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Monday, June 20, 2011

सपने ही सही, देखने में हर्ज क्या है?



लोकपाल विधेयक और काले धन के बारे में यूपीए के रुख में बदलाव आया है। सरकार अब अन्ना और बाबा से दो-दो हाथ करने के मूड में नज़र आती है। मसला यह नहीं है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाय या नहीं। मसला इससे कहीं बड़ा है। अन्ना की टीम जिस प्रकार का लोकपाल चाहती है उसका संगठनात्मक स्वरूप सरकारी सुझाव के मुकाबले बहुत व्यापक है। सरकार की अधिकतर जाँच एजेंसियाँ उसमें न सिर्फ शामिल करने का सुझाव है, उसकी शक्तियाँ भी काफी ज्यादा रखने का सुझाव है।
बाबा रामदेव के आंदोलन की फौरी तौर पर हवा निकल जाने से कांग्रेस पार्टी उत्साह में है। उसे उम्मीद है कि अन्ना का अगला आंदोलन टाँय-टाँय फिस्स हो जाएगा। चूंकि अन्ना ने न्यायपालिका और सांसदों के आचरण की जाँच भी शामिल करने की माँग की है इसलिए सांसदों और न्यायपालिका से समर्थन नहीं मिलेगा। कांग्रेस का ताज़ा प्रस्ताव है कि इस मामले पर सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया जाए। अन्ना हजारे 16 अगस्त से अनशन शुरू करने की धमकी दे रहे हैं। सवाल है कि यह अनशन शुरू हुआ तो क्या उसकी दशा भी रामदेव के अनशन जैसी होगी? या उसके उलट कुछ होगा?
 
