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Friday, July 1, 2011

प्रधानमंत्री का सम्पादक सम्मेलन

मंजुल का कार्टून साभार
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या दूसरे शब्दों में कहें यूपीए-2 सरकार अब पीआर एक्सरसाइज़ कर रही है। प्रधानमंत्री का यह संवाद किसी किस्म का विचार-विमर्श नहीं था। एक प्रकार का संवाददाता सम्मेलन था। जनता से जुड़ने के लिए सम्पादकों की ज़रूरत नहीं होती। खासतौर से जब सम्पादकों का तटस्थता भाव क्रमशः कम हो रहा हो। फिर भी किसी बात पर सफाई देना गलत नहीं है। प्रधानमंत्री ने जो भी कहा, वह पहले भी वे किसी न किसी तरह कहते रहे हैं। 


उनकी तमाम बातों में एक तो मीडिया की शिकायत और सीएजी की भूमिका पर उनकी टिप्पणी विचारणीय है। उन्हें शिकायत है, पर मेरी धारणा है कि मीडिया की भूमिका शिकायतकर्ता, अभियोजक और जज की है और होनी चाहिए। जनता की शिकायतें सामने लाना उसका काम है। उसे कोई आरोप समझ में आए तो उसे लगाना भी चाहिए और जज की तरह निष्पक्ष, तटस्थ और न्यायप्रिय उसे होना चाहिए। पर इस जज के फैसले कार्यपालिका लागू नहीं करती, जनता लागू करती है। साथ ही इस जज को जिन मूल्यों, नियमों और सिद्धांतों के आधार पर निर्णय करने होते हैं उनकी पर्याप्त समझ होनी चाहिए। 



मनमोहन सिंह जी का आशय जो भी रहा हो मुझे लगता है कि मीडिया गलत शिकायत, गलत आरोप और असंतुलित फैसले करने का दोषी है। मीडिया का काम है कि दो या तीन पक्षों के तर्क, विचार, सिद्धांत,दृष्टिकोण को उनके सही परिप्रेक्ष्य में सामने रखे। पर होता यह है कि बात को सनसनीखेज बनाने के प्रयास में हम या तो  किसी के समर्थन में बहुत दूर तक चले जाते हैं या एकदम खिलाफ हो जाते हैं। दिक्कत यह है कि ऊपर के स्तर पर पत्रकार किसी न किसी के साथ हैं या किसी के खिलाफ हैं। आप सूची बनाएं और नाम के आगे टिक करते जाएं कि कौन किसके साथ है। यह भी गलत नहीं। गलत है यह दिखाने की कोशिश करना कि हम निष्पक्ष हैं। सच यह है कि  तटस्थ व्यक्ति का सत्ता के गलियारों से गुज़रना बेहद मुश्किल काम होता जा रहा है। 


सीएजी की भूमिका को लेकर प्रधानमंत्री ने कहा है कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि सीएजी ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर रपट जारी की हो। साथ ही सीएजी को संविधान में वर्णित भूमिका को निभाना चाहिए। उन्होंने सरकारी नीति पर टिप्पणी की है। पर यह एकतरफा नहीं है। सीएजी की रपट के तथ्य काफी पहले से हवा में थे। संचार मंत्रालय की भूमिका को लेकर आपत्तियाँ उठाई जा रहीं थीं, पर सरकार बातों को नकार रही थी। यह राजनैतिक संस्कृति की खराबी होगी, पर मंत्रियों और सांसदों की गम्भीरता में भी कमी आई है। इन दिनों अदालतों की टिप्पणियों को देखें तो सीएजी की टिप्पणी कुछ नहीं है।


दिल्ली में सीलिंग का मामला तीन साल पहले बड़े जोर-शोर से उठा था। उसमें पहल अदालत ने ली थी। पर वह काम तो सरकार का था। चुनाव जीतने के लिए या दूसरी वजहों से अलोकप्रिय होने से बचने के लिए सरकारें कड़े फैसले नहीं करतीं। इसी तरह सांसद निधि की व्यवस्था को खत्म करने के सुझाव के बावजूद यह व्यवस्था पुष्ट होती जा रही है। सांसद या विधायक की भूमिका विधायी है कार्यपालिका की नहीं। शासकीय व्यवस्था में तमाम पेचो-खम हैं। इसे राजनैतिक दृष्टि से नहीं देश के नागरिक की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। 


मीडिया की भूमिका देखते वक्त अब सिर्फ सम्पादक के राजनैतिक विचार महत्वपूर्ण नहीं हैं। सम्पादकों से प्रधानमंत्री का या दूसरे राजनेताओं का संवाद किस प्रकार का है, मुझे ज्यादा मालूम नहीं, पर वह है। राष्ट्रीय स्तर पर इस संवाद में हिन्दी के सम्पादक आगे नहीं हैं, इतना मैं समझ पाता हूँ। हिन्दी के अलावा बांग्ला, मलयालम, तेलगु, मराठी, गुजराती और ओड़िया जैसी भाषाओं के सम्पादकों का अपने इलाके के राजनेताओं से जो रिश्ता है हिन्दी में वह नहीं है। हिन्दी क्षेत्र के राजनेता, मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री अखबार के वास्तविक सत्ता-केन्द्रों को जानते हैं। उनके इर्द-गिर्द कुछ संवादादाता घूमते हैं, जिनकी भूमिका पाठक को सूचित करने के बजाय कारोबारी जन-सम्पर्क में ज्यादा होती है। पूरी तरह नहीं तो काफी हद तक इसका चलन बढ़ा है। बड़े मीडिया का महत्वपूर्ण मसला अब यह है कि किस की पूँजी कहाँ लगी है। यह छोटे स्तर पर नहीं है। काफी बड़े स्तर पर है। 


