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Monday, June 6, 2011

रामदेव और मीडिया

एक अरसे बाद भारतीय मीडिया को राजनैतिक कवरेज़ के दौरान किसी दृष्टिकोण को अपनाने का मौका मिल रहा है। अन्ना हज़ारे और अब रामदेव के आंदोलन के बाद राष्ट्रीय क्षितिज पर युद्ध के बादल नज़र आने लगे हैं। साख खोने के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कवरेज और प्रिंट मीडिया का दृष्टिकोण आज भी  प्रासंगिक है। सत्ता के गलियारे में पसंदीदा चैनल और पत्रकारों की कमी नहीं है। वस्तुतः बहुसंख्यक पत्रकार सरकार से बेहतर वास्ता रखना चाहते हैं। हमारे यहाँ खुद को निष्पक्ष कहने का चलन है। फिर भी पत्रकार सीधे स्टैंड लेने से घबराते हैं। बहरहाल रामदेव प्रसंग पर आज के अखबारों पर नज़र डालें तो दिखाई पड़ेगा कि जितनी दुविधा में सरकार है उससे ज्यादा दुविधा में पत्रकार हैं। दिल्ली से निकलने वाले आज के ज्यादातर अखबारों ने रामदेव प्रकरण पर सम्पादकीय नहीं लिखे हैं या लिखे हैं तो काफी संभाल कर। हाथ बचाकर लिखे गए आलेख संस्थानों के राजनैतिक दृष्टिकोण और पत्रकारों के संशय को भी व्यक्त करते हैं।

द यूपीए'ज़ पोलिटिकल बैंकरप्सी शीर्षक से अपने सम्पादकीय में द हिन्दू ने लिखा है कि बाबा रामदेव के शिविर पर आधी रात को पुलिस कार्रवाई निरंकुश, बर्बर और अलोकतांत्रिक है। हिन्दू ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि एक ओर प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में चार मंत्री जिस व्यक्ति के स्वागत में हवाई अड्डे पहुँचे उसे ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने ठग घोषित कर दिया। ...रामदेव की माँगों पर ध्यान दें तो वे ऊटपटाँग लगती हैं और कई माँगें तो भारतीय संविधान के दायरे में फिट भी नहीं होतीं।...रामदेव मामले ने यूपीए सरकार का राजनैतिक दिवालियापन साबित कर दिया है।


 हिन्दुस्तान टाइम्स ने बाबा की टोली पर पुलिस कार्रवाई की तुलना जालियांवाला बाग से करने को आक्रामक बताया है। मूलतः उसमें रामदेव के पीछे से नज़र आ रही भाजपा की भूमिका को निशाना बनाया गया है। बहरहाल उसमें एक दृष्टिकोण है। पर इसी संस्था के हिन्दी अखबार हिन्दुस्तान ने इस विषय पर सम्पादकीय नहीं लिखा, बल्कि एक सामान्य सा आलेख छापा है, जिसका शीर्षक है योग के उपयोग। इंडियन एक्सप्रेस ने इस प्रकरण पर सम्पादकीय नहीं लिखा। हाँ सरकार से यह गुजारिश की है कि स्थितियाँ अराजक होती जा रहीं हैं, इसलिए संसद का सत्र बुलाएं। पायनियर ने अपने राजनैतिक दृष्टिकोण के अनुरूप पुलिस कार्रवाई को बर्बर बताया है।  टाइम्स ऑफ इंडिया ने सम्पादकीय नहीं लिखा। इस मामले की कवरेज विस्तार से की है।

हिन्दी के अखबारों ने रामदेव मामले पर ज्यादा ध्यान दिया है। ज्यादातर रामदेव के साथ हैं। 
इनके सम्पादकीयों के अंश नीचे पढ़ें-


