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Friday, April 8, 2011

समस्या नहीं समाधान बनिए




अन्ना हजारे के अनशन ने अचानक सारे देश का ध्यान खींचा है। यही अनशन आज से दो साल पहले होता तो शायद इसे इतनी प्रसिद्धि न मिली होती। देश का राजनैतिक-सामाजिक माहौल एजेंडा तय करता है। पिछले एक साल में भ्रष्टाचार से जुड़े मसले तमाम मसले सामने आने के बाद लोगों को नियम-कानूनों का मतलब समझ में आया है। जो भी पकड़-धकड़ हुई है वह इसी कानून-व्यवस्था के तहत हुई है। और जो कुछ सम्भव है वह इसी व्यवस्था के तहत होगा। इसलिए दो बातों को समझना चाहिए। एक, यह आंदोलन व्यवस्था विरोधी नहीं है, बल्कि व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है। दूसरे यह देश की सिविल सोसायटी के विकसित होने की घड़ी है। अरविन्द केजरीवाल, किरन बेदी, संतोष हेगडे और प्रशांत भूषण जैसे लोग इसी व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं और आज भी हैं।

लोकपाल बिल को लेकर कोई मतभेद नहीं है। सरकार भी इसे लाना चाहती है। समस्या इसका प्रारूप तैयार करने की प्रक्रिया का है। दूसरा यह कि जन-लोकपाल का रिश्ता विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ कैसा होगा। अन्ना के साथ खड़े संगठन इंडिया अगेंस्ट करप्शन की वैबसाइट पर इस कानून का वैकल्पिक मसौदा दिया गया भी है, जिसे लेकर अन्ना के सहयोगियों के बीच भी मतैक्य नहीं है। सामान्य-जन इस कानून की मूल भावना के साथ हैं, पर सबको यह नहीं मालूम कि व्यवस्था काम कैसे करती है। इसलिए बेहतर होगा कि हम अपनी व्यवस्था को समझें और उसे सुधारने के तरीकों को समझें। केवल भीड़ जुटाने शोर मचाने और रास्ते रोकने से बदलाव नहीं होते।

लोकायुक्त का मामला करीब पचास साल से राष्ट्रीय एजेंडा पर है। पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने ही इसका सुझाव दिया था। एकबार यह बिल लोकसभा से पास होने के बाद भी लागू नहीं हो पाया। इसके बाद कम से कम नौ बार यह किसी न किसी रूप में संसद के द्वार तक पहुँचा। जेपी आंदोलन के बाद 1977 में बनी जनता-सरकार भी इसे बना नहीं पाई। हालांकि इस दौरानराज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति का कानून बना। कम से कम 18 राज्यों में लोकायुक्त तैनात भी हुए, पर भ्रष्टाचार को रोक पाने में खास सफलता नहीं मिली। सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार-निरोधी व्यवस्था सीवीसी के दफ्तर से संचालित होती है। सीवीसी का छोटा सा दफ्तर देश के विशाल सरकारी ढाँचे के भ्रष्टाचार को रोक पाने में समर्थ है ही नहीं। यों भी सीवीसी की भूमिका सलाह देने की है। कार्रवाई करने वाली एजेंसियाँ दूसरी हैं। अन्ना हजारे की माँग में यह बात शामिल है कि जन-लोकायुक्त को एफआईआर दर्ज कराने का अधिकार हो।

यह कानून कैसा बने इसका सवाल बाद में आता है। पहला प्रश्न है कि क्या सरकार किसी कानून को बनाने में गैर-सरकारी लोगों की मदद ले सकती है। हमारे संविधान में सरकारी विधेयकों के साथ-साथ गैर-सरकारी विधेयकों की व्यवस्था भी है। पर व्यवहार में किसी प्राइवेट बिल के कानून बनने की सम्भावना नहीं है। इसलिए सरकार को साथ में लेना ज़रूरी है। सरकार के सामनं भी बाध्यता नहीं है कि वह किसी कानून को बनाने के पहले जनता से बात नहीं करेगी। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों, सामाजिक कार्कर्ताओं और प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारियों से मशवरा लेना कोई नई बात नहीं है।  

अण्णा हजारे जिस जन-लोकायुक्त विधेयक के लिए प्रयास कर रहे हैं वह प्रतीक मात्र है। हालांकि इस बिल को तैयार करने में संतोष हेगड़े से लेकर शांति भूषण जैसे न्यायविदों की सलाह है, पर सिविल सोसायटी इस बिल पर पूरी तरह सहमत नहीं है। इस बिल की भाषा काफी सख्त है और इसमें न्यायपालिका और विधायिका को कड़ी हिदायतें दी गईं हैं। जनांदोलनों की दिक्कत यह है कि वे किसी सुनिश्चित विचार के आधार पर न चलें तो उनमें भटकाव की सम्भावनाएं बहुत होतीं हैं। इस आंदोलन के साथ भी अंदेशे जुड़े हैं। पहली बात इसका लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए।

सम्भव है सरकार सिविल सोसायटी की भागीदारी को मंज़ूर कर ले। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में यूपीए ने सिविल सोसायटी को भागीदार बनाया भी है। अन्ना के सहयोगी प्रशांत भूषण को इस बात पर आपत्ति नहीं है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ही लोकपाल बिल का नया प्ररूप बना दे। अरुणा रॉय और उनके कुछ सहयोगियों ने वक्तव्य जारी किया है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दर-किनार करने का हमारा लक्ष्य नहीं है। अन्ना हज़ारे कहते हैं कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की एक उप समिति ने लोकपाल बिल के बाबत सलाह दी है, पर सरकार एनएसी के प्रति भी विश्वास की भावना नहीं रखती। हाल में सार्वजनिक वितरण प्रणाली और भोजन के अधिकार सम्बन्धी सलाह की सरकार उपेक्षा कर चुकी है।

