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Monday, June 13, 2011

अन्ना और बाबा नहीं, यह जनता का दबाव है



बाबा रामदेव को अपना अनशन तोड़ना पड़ा क्योंकि उसे जारी रखना सम्भव नहीं था। बाबा के सलाहकारों ने प्लान बी तैयार नहीं किया था। रामलीला मैदान पर सरकारी कार्रवाई के बाद मैदान छोड़ा था तो उसके बाद की योजना सोच-विचारकर तैयार करनी चाहिए थी। आंदोलन का लक्ष्य भी स्पष्ट होना चाहिए। अन्ना-आंदोलन के संदर्भ में सरकार फँसी है। प्रणब मुखर्जी के ताज़ा वक्तव्य से सरकार की वैचारिक नासमझी नज़र आती है। वे इन आंदोलनों को लोकतंत्र विरोधी मानते हैं तो क्यों अन्ना की टीम को लोकपाल बिल बनाने के लिए समिति में शामिल किया? संसद ही सब कुछ है वाला तर्क इमर्जेंसी लागू करते वक्त भी दिया गया था। कोई नहीं कहता कि जनांदोलनों के सहारे संसद को डिक्टेट किया जाय। आंदोलनों का लक्ष्य संसद को कुछ बातें याद दिलाना है। दूसरी बात चुनाव के बाद जनता हाथ झाड़कर बैठ जाय और अगले चुनाव तक इंतज़ार करे, ऐसा लोकतांत्रिक दर्शन कहाँ से विकसित हो गया? नीचे पढ़ें जन संदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा आलेख


इंटरनेट के एक फोरम पर किसी ने लिखा 'नो,नो,नो... पहले संघ की सेना फिर शिवसेना, मनसे की सेना, बजरंग दल की सेना और अब बाबा की सेना।' बाबा रामदेव के पास अन्ना हजारे की तुलना में बेहतर जनाधार, संगठन शक्ति, साधन और बाहरी समर्थन हासिल है। बावजूद इसके उनका आंदोलन उस तेजी को नहीं पकड़ पाया जो अन्ना के आंदोलन को मिली। शांति भूषण के सीडी प्रकरण के बावजूद सरकारी मशीनरी आंदोलन के नेताओं को विवादास्पद बनाने में कामयाब नहीं हो पाई। पर रामदेव के आंदोलन के पीछे किसी राजनैतिक उदेदश्य की गंध आने से उसका प्रभाव कम हो गया। बाहरी तौर पर दोनों आंदोलनों में गहरी एकता है, पर दोनों में अंतर्विरोध भी हैं।
बुनियादी तौर पर दोनों आंदोलन जो सवाल उठा रहे हैं, उनसे जनता सहमत है। जनता काले धन को भ्रष्टाचार का हिस्सा मानती है। और वह है भी। बाबा रामदेव को श्रेय जाता है कि उन्होंने एक बुनियादी सवाल को लेकर लोकमत तैयार किया। कुछ साल पहले तक ऐसी माँग को स्टेट मशीनरी हवा में उड़ा देती थी। स्विस बैंकों में भारतीय पैसा जमा है, इसे मानते सब थे। वह पैसा कितना है, किसका है और उसे किस तरह वापस लाया जाय, इस सवाल को रामदेव ने उठाया। यूपीए के उदय के बाद भाजपा के एक खेमे ने इसे अपनी भावी रणनीति बनाया था, पर भाजपा उसे लेकर जनता को उस हद तक प्रभावित करने में कामयाब नहीं हो पाई, जितना रामदेव हुए।
काले धन पर अंकुश लग पाएगा या नहीं और लोकपाल बिल से देश में भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाएगा या नहीं ऐसा संशय आज भी तमाम लोगों के मन में है। जो होगा वह भविष्य के गर्भ में है, पर जिसकी ओर बढ़ना चाहिए, उसमें देर क्यों? यह एक तार्किक प्रश्न है। जन-मानस इन आंदोलनों के राजनैतिक उद्देश्यों और पीछे की ताकतों के बारे में सोच ही नहीं रहा है। पिछले एक साल के भंडाफोड़ों और जनांदोलनों का निहितार्थ एक है कि हमें व्यवस्थागत बदलाव करने चाहिए। अन्ना और रामदेव साध्य नहीं साधन हैं।
देश अब जिस राजनैतिक और आर्थिक दौर में प्रवेश कर रहा है उसमें व्यवस्थागत पारदर्शिता सबसे बड़ा मसला होगा। जिस तरह सात समुन्दर पार, सात पहाड़ों के ऊपर बने सात चहारदीवारी वाले किले की सातवी मंजिल में जादूगरनी के पिंजरे में कैद तोते में राक्षस के प्राण बसते थे, उसी तरह आधुनिक राक्षसों के प्राण सात समुन्दर पार बसते हैं। काले धन की यह राक्षसी प्रवृत्ति हमारे राजनैतिक चक्र पर हावी है। बेहतर है कि हम घूस लेने की व्यवस्था को लीगल कर दें। काला धन इस व्यवस्था का अंतर्विरोध है। इस रास्ते पर यह बहुत दूर तक चल ही नहीं पाएगी।
अन्ना और बाबा के आंदोलनों में भी बुनियादी अंतर है। यह अंतर कुछ व्यक्तिगत है और शेष व्यवस्थागत। अन्ना के पीछे सिविल सोसायटी का आधुनिक पढ़ा-लिखा वर्ग है। उसके ज्यादातर काम सफेद पैसे से होते हैं। वह सफेद पैसे की पारदर्शी व्यवस्था चाहता है। रामदेव के योग-शिविरों में आने वाले तबके को काले धन के ब्लैक होल की जानकारी तो नहीं है, पर उसे यकीन है कि देश का सत्तारूढ़ वर्ग बेईमान है। यह बेईमानी वह हर रोज अपनी आँखों से देखता है। रामदेव के योग शिविरों में पिछले तीनेक साल एक सबआल्टर्न राजनैतिक दर्शन विकसित हो रहा था। इसके पीछे कोई योजना होगी, पर वह इन भक्तों की योजना नहीं है। 
राजनीति केवल चुनाव लड़ने तक सीमित नहीं होती। वह जनता के व्यापक सोच-समझ को समझने और समझाने की कला भी है। एक अरसे से हमारे राजनेता चुनाव जीतने और फिर अपनी झोली भरने के काम में लगे थे। जनता को समझने और समझाने के काम से दूर हो गए थे। सबसे ऊँची सीढ़ी पर पढ़ा-लिखा समझदार तबका है, जो इस राजनैतिक कर्म को करने के लिए आगे आया है इसे कारोबार की भाषा में एसईसी-ए कहें। इसके बाद बी,सी और डी वर्ग हैं, जो कस्बों और गाँवों में रहते हैं। इनका एक हिस्सा रामदेव जी के सम्पर्क में है। इससे नीचे का ई से जेड तबका राजनैतिक दृष्टि से अनाथ है। उससे नक्सली राजनीति ने सम्पर्क साधा है। पूरे देश में प्रतिरोध और बगावत की धाराएं बह रहीं हैं। कुछ दिखाई पड़तीं हैं। बाकी दिखाई नहीं पड़तीं क्योंकि उन्हें दिखाने वाला मीडिया विकसित नहीं है।
जब अन्ना हजारे का आंदोलन शुरू हुआ था तब बाबा रामदेव ने उससे कुछ दूरी बरती थी। जब लोकपाल विधेयक के लिए पाँच सदस्य तय हुए तब रामदेव खेमे से असहमति के स्वर सुनाई पड़े थे। रामदेव के रामलीला मैदान प्रकरण के पहले दोनों पक्षों की असहमति के स्वर फिर सुनाई पड़े। अभी अन्ना हजारे ने रामदेव के योग सेना बयान से असहमति जताते हुए उन्हें अपरिपक्व बताया है। इन बातों से गहरे निष्कर्ष नहीं निकालने चाहिए। इस प्रकार के बड़े और बहुल आधार वाले और राजनैतिक दृष्टि से अपरिपक्व आंदोलनों के साथ ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। अपरिपक्व को नकारात्मक अर्थ में न लें। इन आंदोलनों के पीछे जोशो-ज़नून ज़रूर है। गहरा विचार नहीं। इनकी असली ताकत है व्यापक अर्थ में जनता, जो मिलकर दबाव बनाना चाहती है।
अन्ना-आंदोलन की परीक्षा लोकपाल विधेयक के मसौदे से होगी। सरकार की ओर से संकेत दिए जा रहे हैं कि सिविल सोसायटी की सलाह लिए बगैर ही बिल का मसौदा तैयार किया जा सकता है। पर यह संकेत है, फैसला नहीं। लोकपाल और काला धन दोनों मामलों पर सरकार अपने वादों से वापस नहीं जा पाएगी। इस लिहाज से यह घड़ी बहुत नाज़ुक और बेहद महत्वपूर्ण है।     