टाइम्स के हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स ने यह भी सही वह भी सही के अंदाज़ में लिखा है। उसकी कुछ पंक्तियाँ नीचे दी हैं। गौर फरमाएं-
...इस मामले में भावुक होने की जरूरत नहीं है। परिपक्व समाज ऐसी जगहों पर तर्कपूर्ण ढंग से फैसले लेता है। प्रशासन ने दिल्ली में उनका अस्थायी शिविर हटाया है, भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई पर रोक नहीं लगाई है। जिस तरह हरिद्वार के अपने आश्रम से उन्होंने योग और देसी औषधियों को पूरे देश में इतना लोकप्रिय बनाया है, उसी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई भी वे वहां से प्रभावी ढंग से लड़ सकते हैं। ...लेकिन लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपने ढंग से प्रशासन चलाने की आजादी नहीं होती। उसके लिए एक निश्चित व्यवस्था बनी हुई है। कोई जांच होनी है तो वह जांच पुलिस या खुफिया एजेंसियां ही करेंगी। उन्हें सरकार ही आदेश देगी। कोई कानून पास होना है तो वह संसद में पास होगा। यह काम जंतर मंतर या रामलीला मैदान में बैठकर नहीं किया जा सकता, चाहे उसे करने वाला व्यक्ति कितना ही प्रभावशाली और लोकप्रिय हो। प्लेटो के रिपब्लिक की तरह किसी एक मैदान में जमा होकर कानून नहीं बनाया जा सकता। ...लोकतंत्र में ऐसी सभाओं और आयोजनों द्वारा हम सरकार पर दबाव पैदा करते हैं, लेकिन उसकी बांह मरोड़ने का सपना देखना आत्मघाती हो सकता है। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि रामलीला मैदान की कार्रवाई इमर्जेंसी के दिनों की याद दिलाती है। लेकिन पुलिस और प्रशासन अक्सर इसी तरह से काम करता है। चाहे भट्टा पारसौल से राहुल गांधी को उठाया जाए, आडवाणी की रथयात्रा रोकी जाए या राष्ट्रपति कलाम को गुजरात जाने से रोका जाए। प्रशासन कई बार क्रूर व्यवहार करता है, लेकिन जन नायक भी दोहरे उद्देश्यों वाला काम करते हैं। ...दोनों में से किसी को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। बहरहाल देश और दिल्ली को बाबा रामदेव का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने अपने प्रयासों से भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय चिंतन के केंद्र में ला दिया है। और सरकार को इस पर विचार करना चाहिए कि लोग इसे लेकर इतने बेजार क्यूं हो चुके हैं। वह भ्रष्टाचार को विकास का साइड इफेक्ट बताकर अब जनता को और नहीं फुसला सकती। 



बर्बरता का प्रदर्शन
कोई सरकार अपने कर्मो से किस तरह खुद को कलंकित कर सकती है, इसका निष्कृष्ट उदाहरण है केंद्रीय सत्ता। देश को यह बताया जाना चाहिए कि जो सरकार पहले बाबा रामदेव के समक्ष नतमस्तक होती है और यहां तक कि उनकी चिरौरी करती नजर आती है वही कुछ घंटे बाद उनके और साथ ही उनके तमाम समर्थकों के साथ भेड़-बकरियों जैसा व्यवहार क्यों करती है और वह भी रात के अंधेरे में? चार जून की रात केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के समर्थकों-यहां तक कि महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गो के साथ जो हुआ उसे बर्बरता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। केंद्र सरकार ने निहत्थे लोगों के साथ पशुवत व्यवहार कर खुद को शर्मसार करने के साथ ही देश को यह अवसर दिया है कि वह उसकी निंदा-भ‌र्त्सना करने के लिए आगे आए। रामलीला मैदान में सोते हुए लोगों पर पुलिसिया कार्रवाई आपातकाल की याद दिलाने के साथ ही ढुलमुल और दिन-प्रतिदिन आम जनता का विश्वास खोती जा रही मनमोहन सिंह सरकार के अहंकार को भी रेखांकित करती है। ऐसा लगता है कि चौतरफा हमलों से घिरी केंद्र सरकार उचित-अनुचित में भेद करना भी भूल गई है। यदि सरकार को बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के साथ ऐसा करना था तो फिर उसने उन्हें रामलीला मैदान में शिविर लगाने और सत्याग्रह करने की इजाजत ही क्यों दी? केंद्र सरकार की मानें तो रामदेव के खिलाफ जबरदस्ती करने की जरूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि उन्होंने समझौते का उल्लंघन किया। इस संदर्भ में बाबा रामदेव के एक सहयोगी की चिट्ठी भी दिखाई जा रही है। यदि चिट्ठी को सही भी मान लें तो क्या उसका इस्तेमाल बाबा को नीचा दिखाने के इरादे से करना सही था? यदि यह भी मान लें कि बाबा रामदेव ने वादाखिलाफी की तो क्या उसके प्रतिकार का वही तरीका उचित था जो दिल्ली पुलिस ने अपनाया? यदि केंद्र सरकार को बाबा की वादाखिलाफी पर गुस्सा आ गया तो उसे ऐसा ही गुस्सा अपने पर क्यों नहीं आता? क्या यह तथ्य नहीं कि 2004 में मनमोहन सिंह ने सत्ता संभालते ही यह वादा किया था कि वह लोकपाल विधेयक लेकर आएंगे? यह तो सबके संज्ञान में है कि पिछले वर्ष देश को सगर्व बताया गया था कि केंद्र सरकार कुछ ही महीनों में भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए विधेयक लेकर आएगी। आखिर अपनी इन वादाखिलाफियों पर सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता? सच तो यह है कि केंद्र सरकार अभी भी वादाखिलाफी करने पर तुली हुई है। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद उसने यह भरोसा दिलाया था कि वह मजबूत लोकपाल विधेयक तैयार करने के प्रति प्रतिबद्ध है, लेकिन वह न केवल अपने कदम पीछे खींच रही है, बल्कि ऐसे पैंतरे चला रही है जिससे यह विधेयक तैयार ही न किया जा सके। आखिर यह कैसी सरकार है जो जिस जनता द्वारा चुनी गई है उसी की आकांक्षाओं को मिट्टी में मिलाने का काम कर रही है? संप्रग सरकार कोई भी काम ढंग से नहीं कर पा रही है और अब तो स्थिति इतनी दयनीय है कि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता की ओर से ऐसा आचरण प्रदर्शित किया जा रहा है जैसे दाएं हाथ को यह मालूम न हो कि बायां हाथ क्या कर रहा है? केंद्रीय सत्ता ने अपने हाथों अपनी जैसी दुर्गति करा ली है उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि वह अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा अर्जित करने में सफल रहेगी।