विषयांतर न हो इसलिए बात को प्रधानमंत्री के संवाद तक ही सीमित रखना चाहिए। बहरहाल इस संवाद को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने जिन पाँच सम्पादकों से बातचीत की उनकी तस्वीर देखें।



 प्रधानमंत्री के बाएं से क्लॉकवाइज़ शुरू करें। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन, दिव्य मराठी के सम्पादक कुमार केतकर, नई दुनिया के सम्पादक आलोक मेहता, प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे, ट्रिब्यून के सम्पादक राज चेंगप्पा, प्रेस ट्रस्ट के सम्पादक एमके राजदान, बिजनेस स्टैंडर्ड के डायरेक्टर और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष टीएन नायनन तथा प्रधानमंत्री के सचिव टीकेए नायर। 





3 comments:

  1. `मेरी धारणा है कि मीडिया की भूमिका शिकायतकर्ता, अभियोजक और जज की है और होनी चाहिए।' बिल्कुल ठीक कह रहे हैं प्रमोद जी। यह कथन तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब पारदर्शिता और गुड़-गवर्नेंस का दावा करनें वाले प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक के बाद एक घोटाले और लूट चल रही हो और उसका खुलासा मीडिया या सूचना के अधिकार के तहत कार्य करनें वालों के माध्यम से हो और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर कार्यवाही करनें की मज़बूरी हो। मज़बूरी इसलिए क्योंकि सरकार अदालतों में जिस प्रकार टाला-टूली का रवैया अपना रही है और जिस के चलते सर्वोच्च न्यायालय को कान उमेठनें पड़ रहे है उससे नहीं लगता कि सरकार की नीयत साफ है।

    एक महत्वपूर्ण बात प्रधानमंत्री जी नें उस कांफ्रेंस मे यह कही कि अगर १० कामों मे ७ सही हुऎ औए ३ गलत तो यह सरकार की अच्छी कार्यविधि मानी जानी चाहिये और प्रशंसा की जानी चाहिये। अब प्रधानमंत्री जी को यह कौन समझाऎ कि दिनभर की मेहनत से कमाऎ हुए १०० रुपये बीबी के हाथ में रखनें के बजाऎ पति अगर यह बताऎ कि वह तो रास्ते में चोरी हो गये तो ऎसी कमाई और अच्छाई का क्या अर्थ रह गया? जब रिजर्व बैंक अपनीं सालाना रिपोर्ट में यह दर्ज कर रहा हो कि विगत वर्ष ४८ हजार करोड़ रुपये का विदेशी मुद्रा में किया भुगतान किस मद में किया गया उसे नहीं मालूम या मीड़िया के हवाले यह पता देश को चले कि विदेशी बैंको में ७०लाख करोड़ या २८० लाख करोड़ रुपया भारतीयों का जमा है और तमाम दबावों और सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद १८ लोगों की लिस्ट दी जाऎ और कुल घोटाला ३९ करोड़ का बताया जाऎ या २ हजार करोड़ के आते हुए विदेशी निवेश का तो ढ़िढ़ोरा पीटा जाए और उससे कहीं ज्यादा धन चोरी से विदेश भेज दिया जाए और इस पर प्रधानमंत्री अपनी पीठ खुद थपथपाऎ! यह देश के लिए शर्म की स्थिति है।

    दर-असल अब समय आ गया है जब हमारे देश के नेताऒं की ‘सीआर’/नीत,क्रियान्वयन और परिणाम की समीक्षा हो जैसे की किसी अधिकारी या कर्मचारी की होती है। श्री मनमोहन सिंह जी की कृपा से देश समाजवाद के रास्ते से यू-टर्न लगाकर गैट और फिर चिश्वव्यापार संगठन के माध्यम से वैश्चिक पूंजीवादे के रास्ते पर ड़ाल दिया जाता है। १९९१ से अब तक देश उनके फंसाये जाल में फंसा हुआ है। कुछ लोग भले ही पहले से लाभान्वित हुआ महसूस कर रहे हों पर हकीकत यह है कि अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब हुआ है। जीडीपी और इंफ्लेशन के टुटकों से देश को बहलाया जा रहा है और भारत और इण्ड़िया का अंतर बढ़ता जा रहा है। प्रधानमंत्री जी को शायद अखबार और टी वी देखनें की फुर्सत नहीं है अन्यथा उनको पता होता कि नीरा राड़िया के टेप बाजार में आ चुके हैं और तथाकथित पत्रकारों/ दलालों के चेहरे भी जनता के सामनें उजागर हो चुके हैं। ऎसे में कुछ और पत्रकार खरीदनें से सच नहीं बदलनें वाला।

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  2. विपक्ष और कांग्रेस के भीतर से ये आरोप लगाए जाने के बाद ,भ्रष्टाचार के लिए प्रधानमंत्री खुद जिम्मेदार हैं,यह प्रेस कान्फरेंस स्पष्टीकरण हेतु बुलाई गयी थी.इसमें मनमोहन जी ने बताया वह तो पी.एम्.को लोकपाल के आधीन रखना चाहते हैं लेकिन मंत्रीगण तैयार नहीं हैं.अगले पी.एम्.के लिए राहुल का नाम उछलने वाले भी इस कान्फरेंस के बाद कहने लगे अभी वक्त नहीं आया है.अर्थात मनमोहन जी अपने मिशन में कामयाब हुए हैं.

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