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Thursday, May 5, 2011

राजनीति का रखवाला कौन?


समय-संदर्भ
 पीएसी या जेपीसी बहुत फर्क नहीं पड़ता ज़नाब
अब राजनीति माने काजू-कतरी

ब्रिटिश कॉमन सभा में सन 1857 में पहली बार यह माँग उठी थी कि सरकारी खर्च सही तरीके से हुए हैं या नहीं, इसपर निगाह रखने के लिए एक समिति होनी चाहिए। सन 1861 में वहाँ पहली पब्लिक एकाउंट्स कमेटी की स्थापना की गई। हमने इसे ब्रिटिश व्यवस्था से ग्रहण किया है। ब्रिटिश व्यवस्था में भी पीएसी अध्यक्ष पद परम्परा से मुख्य विपक्षी दल के पास होता है। इन दिनों वहाँ लेबर पार्टी की मारग्रेट हॉज पीएसी की अध्यक्ष हैं। पीएसी क्या होती है और क्यों वह महत्वपूर्ण है, यह बात पिछले साल तब चर्चा में आई जब टू-जी मामले की जाँच का मसला उठा।

पीएसी या जेपीसी, जाँच जहाँ भी होगी वहाँ राजनैतिक सवाल उठेंगे। मुरली मनोहर जोशी द्वारा तैयार की गई रपट सर्वानुमति से नही है, यह बात हाल के घटनाक्रम से पता लग चुकी है। पर क्या समिति के भीतर सर्वानुमति बनाने की कोशिश हुई थी या नहीं यह स्पष्ट नहीं है। बेहतर यही था कि रपट के एक-एक पैरा पर विचार होता। पर क्या समिति में शामिल कांग्रेस और डीएमके सदस्य उन पैराग्राफ्स पर सहमत हो सकते थे, जो प्रधानमंत्री के अलावा तत्कालीन वित्त और संचार मंत्रियों के खिलाफ थे। और क्या पार्टी का अनुशासन ऐसी समितियों के सदस्यों पर लागू नहीं होता? साथ ही क्या मुरली मनोहर जोशी राजनीति को किनारे करके ऑब्जेक्टिव रपट लिख सकते थे? बहरहाल जोशी जी के फिर से पीएसी अध्यक्ष बन जाने के बाद एक नया राजनैतिक विवाद खड़ा होने के पहले ही समाप्त हो गया। यह हमारी व्यवस्था की प्रौढ़ता की निशानी भी है।

शनिवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक समारोह में सीबीआई से कहा, आप निर्भय और निष्पक्ष होकर अपना काम करें। प्रधानमंत्री को यह बात क्यों कहनी पड़ी? क्या सीबीआई निर्भय और निष्पक्ष होकर काम नहीं करती है? नहीं करती है तो क्या वह प्रधानमंत्री के कहने से निर्भय और निष्पक्ष हो जाएगी? ये सारे सवाल इसलिए हैं कि हाल में सिविल सोसायटी और सक्रिय राजनीति में से कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है, इस आशय की निरर्थक बहस चल पड़ी है। इसमें दो राय नहीं कि सक्रिय राजनीति से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है, पर राजनीति माने छुट्टा सांड़ भी तो नहीं है। राजनीति या जन-प्रतिनिधियों पर जनता किस तरह से नियंत्रण करे, इसे भी राजनीति तय करेगी क्या?

भारतीय राजनीति में सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच एक-दूसरे को बेईमान और भ्रष्टाचारी साबित करने का संग्राम चलता रहता है। चूंकि वोट पाने का यह भी एक तरीका है। अंतिम लक्ष्य है वोट पाना, जबकि असली काम उसके बाद शुरू होता है। हाल में जितने भी घोटाले सामने आए हैं, उनका निष्कर्ष क्या है? यही कि जैसे ही ताकत मिली व्यवस्था को दोहन शुरू। इस काम में जो-जो बातें आड़े आ सकतीं हैं, उन्हें सीधा कर दिया गया। सीबीआई भी उनमें से एक है। ऐसा नहीं कि हमारे देश में जाँच करने वाले नहीं हैं। वे हैं भी तो उन्हें निष्क्रिय करने वाले भी मौजूद हैं। और वे लोग हैं सर्वोच्च सत्ताधारी। क्या वजह है कि देश के सारे माफिया, बड़े व्यापारी, फिल्म अभिनेता और ब्यूरोक्रेट राजनीति में आना चाहते हैं? राजनीति में ऐसा कौन सा शहद छिपा है कि मधुमक्खियाँ उसके चारों ओर भिनभिनाती रहती हैं? 

