प्रतिशत वृद्धि दर तो ठीक है लेकिन असलियत क्या है? केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन की रिपोर्ट ही बताती है कि देश के कुल सकल घरेलु उत्पाद में बिहार का प्रतिशत मात्र 2.7 फीसदी है और हिस्सेदारी में बिहार का स्थान 13वां है। जिस जी डी पी को लेकर पुरे बिहार को गौरवान्वित किया जा रहा है उसी जी डी पी रिपोर्ट का आँकड़ा यह बताता है कि बिहार की प्रतिव्यक्ति आय 16,119 रूपये है। दूसरी तरफ़ जी डी पी के हिसाब से सबसे निचले पायदान पर सिक्किम है लेकिन वहां की प्रतिव्यक्ति आय बिहारियों से तीन गुना अधिक है। यानी मतलब साफ़ है जी डी पी किसी भी राज्य के विकास की लकीर तय नहीं करता। लेकिन नीतीश सरकार इसे बड़ी उपलब्धि मानकर चल रही है। हालाँकि हमें यह समझना होगा कि जी डी पी की वृद्धि में कृषि का योगदान कितना है अब जिस राज्य का योजना आकर 64 हजार करोड रूपये हो और केवल वेतन और स्थापना मद में ही इससे अधिक की राशि खर्च हो जाए तो यह कहना तो बेईमानी होगी कि बिहार जी डी पी में नम्बर एक पर काबिज़ हो गया।

यह विडंबना है कि जी डी पी ग्रोथ को उपलब्धि मान रही सरकार को क्राइम में भी अव्वल होना नहीं दिख रहा। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि आपराधिक घटनाओं के मामले में बिहार सबसे आगे है। वर्ष 2010 में देश में घटित कुल आपराधिक घटनाओं में बिहार की हिस्सेदारी 18.9 है जो पुरे देश में सबसे अधिक है। जबकि उत्तरप्रदेश की हिस्सेदारी 15.9 है। इसी प्रकार हत्या, अपहरण और बलात्कार के आँकड़े भी सुशासन की असली तस्वीर दिखाते हैं।

यह आश्चर्यजनक ही है कि एक तरफ़ जी डी पी में वृद्धि हो रही है तो दूसरी तरफ़ गरीबों की संख्या में भी समान्तर वृद्धि हो रही है। और अगर गरीबों की संख्या में वृद्धि हो रही है तो फिर यह सवाल भी उठता है कि क्या सूबे में लाभ का वितरण समान रूप से हुआ है? और अगर वास्तव में राज्य में बढ़ रही गरीबी के बीच जी डी पी बढ़ रही है तो इसका मतलब साफ़ है कि आर्थिक विकास का लाभ चंद मुट्ठीभर लोगों तक ही सीमित है। आँकड़े जब सच की गवाही दे रहे हैं तो फिर यह समझ में नहीं आता कि नीतीश सरकार किस मुंह से तरक्की और विकास की बात कर रही है? क्या सिर्फ़ सड़कें बन जाने से और उसमे लाइट लगा देने से ही विकास हो जाता है? और अगर विकास का रास्ता इन्ही दिखावों की पगडंडियों से होकर जाता है तो फिर सुशासन का मतलब क्या है?

शिक्षा व्यवस्था की हालत भी खस्ता है चाहे वह प्राथमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा। ठेके पर बहाल हुए शिक्षक बच्चों को शिक्षित करने में कितने सक्षम हैं यह बात पहले भी जगजाहिर हो चुकी है। हाल के दिनों में कुलपति बहाली में धांधली और राज्य सरकार और राजभवन के आमने-सामने होने की घटना ने उच्च शिक्षा की कलई भी खोल कर रख दी है।रही सही कसर आए दिन विश्विद्यालय में होने वाले हंगामे, जुलुस और सभाओं ने पूरी कर दी है। इन सबके बीच पिसता है छात्र और उसके अभिभावक जिसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। सूचना आयोग की एक समिति ने 2008-09 में राज्य सर्वे किया था, समिति के रिपोर्ट में कहा गया की बुनियादी संरचना संकेतक के मुताबिक बिहार का देश में 35वां स्थान है। राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के रिपोर्ट के अनुसार प्राइमरी और उच्च प्राइमरी स्तर पर बिहार सबसे पीछे है,जबकि केंद्र सरकार शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए पैसा मुहैया कराती है, बिहार में 408 में से 235 प्रशिक्षकों के पद आज भी खाली हैं। 6.5% स्कूलों में कोई शिक्षक नहीं है,20% स्कूलों में पेयजल की व्यवस्था नहीं हैं, 56% में शौचालय नहीं हैं और 88% स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं है। 63% ही छात्र-छात्राएँ ही प्राथमिक विद्यालयों से माध्यमिक विद्यालयों में जाते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 84% है। ज़ाहिर है ये आंकडें हमने खुद नहीं बनाये हैं फिर न्याय के साथ विकास के मायने क्या हैं?