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

7 comments:

  1. bahut khub, sahmat hain aapse

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  2. सहमत हूँ सर आपकी बातों से.
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    आपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर...यहाँ आपके ब्लॉग की किसी पोस्ट की कल होगी हलचल...
    नयी-पुरानी हलचल

    धन्यवाद!

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  3. वाकई जनता अभ्रष्‍ट, नैति‍क रूप से सुदृढ़ और पारदर्शी चरि‍त्र वाले नेतृत्‍व की तलाश में है। पर ये आसमान से तो टपकेगा नहीं, जनता से ही नि‍कलेगा पर कैसे?? ये पता नहीं। अभी तो बहुत सारे लंगोटीवाले भ्रष्‍टाचारी सामने आ रहे हैं...ये छदम ईमानदार हैं... ईमानदारी का मुखौटा भर लगाये हैं। कुछ भी हो असली ईमानदारी का मौसम..सपनों में ही सही आने लगा है।

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  4. बाबा रामदेव के आन्दोलन भाजपा और अब पंजाब के सी ऍम , हरियाणा के ओम प्रकाश चौटाला जैसे भ्रष्ट नेतायों का रामदेव के खेमे में खडा होना, इस आन्दोलन को कमजोर बनाता है. भाजपा और इन नेतायों को तो रामदेव के पंडाल में चक्कर लगाने का राजनितिक फायदा है लेकिन रामदेव और लोगों के इस आन्दोलन की गंभीरता इससे कम हो जाती है क्योंकि यह बाकी राजनितिक दल भी अपनी नीतियों और भ्रष्टाचार के पमाने में कांग्रेस से दो कदम आगे भले ही हों, कम नहीं हैं. रामदेव और उनके रणनीतिकार क्यों इस बात को नहीं समझ पा रहे या और क्या वजह है ....की वोह भ्रष्टाचार की खिलाफ भ्रष्ट लोगों को ही अपने साथ खडा किये हुए हैं.

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  5. कहीं न कहीं कोई प्रॉब्‍लम तो है.

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  6. सही कहा आपने। जनसंदेश भी पढा था आपका लेख। शुक्रिया।

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    हॉट मॉडल केली ब्रुक...
    नदी : एक चिंतन यात्रा।

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