जन-प्रतिनिधियों, संसदीय-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था और प्रशासन पर पूरी तरह अविश्वास भी अनुचित है। आखिरकार इसी व्यवस्था के मार्फत हमें काम करना है। जन-लोकपाल  विधेयक इसी व्यवस्था के दोष दूर करने के वास्ते लाना चाहते हैं। हमें यह साबित नहीं करना है कि पूरी व्यवस्था चोर है। ऐसा है भी नहीं। पूरी व्यवस्था चोर होती तो ए राजा जेल में न होते। कलमाडी पर कार्रवाई न होती। टाटा, राडिया और अम्बानी से पूछताछ न होती।

भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता हमारी व्यवस्था के दोष हैं। इनके खिलाफ जनांदोलन की ज़रूरत तब पड़ी जब लगा कि सुनने वाला कोई नहीं है। अब हमें यह देखना चाहिए कि कोई देख रहा है कि नहीं। उम्मीद है अन्ना के अनशन के बाद रास्ता निकल आएगा। इसके बाद भी हमें समझदार सिविल सोसायटी की ज़रूरत होगी। व्यवस्था को पारदर्शी और न्याय संगत बनाने की मुहिम के लिए जिस जन-भागीदारी की ज़रूरत है, वह इसके सहारे ही उभरेगी। पर हमारा तंत्र भीड़ का तंत्र नहीं हो सकता। हमारे पास राष्ट्रीय प्रश्नों पर बात करने के अनेक मंच मौजूद हैं। सबसे बड़ा मंच है आपका शहर और आपके प्रतिनिधि। क्यों नहीं आप समय-समय पर अपने प्रतिनिधियों को बुलाकर उनसे सवाल पूछते हैं?

 एक प्रश्न नेतृत्व का भी है। हमारे ज्यादातर नेता संसद या विधान सभा में जाना चाहते हैं। उसके पीछे उद्देश्य जन-सेवा से ज्यादा निजी फायदा उठाना है। हमने कई बार अपने प्रतिनिधियों को बिकते देखा है। बावजूद इसके वही प्रतिनिधि दुबारा चुनकर आते हैं। क्यों? इसके लिए क्या जन-प्रतिनिधि चुनने वाले जिम्मेदार नहीं हैं? जनता की वास्तविक हिस्सेदारी हो तो ऐसा सम्भव नहीं है। इसलिए हमें अपने गिरेबान में भी झाँकना चाहिए।

अन्ना हजारे के पहले हमारे मीडिया के पास विश्व कप का मसला था। उसके पहले टू-जी, सीडब्लूजी से लेकर शीला की जवानी तक तमाम मसले थे। मीडिया के पास मसले और मसाले में कोई फर्क नहीं है। यह कारोबार भी दुतरफा है। जनता चाहे तो मीडिया की अराजकता पर रोक लग सकती है। और मीडिया चाहे तो जनता की विचारशीलता बेहतर हो सकती है। जल्द ही आईपीएल शुरू होने वाला है। शायद जल्द हम अन्ना को भूल जाएं। हमारे भीतर जोशो-जुनून है, उत्साह है, बेचैनी है, पर ठंडे दिमाग से सोचने विचारने का मौका नहीं है। बेहतर हो कि हम इस दिशा में कुछ सोचें।

उन्नीसवीं सदी में महात्मा गांधी की भूमिका सबसे बड़े कम्युनिकेटर की थी। उनके पहले पूरे देश को सम्बोधित करने में कामयाब नेता नहीं थे। और न उनके पास पूरे देश को समझ में आने वाला मुहावरा था। अन्ना हजारे गांधी की परम्परा के व्यक्ति हैं, ईमानदार व्यवस्था चाहते हैं। पर आने वाली व्यवस्था की परिभाषा हमें और आपको करनी है। इंटरनेट, कम्प्यूटर, अखबार और टीवी जैसे तमाम उपकरणों के बावजूद हम अपने सवालों पर कम और मौज-मस्ती पर वक्त ज्यादा खर्च करते हैं। बेहतर हो कि हम अपने चारों ओर बदलती दुनिया को बेहतर बदलाव की ओर मोड़ने में मददगार बनें। 
 दैनिक जनवाणी में प्रकाशित



























4 comments:

  1. अन्ना जी के साथ मिलकर सरकार को कोई न कोई समाधान निकालना ही चाहिए.और बेहतर यही होगा कि उनके अधिकाँश सुझावों को अमल में लाया जाय.

    सादर

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  2. Nice post.
    हरेक आदमी को सोचना चाहिए कि समाज में उसकी क्या पहचान है ?
    उसे किस तरह के सुधार की ज़रुरत है ?
    बेहतर व्यक्तित्व और बेहतर समाज के निर्माण के लिए भी और अपनी संतुष्टि के लिए , हर तरह से यह बात लाजिमी है.

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  3. बधाई हो बधाई....... |
    आज भारत माता की जीत हुई है | आख़िरकार माँ की लाज बचाने के लिए हर भारतीय एक साथ आवाज लगाये |
    इस आवाज को अभी रोकना नही है |
    जय हिंद.... |

    यहाँ भी आयें|
    यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो फालोवर अवश्य बने .साथ ही अपने सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ . हमारा पता है ... www.akashsingh307.blogspot.com
    भ्रस्टाचार के खिलाफ महायुद्ध .... - आकाश सिंह

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  4. अब तक इस विषय पर पढी सुनी गई पोस्टों में से एक बेहतरीन पोस्ट । बहुत ही विस्तारपूर्वक बताया समझाया आपने सर । इसे साझा कर रहा हूं ।

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