सर्वदलीय बैठक या संसद में इन प्रश्नों पर चर्चा करना अब ज्यादा ज़रूरी नज़र आ रहा है। सिविल सोसायटी कोई अच्छी तरह से परिभाषित संस्था या व्यवस्था नहीं है। अन्ना को शहरी लोगों और पढ़े-लिखे वर्ग के एक हिस्से का समर्थन प्राप्त है। इस समर्थन का दायरा बहुत बड़ा नहीं है। यह दायरा बढ़ेगा या नहीं कहना मुश्किल है। रामदेव के आंदोलन के पीछे संघ और भाजपा का हाथ खोजा जा सकता है, पर अन्ना के आंदोलन को भाजपा से जोड़ा नहीं जा सकता। उसे राजनीति से प्रेरित बताने की कोशिशें कांग्रेस को नुकसान पहुँचाएंगी।
जिस तरह आंदोलनकारी वैचारिक आधार पर एकमत नहीं हैं उसी तरह राजनीति भी अन्ना के मामले में एकमत नहीं है। सर्वदलीय बैठक तभी सफल होगी जब एक राय उभरती नज़र आए। अन्ना-आंदोलन को राजनीति-विरोधी और शासन के तीनों अंगों का विरोधी साबित करने के प्रयास भी कहीं नहीं ले जाएंगे। मोटे तौर पर लगता है कि सिविल सोसायटी चार-छह लोगों की जमात है। उसके मुकाबले रामदेव की टोली कहीं ज्यादा संगठित और साधन-सम्पन्न नज़र आती है। अन्ना आंदोलन के पास छोटी-मोटी मशीनरी विकसित हो गई है, पर कोई बड़ा ट्रस्ट उसके पीछे नहीं है। यह तथ्य अन्ना-आंदोलन को बजाय कमजोर करने के ताकत देता है।
श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी लोकपाल के बाबत एक मसौदा तैयार कर रही है। यह काम अरुणा रॉय के नेतृत्व में हो रहा है। उनसे जुड़ी संस्था नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टु इनफॉरमेशन खासतौर से आरटीआई पर काम करती है। अभी यह साफ नहीं है कि उनके प्रस्तावित विधेयक का स्वरूप क्या है। मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि उनका बिल सरकारी राय से मिलता-जुलता है। अभी सरकारी राय भी साफ नज़र नहीं आ रही है। लोकपाल बिल के मुद्दों से ज्यादा इस वक्त आंदोलन को सफल या विफल बनाने की रणनीति पर ध्यान है। अन्ना का आंदोलन तभी सफल होगा जब वह खुद को राजनीति और राजनैतिक दलों से अलग रखे।
अन्ना–आंदोलन कांग्रेस-विरोधी है यह धारणा नहीं बननी चाहिए। दूसरे यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि लोकपाल बन जाने से देश से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाएगा। भ्रष्टाचार की त्रिवेणी जन-प्रतिनिधियों, सरकारी कर्मचारियों और उद्योग-व्यापार के संकीर्ण तत्वों के सहयोग से बहती है। यह अनंत काल तक बहती नहीं रहेगी, क्योंकि इसमें पूरे समाज को बीमार करने वाले विषाणु पनपते हैं। कार्य-कुशल राजनीति, पारदर्शी सरकारी मशीनरी और अपनी मेहनत से कमाई करने वाले कारोबारी को साफ-सुथरी व्यवस्था चाहिए।
बहुत से लोगों को लगता है कि भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं होगा। मेरे ब्लॉग के एक लेख पर  एक प्रबुद्ध पाठक की प्रतिक्रिया थी, हमारा समाज पश्चिम के समाज से पृथक है।...हम अपने घरों में फर्श पर संगमरमर लगाते हैं, और घर का कूड़ा दहलीज से दो फुट आगे रास्ते पर फेकते हैं। हमारी सभ्यता के लिए देश या समाज कोई मायने नहीं रखता। व्यक्तिवाद और परिवारवाद ही अब सब कुछ है। देश पर मरने वालों को पहले शहीद कहा जाता था, अब मंदबुद्धि इंसान कहा जाता है। हम कानून बनाकर कभी भ्रष्टाचार से नहीं लड़ सकते, क्योंकि हमारी सभ्यता नियमों का पालन केवल धार्मिक परिप्रेक्ष्य में करना जानती है, राष्ट्रीय या सामाजिक परिप्रेक्ष में नहीं।.... "मेरा फर्श तो साफ़ हो गया बाबू, आम रस्ते पर मैने जो कूड़ा फेंका, अब वो मेरा सरदर्द क्यों बने?" क्या आप समझते हैं कि कभी हम हमारे इस मनोभाव को बदल पाएंगे?
इस प्रतिक्रिया में अपनी व्यवस्था को लेकर रोष है। यह रोष अब काफी लोगों के मन में है। बेहतर है कि यह गुस्सा ही बढ़े। यह एक राजनैतिक संस्कृति है। वास्तव में कानून बनाने से सब ठीक नहीं होगा, पर कानून इस दिशा में एक कदम है। व्यवस्था के भीतर बैठे सारे लोग नालायक नहीं हैं। हमारे सीएजी ने ही टू-जी स्कैम को उजागर किया। ऐसी व्यवस्थाओं को मजबूत बनाने से कुछ न कुछ फर्क तो आएगा। लोकपाल बिल को ज़रूर लाना चाहिए। मसला यह है कि सबको स्वीकार्य विधेयक कैसा हो। अन्ना हजारे की भूमिका सिर्फ इतनी है कि उन्होंने एक सपने को जगाया है। उसे साकार करने का काम पूरे देश का है। देश पर भरोसा रखिए ना। 

1 comment:

  1. दरअसल जोशी जी ...हम सबको उधार के लोगो से काम करवाने की आदत हो चुकी है...इस देश में नारायण मूर्ति जैसे गिने-चुने ही है जो अपना टॉयलेट तक स्वयं साफ़ करते है...हमें हमारे लिए लड़ने वाले ,हमारे अधिकारों की रक्षा करने वाले ,हमें सुविधा दिलवाने वाले दुसरे लोग चाहिए...इसलिए १२१ करोड़ लोगो के इस देश में १२१ भी ढंग के लोग राजनीति में नहीं है...क्या राममनोहर लोहिया का पढाया ये पाठ अब भी किसी को याद है की....जिन्दा कौमे ०५ बरस इंतजार नहीं करती?
    ..............क्या हमारी कौम अभी भी जिन्दा है??

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