दो दशक पहले चुनाव आयोग ने यह साबित किया कि कोई संवैधानिक संस्था चाहे तो वह पूरी व्यवस्था को बदल सकती है। चुनाव आयोग की यह ताकत इसलिए भी है कि वह सरकार के दबाव में काम नहीं करता। बेशक चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों के विवाद हैं, पर इस संस्था ने अपनी सार्थकता सिद्ध कर दी है। ऐसी सार्थकता साबित करने का मौका सीबीआई के पास नहीं है। यही सीबीआई जब सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर काम करती है तो बेहतर परिणाम देती है। इसका कारण क्या है? चुनाव आयोग को भी अपने बुनियादी कामों को लागू कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट से मदद लेनी पड़ी। प्रत्याशियों के हलफनामे को लेकर देश की सारी पार्टियाँ एक साथ थीं। आज भी पार्टियों की फंडिंग व्यवस्था पारदर्शी नहीं है। जब तक वह व्यवस्था नहीं होगी, राजनीति को अपराध और कारोबार के माफियातंत्र से मुक्त कराना सम्भव नहीं।

पीएसी या जेपीसी की रपटों को राजनीति की लपटों से बचाना सम्भव नहीं होगा। बोफोर्स पर बनी जेपीसी का क्या हुआ? पीएसी या जेपीसी के झगड़े में संसद के समूचे सत्र को हमने खत्म होते देखा है। यह मामला अभी जीवित है। लोकपाल बिल पर सहमति बन पाएगी या नहीं कहना मुश्किल है, पर इतना मानना चाहिए कि जाँच करने वाली एजेंसियों को राजनीति और ब्यूरोक्रेसी के दबाव के बाहर होना चाहिए। दूसरे राजनीति को धन-शक्ति के जकड़-जाल से बाहर किया जाना चाहिए। इसके लिए कॉरपोरेट हाउसों के डोनेशन पूरी तरह पारदर्शी हों और पार्टियों के खजानों की निगरानी की साफ व्यवस्था हो। भारत में कॉरपोरेट-क्राइम बढ़ रहा है। इसकी जाँच एजेंसियों को भी राजनीति के दबाव से मुक्त होना चाहिए।

राजनैतिक कर्म मुफ्त में सम्भव नहीं है। सामान्य कार्यकर्ता को भी चार पूड़ी और चाय पिलानी पड़ती है। पर हमारे यहाँ छोटे इनवेस्टमेंट से डबल मुनाफा चाहने वालों की तादाद बड़ी है। इनमें बिजनेसमैन, बिल्डर, ब्यूरोक्रेट, राजनेता और भाई एक साथ बैठते हैं। यह अस्वाभाविक गठजोड़ है। इस पर नज़र रखने का काम किसका है? आपका है। आप ही सिविल सोसायटी हैं।      


3 comments:

  1. व्यवस्था का हाल बुरा है..

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  2. चुनाव जीतकर आने का मतलब देश व समाज को बेच कर अपना घर व गोदाम भरने वालों को अब इस दुनिया से भी जाना होगा...क्योकि भूखे नंगे जब हिंसक होते हैं तो 6000 करोड़ के महल को मिनटों में मिटटी में मिला देते हैं...इसलिए ऐसा सोचने वालों की खैरियत इसी में है की सुधर जाओ और आम लोगों का खून चुसना बंद करो...चुनाव जितने के साथ साथ आम लोगों के दिलों में जगह बनाने का प्रयास करो...

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  3. सभी समस्याओं की जद धर्म की गलत व्याख्या के प्रचालन में है,इसे ठीक किये बगैर कुच्छ ठीक नहीं होगा.

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