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि एक जमाना वह भी था जब चम्पारण के योगापट्टी थाना क्षेत्र के बारे में अंग्रेजों ने लिखा था वह ‘यूनिवर्सिटी ऑफ क्राइम’ है।अब जाकर देख लीजिए वहां कानून का राज है। जबकि इस कानून के राज की हकीकत राज्य की राजधानी पटना में ही मालुम हो जायेगी जहाँ दिनदहाड़े शहर के मुख्य बस स्टैंड पर एक बड़े एजेंट को गोली मार दी जाती है। अपार्टमेंट से खींचकर जिउतिया के दिन माँ के सामने बेटे को काट डाला जाता है और आपसी रंजिश में सड़कों पर दौड़ाकर गोली मार दी जाती है। पुरे परिवार को जहर देकर मार देने वाले, जिसमे २ मासूम बच्चे भी शामिल थे,अपराधी को आजतक पुलिस खोज नहीं पायी। इसके अलावा छेड़खानी, अपहरण और फिरौती, लूटपाट के मामले अलग हैं। सवाल है यह कौन सा कानून का राज है? लेकिन शायद नीतीश कुमार अपनी तारीफ सुनना और वाहवाही लूटना ज्यादा पसंद करते हैं। इस शहर की एक हकीकत यह भी है जहाँ व्यक्ति आर्थिक तंगी से मजबूर होकर अपने पुरे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेता है। तो फिर खुशहाली का मतलब क्या है?

एक तरफ़ पुलिस प्रशासन ऐसे गंभीर अपराधों को रोक पाने में विफल है तो दसरी तरफ़ उसका क्रूर और वहशी चेहरा भी है। फारबिसगंज गोली कांड,अपने हक के लिए लड़ रहे ग्रामीणों पर पुलिस ने गोलियाँ चलायी थी जिसमे ४ लोगों मौत हो गयी थी। बिहार पुलिस के इस तालिबानी करतूत को पुरे देश ने देखा था। एस्बेस्टस कारखाने के विरोध कर रहे लोगों पर लाठी चार्ज, नाले की सफाई की माँग को लेकर प्रदर्शन कर रही महिलाओं पर बर्बरता पूर्वक लाठी चार्ज, और कानून को ताक पर रखकर बिना महिला पुलिस के गिरफ़्तारी की घटनाएँ भी इसी सुशासन की सरकार में घटी हैं। लेकिन इसकी चर्चा नीतीश ने अपने रिपोर्ट कार्ड में नही की है। इसके अलावा बियाडा घोटाला में कई नेताओं के नाम आने का भी उल्लेख रिपोर्ट कार्ड में नही किया गया है। सवाल है क्यों? अपनी झूठी उपलब्धियों का गुणगान करके नीतीश कुमार विकास की कौन सी गाडी को रफ़्तार पकड़वाना चाहते हैं?

स्वास्थ्य सेवाओं का हाल यह है कि इंसेफ़लाइटिस नामक अज्ञात बीमारी ने 200 बच्चों की जान ले ली और राज्य सरकार ब्लड सेम्पल ही भेजती रह गई। सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति वो खुद बयाँ करती हैं। निवेश और औद्योगीकरण के नाम पर एस्बेस्टस जैसे उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो एक नहीं पुरे समाज के लिए घातक हैं। वही पहले से बंद पड़े चीनी मिलों, सूत मिलों को खोलने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। दरअसल विकास, तरक्की, खुशहाली के सरकारी दावों की हकीकत यही है।

बिहार में विपक्ष अस्तित्वहीन है इसलिए यह जिम्मेदारी मीडिया की थी कि वो सच को उजागर करती लेकिन अफ़सोस है कि बिहार का मीडिया भी नीतीश की तरफदारी में ही विश्वास करता है। हालाँकि सच यह भी है बाजार के चंगुल में पूरी तरह कैद मीडिया से जनसरोकार की बड़ी आशा नहीं की जा सकती। लेकिन जिम्मेदारी भी एक चीज़ होती है जिसका निर्वहन इमानदारी के साथ होना चाहिए था। वैसे जनमानस में यह सवाल उठने लगा है कि आज का मीडिया तंत्र सरकार की सुरक्षा में लगा है या फ़िर सरकार ने मीडिया को गोद ले लिया है। इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि वाकई बिहार में सुशासन है तो यह कोलाहल क्यों मचा है?

3 comments:

  1. मीडिया सरकार की गोद में रहकर भी यह विश्‍वास दिलाने की कोशिश कर रहा है कि वह अब भी पूरी तरह ईमानदार है।

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  2. BRSHTACHAR KE MAAMLE ME SABHI NANGHEY HE.JANTA KO KOI KUM AUR KOI JYADA MOORAKH BANATEY HE. HUM NE TO MARNA HE HA.BAGHBA KA GAANA MOT BI AATI NAHI. MEHTA VIJAY

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