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Monday, May 30, 2011

उफनती लहरें और अनाड़ी खेवैया



यूपीए सरकार की लगातार बिगड़ती छवि को दुरुस्त करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस महीने की दस तारीख को पब्लिक रिलेशनिंग के लिए एक और ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाया है। इस ग्रुप की हर रोज़ बैठक होगी और मीडिया को ब्रीफ किया जाएगा। यह सामान्य सी जानकारी हमारे राजनैतिक सिस्टम के भ्रम और कमज़ोरियों को भी ज़ाहिर करती है। सरकार का नेतृत्व तमाम मसलों पर जल्द फैसले करने के बजाय ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाकर अपना पल्ला झाड़ता है। यूपीए-दो ने पिछले साल में कितने जीओएम बना लिए इसकी औपचारिक जानकारी नहीं है, पर इनकी संख्या 50 से 200 के बीच बताई जाती है। दूसरी ओर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में एक और संस्था खड़ी होने से राजनीति और राजनैतिक नेतृत्व बजाय ताकतवर होने के और कमज़ोर हो गया है। यह कमज़ोरी पार्टी की अपनी कमज़ोरी है साथ ही गठबंधन सरकारों की देन भी है।
ताकतवर आर्थिक शक्ति बनते देश की सत्ता का पहिया कमज़ोर राजनीति की धुरी पर रखा होगा तो उससे बेहतर परिणामों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। पिछले दो दशक में हमने दो समानांतर प्रवृत्तियों को एक साथ उभरते देखा है। एक ओर आर्थिक गतिविधियां बढ़ी हैं, जिनके पीछे राज्य की भूमिका को कम करते जाने की कामना है। दूसरी ओर उफनती लहरों पर उछलती और चक्रवाती तूफानों से चकरघिन्नी राजतंत्र की नाव है, जिसके दिशा-सूचक यंत्रों ने काम करना बन्द कर दिया है। ऐसे में कई तरह के न्यस्त स्वार्थ सिर उठाने में कामयाब हुए हैं। हमारे जैसे विकासशील देशों में राज्य और राजतंत्र का कमज़ोर होना अशनि संकेत है।
हाल के वर्षों में राज्य की भूमिका उन पश्चिमी देशों में खास तौर से दिखाई पड़ी, जहाँ आर्थिक शक्तियों ने राज्य को पंगु कर दिया था। हाल की आर्थिक मंदी पूँजीवादी सिस्टम के सामने पिछले साठ साल की सबसे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी। इन राज्यों ने बड़े आर्थिक पैकेज न दिए होते बैंकिंग और वित्तीय-व्यवस्था का सूपड़ा साफ था। पर ऐसा नहीं हुआ। पश्चिमी देशों की राजनीति और राज-व्यवस्था पर कॉरपोरेट अर्थतंत्र का गहरा असर है, पर जनता का दबाव भी सरकारों पर बढ़ा है। शेयर धारकों के दबाव में कॉरपोरेट-डेमोक्रेसी के द्वार भी खुले हैं। यह सब पूँजीवाद के रूपांतरण में सहायक होगा या नहीं कहना मुश्किल है, पर कॉरपोरेट-क्राइम पश्चिम का लोकप्रिय जुमला है, जो भारत में भी गूँजने लगा है।
राज-व्यवस्था को अपने हितों की ओर मोड़ने का काम कौन करता है और कैसे करता है यह हमें अब दिखाई पड़ रहा है। पश्चिमी देशों में यह काम एक सदी पहले से चल रहा था। उनकी व्यवस्था ने एक सदी में बिजनेस हाउसों की जालसाजी के तमाम तोड़ तैयार किए हैं। उसके लिए जिस राजनीति की ज़रूरत होती है, वह बगैर जनता की भागीदारी के सम्भव नहीं। हमारे यहाँ आज भी जनता को नहीं लगता कि जालसाजी और बड़े आर्थिक अपराधों से घिरे लोगों को सजाएं मिलेंगी। उसे अपनी राजव्यवस्था और राजनीति पर अविश्वास और माफिया-तंत्र की ताकत पर भरोसा है। बिजनेस-माफिया की ताकत, आर्थिक अपराध और धोखाधड़ी अलग से विचार का विषय है, पर ज्यादा बड़ी तकलीफ राजनीति और राजनैतिक व्यवस्था के कमज़ोर होते जाने की है।
पता नहीं कि गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में ऐसा कुछ दर्ज है या नहीं, पर यूपीए-दो के कार्यकाल के पहले दो साल में इतने ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का बनना बताता है कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था में बुनियादी खोट है। संसदीय शासन पद्धति में कैबिनेट ज्यादातर फैसले करती है। जिन मसलों पर आम राय नहीं बन पाती उन्हें प्रधानमंत्री तय करते हैं। इस राजनैतिक व्यवस्था के समानांतर कैबिनेट सेक्रिटेरिएट और कमेटी ऑव सेक्रेटरीज़ होती हैं, जो छाया के रूप में काम करती है।
ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की व्यवस्था भी हमें ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से मिली है, पर उस व्यवस्था में ऐसे ग्रुप की ज़रूरत कभी-कभार पड़ती है। हमारी सरकार को अपनी छवि सुधारने और प्रेस को ब्रीफ करने जैसे काम के लिए जीओएम की ज़रूरत होगी तो बाकी काम बेशक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) को करने होंगे। इस तरह के ग्रुपों की शुरूआत 1989 में केन्द्र में बहुदलीय सरकार बनने के बाद शुरू ही थी। एनडीए के कार्यकाल में 32 जीओएम बनाए गए और यूपीए-1 के कार्यकाल में 40। तमाम मसलों पर अलग-अलग राय होने के कारण आम सहमति बनाने के लिए मंत्रियों के छोटे ग्रुपों की ज़रूरत महसूस हुई। लगभग इसी वजह से संसदीय व्यवस्था में कैबिनेट की जरूरत पैदा हुई थी। जब तक ताकतवर प्रधानमंत्री होते थे तब तक कैबिनेट प्रधानमंत्री के करीबी लोगों की जमात होती थी। इससे व्यक्ति का रुतबा और रसूख जाहिर होता था। पर अब ये ग्रुप गठबंधन धर्म की मजबूरी और फैसले करने से घबराते नेतृत्व की ओर इशारा करते हैं।  
अन्ना हजारे के अनशन के बाद से देश में राजनीति और सिविल सोसायटी के टकराव की बहस शुरू हो गई है। वास्तव में टोनों का कोई टकराव नहीं है। सिविल सोसायटी नागरिकों से बनती है। वह राजनैतिक कर्म को दिसा देती है। स्वयं राजनीति नहीं करती। पर जब राजनीति अपने कर्म को भूल जाए तब क्या होगा? यह संशय जल्द खत्म होने वाला नहीं है, क्योंकि संस्थाओं का विकास हो रहा है। ज़रूरी नहीं कि जैसा पश्चिमी देशों में हुआ वैसा ही हमारे यहाँ होगा। पर इसे तो देखना होगा कि राजनीति कमज़ोर हो रही है तो क्यों? और यह भी कि रास्ता किधर से है?   

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

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