विनाश काले विपरीत बुद्धि


रामलीला मैदान में अनशन कर रहे बाबा रामदेव और उनके हजारों अनुयायियों के साथ दिल्ली पुलिस ने शनिवार को आधी रात के बाद जैसा सुलूक किया, वह बर्बर तो है ही, उससे तानाशाही की भी बू आती है। दूर-दराज से आए लोगों, महिलाओं और बच्चों पर लाठियां चलाने वाली सरकार ने बाद में जहां अपनी इस अमानवीयता को जायज ठहराया, वहीं दिल्ली पुलिस ने तर्क गढ़ा कि बाबा की जान को खतरा था, इसलिए उन्हें वहां से हटाया गया! फिर वहां लाठियां भांजती और आंसू गैस छोड़ती हजारों पुलिस क्यों थी, इसका जवाब सरकार के पास नहीं है।

बाबा रामदेव और उनके समर्थक अचानक रामलीला मैदान में इकट्ठा नहीं हो गए थे। भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आंदोलन की बात बाबा ने बहुत पहले सरकार को बताई थी। उनमें आपसी संवाद और सहमति भी हुई थी, जो बाद में असहमति में बदल गई। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया इतनी भी अमानवीय नहीं होनी चाहिए थी। मौजूदा प्रसंग में सरकार ने लगातार गलतियां कीं। पहले उसके चार वरिष्ठ मंत्री बाबा को मनाने एयरपोर्ट पहुंच गए, फिर अचानक उन्होंने उनकी चिट्ठी सार्वजनिक कर दी, और आखिर में तो अति ही हो गई। सरकार के तानाशाही रवैये से स्पष्ट है कि वह योगगुरु की ज्यादातर शर्तें मान लेने का सिर्फ नाटक कर रही थी। हर रोज भ्रष्टाचार के एक नए खुलासे से बेपरदा होती सरकार अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद बाबा रामदेव के अनशन को किसी भी कीमत पर सफल नहीं होने देना चाहती थी।

इसीलिए बाबा को मनाने की कोशिश विफल हो जाने के बाद उसने इस आंदोलन को जबरन दबाने की ठान ली थी। अब पता यह चला है कि दो केंद्रीय मंत्रियों के साथ एक होटल में बाबा की मुलाकात के दौरान भी भारी संख्या में पुलिस मौजूद थी। एक मंत्री ने बाबा को चेतावनीदी थी कि अगर उनके मंच पर अन्ना हजारे आए, तो सरकार उनसे कोई बात नहीं करेगी। यानी एक के बाद एक घोटाले इस सरकार को शर्मिंदा नहीं करते, बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने पर उसकी परेशानी बढ़ जाती है। इस घटना के बाद सिविल सोसाइटी ने आज होने वाली जन लोकपाल विधेयक की ड्राफ्ंिटग कमेटी की बैठक में भाग न लेने का फैसला तो किया ही है, अन्ना हजारे और रामदेव, दोनों ने आंदोलन आगे जारी रखने की बात कही है।

