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Sunday, September 11, 2011

यह मीडिया का आतंकवाद है



आतंकवादी हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा और दूसरे किस्म के टकरावों की कवरेज को लेकर विचार करने का समय आ गया है। नवम्बर 2008 के मुम्बई हमलों के दौरान कई दिन तक चली धारावाहिक कवरेज का फायदा हमलावरों के आकाओं ने उठाया। जब तक हम समझ पाते नुकसान हो चुका था। हिंसा की कवरेज और उसके संदर्भ में होने वाले स्टूडियो डिस्कशन अक्सर माहौल को सम्हालने के बजाय बिगाड़ देते हैं। आतंवादियों का उद्देश्य हमारे मनोबल पर हमला करना होता है। अक्सर उसके इस इरादे को मीडिया से मदद मिलती है।

दिनोंदिन बेहतर होती टेक्नॉलजी ने फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी और ऑडियोग्राफी के बेहतर अवसर पैदा किए हैं। इससे हमारे पास सूचनाओं का अम्बार लग गया है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को अपनी विज़ुअल और ऑडियो स्पेस भरने के लिए मसाला चाहिए। ऐसे में बहुत सी वह जानकारी भी दर्शकों तक जा रही है, जिसे रोकने की ज़रूरत थी। दिल्ली हाईकोर्ट के घमाकों को कई लोगों ने अपने मोबाइल फोनों के मार्फत दर्ज कर लिया। इनमें बहुत सी तस्वीरें वीभत्स भी थीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक्सक्ल्यूसिव के चक्कर में उन्हें भी दिखाया। ज्यादा से ज्यादा ऊपर से एक बैंड लगा दिया कि ये तस्वीरें आपको विचलित कर सकतीं हैं। दूसरी ओर स्टूडियो-डिस्को में सरकार और व्यवस्था को जमकर कोसा गया। इसमें गलत कुछ नहीं है, पर ध्यान देना चाहिए कि बाहर बैठी जनता का गुस्सा भड़क न जाए। दूसरी बात हमारा मीडिया जब किसी एक इश्यू पर ध्यान देता है तो बाकी सारे मसले पीछे रह जाते हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन में ऐसा ही हुआ और धमाकों के साथ भी ऐसा ही हुआ। यह असंतुलन है।   

अमेरिका में दस साल पहले न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले की कई कोण से तस्वीरें आपने देखी होंगी, पर ऐसी तस्वीरें कम दिखाई पड़ी होंगी, जिनमें लाशें हों या खूंरेज़ी नज़र आती हो। ऐसा कोई आदेश नहीं था, पर उस मीडिया ने अपने लिए कुछ नियम बने हैं, जिनपर वह चलता है। पर लगता है हमारा मीडिया इस मामले में किसी किस्म की आचार संहिता लागू करना नहीं चाहता। आतंकवादी हिंसा की खबरें अस्सी के दशक की खालिस्तानी हिंसा के बाद बढ़ी हैं। उसके पहले रेल दुर्घटनाओं वगैरह की तस्वीरों को छापने में अखबार सावधानी बरतते थे। अस्सी के दशक के बाद मीडिया की संवेदना में गिरावट आई। साम्प्रदायिक दंगों, दुर्घटनाओं और विस्फोटों में मरने वालों की संख्या बढ़ाकर लिखने का चलन भी है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगमन के बाद इस सिलसिले में और ज्यादा सावधानी की ज़रूरत थी, क्योंकि जीवंत तस्वीरों का असर ज्यादा गहरा होता है। पर सावधानी के बजाय उल्टा हुआ। आज जैसे ही कोई धमाका होता है न्यूज़ रूम में घोषणा हो जाती है, अब आ रही है बढ़िया खबर। मीडिया के लिए हिंसा और मौतें बेहतरीन खबर हैं। आपसी प्रतियोगिता के दबाव और आगे बढ़ने की चाहत में ऐसा हो रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि हम समस्या की गहराई में नहीं जा पा रहे हैं, क्योंकि उसके लिए हमारे पास न तो समय है और न गुणवत्ता। पाठक और दर्शक नया है, वह भी हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं है। बेहतर हो कि मीडिया समूह आपस में बैठकर इस मसले पर बात करें।  

6 comments:

  1. कल 12/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. बहुत ही सहीं आकलन एक बात मैने और नोट की है कि कोई भी चैनल इस हमले को धिक्कारते मुसलमानो का कवरेज नही दिखाता। टीआरपी के चक्कर मे मन चाहे पात्र गढ़ने वाले पत्रकार क्या देशभक्ति और उससे भी उपर देश धार्मिक एकता का अपना नैतिक कर्तव्य ही भूल गये हैं।

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  3. कैसी प्रतियोगिता है जो विकास के बजाय मानव को संवेदना शून्य बना रही है पूरी तरह राजनीति के चक्रव्यूह में फंसी.... एक समय था आकाशवाणी का जो विश्वास पैदा करता था उच्च स्तरीय योग्यता वाले लोग जुड़े थे उससे... और आज इन टीवी चैनलों की भीड़ में वो स्वर कहीं दूर दराज गांवों में भले ही सुनने को मिल जाए वरना इन पत्रकारों के जोश के पीछे की मायूसी और खोखलापन साफ़ दिखता है

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  4. हमारा मीडिया हमारी हिंसक प्रवृत्ति को जानता है और उसका प्रयोग हमारे ही मनोरंजन के लिए करता है. मीडिया से ज़िम्मेदार होने की आशा करना फ़िज़ूल है.

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  5. बहुत सही कहा है आपने ।

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  6. मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी ही चाहिए ...

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