वैसे तो तमाम राजनीतिक दलों और संगठनों ने इस बर्बरतापूर्ण कार्रवाई का तीखा विरोध किया है, लेकिन उम्मीद करनी चाहिए कि यह मुद्दा अब यूपीए के खिलाफ एक व्यापक गठजोड़ का अवसर भी बनेगा। यह बर्बरता खुद सरकार के लिए भी बहुत महंगी पड़ेगी।

दैनिक भास्कर ने इस विषय पर सम्पादकीय नहीं लिखा पर पहले सफे पर श्रवण गर्ग का 
लेख प्रकाशित किया है



















7 comments:

  1. सरकारी जूठन पर पलने वाला मिडिया क्या लिखेगा और क्या दिखाया ? जनता को सब कुछ पता है |

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  2. अच्छी प्रस्तुति।

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  3. कांग्रेस की मौत होने वाली है

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  4. Either Ramdev is a religious leader or a political leader it does not matter. Issue and questions raised by Ramdev on corruption, Black money and failure of governance are effective and appealing to common public. Attack by UPA government on sleeping peoples shows its confusion in deciding in how to tackle this issue against corruption and congress led UPA's failure in curbing corruption.
    But history, all over the world, shows, peoples movements can not be suppressed by any means.

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  5. लोग किसी धार्मिक गुरू के खिलाफ बोलते हुये डरते हैं कतराते हैं वर्ना उन्हें सारा खेल चाहे सरकार हो या बाबा ये समझ आ गया है कि दोनो मे कुर्सी की लडाइ से अधिक और कोई लेना देना नही। अगर बाबा सच मे सत्याग्रह करते तो लोगों को पितता हुया देख कर भागते नही अच्छे काम के लिये गिरफ्तारी देते। अभी तक बाबा ने भी धन इकट्ठा करने मे ही महारत हासिल की है राजनिती की अभी समझ नही\ नेपाली बाबू को प्राईमनिस्टिर बनाने के सपने देख रहे हैं और बी जे पी कितनी सीरियस है इस मुद्दे पर ये सुशमा स्वराज के ठुमके देख कर ही पता चलता है उधर सारा देश इस घतना पर शोक व्यक्त कर रहा है तो बी जे पी को कुर्सी मिलती दिखाई दे रही है ये ठुमके इसी बात का सन्केत हैं\ मीडिया सरकार की हो या बाबा की सब कुछ निश्पक्ष नही दिखाता। \ जितना शोर बाबा ने झूठ मे मचाया है कि बर्बरता हुयी उतना कुछ भी नही एक सन्यासी के मुँह से ये झूठ कितना अच्छा है? हजारों की भीद को खदेडते हुये और फिर जनता ने जो पत्थर चलाये उस के मुकाबले नुकसान कम हुया मीडिया मे कहाँ दिखाया है बर्बरता से पीटते हुये? किसी को उठा कर दूसरी जगह ले जाना बरबरता नही। ये सब इस लिये कि बाबा लोगों को गुमराह कर रहे हैं और कुछ नही। 10 सालों मे करोंदों की सम्पति अर्जित कर अब उन्हें कुर्सी दिख रही है। साम्प्रदायिक ताकतों को बढावा दे कर कौन सा देश का भला हो रहा है? सब के पोल खुल जायेंगे फिर भी सरकार का इस तरह आधी रात को कार्यवाई करना समझ से परे है। एक दिन और इन्तजार करना चाहिये था। धन्यवाद।

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  6. बहुत अच्छा सर। मुझे लगता है कि मीडिया अपनी भूमिका एक बार फिर से सही तरीके से निभा रही है। आगे क्या होता है यह भी देखना दिलचस्प होगा। आज ही पता चला कि सरकार ने टीवी चैनलों को एक एडवाइजरी लैटर भेजा है। क्या कोई चैनल इतनी हिम्मत करेगा कि उस लैटर को टीवी पर दिखाकर कहे कि देखो हमें यह पत्र आया है। हम पर लगाम लगाने की तैयारी है।
    आप के ब्लॉग पर आने से यह फायदा होता है कि किसी भी बड़े और ज्वलंत मुद्दे पर अक्सर मीडिया का सार पढऩे को मिल जाता है। संपादकीय क्या कह रहे हैं यह भी जानकारी मिल ही जाती है। अगर हो सके तो यह भी कीजिए कि टीवी चैनल किस तरह का रुख अपना रहे हैं यह भी दिया करें।

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