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Monday, April 11, 2011

हमें भी मध्य-वर्गीय क्रांति चाहिए


शहरी नखलिस्तान नहीं, खुशहाल हिन्दुस्तान
अन्ना हजारे के आंदोलन को इतनी सफलता मिलेगी, इसकी कल्पना बहुत से लोगों ने नहीं की थी। इतिहास की विडंबना है कि कई बार पूर्वानुमान गलत साबित होते हैं। जयप्रकाश नारायण के 1974 के आंदोलन के डेढ़-दो साल पहले लखनऊ के अमीनाबाद में गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में जेपी की एक सभा थी, जिसमें पचासेक लोग भी नहीं थे। और आंदोलन जब चरम पर था, तब लखनऊ विश्वविद्यालय के कला संकाय के बराबर वाले बड़े मैदान में हुई सभा में अपार भीड़ थी। जंतर-मंतर के पास हुई रैली के कुछ महीने पहले इसी तरह की रैली, इसी माँग को लेकर हुई थी। उसका नेतृत्व अन्ना हजारे नहीं कर रहे थे। उस रैली का सीधा प्रसारण मीडिया ने नहीं किया। केवल एक धार्मिक चैनल पर उसका प्रसारण हुआ। अन्ना हजारे और युवा वर्ग की जबर्दस्त भागीदारी से बात बदल गई। हालांकि मसला करीब-करीब वही था।

अन्ना हजारे के अनशन को बहुत से लोग मिस्र के तहरीर चौक से जोड़ रहे हैं, तो कुछ लोग इसे लोकतंत्र की जीत मान रहे हैं। दोनों बातों में कुछ समानताएं हैं। वहाँ भी जनता का दबाव था, यहाँ भी जनता का दबाव है। पर दोनों व्यवस्थाओं में अंतर है। हमें किसी तहरीर चौक की ज़रूरत नहीं है। हमारे पास लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जिसे और पुष्ट करने की ज़रूरत है। यह आंदोलन भी इसी बात के लिए था कि हमें सार्वजनिक जीवन में फैले भ्रष्टाचार को काबू में करने के लिए ताकतवर लोकपाल की नियुक्ति करनी चाहिए। इसे समर्थन के लिए जमा हुई भीड़ के सभी लोग नहीं जानते कि विधेयक क्या है, क्यों है और यह बनकर पास हो गया तो क्या हो जाएगा। महत्वपूर्ण इसे समझना है।

अन्ना हजारे का समर्थन मल्लिका साराभाई ने किया और नरेन्द्र मोदी ने भी किया। इससे क्या अन्ना हजारे के अंतर्विरोध व्यक्त होते हैं? क्या इसमें कोई ढोंग है? बाबा रामदेव की कोई राजनीति है? या प्रकारांतर से यह आंदोलन भाजपा के इशारे पर कांग्रेस का विरोध है? सवाल अभी नहीं उठे हैं तो उठेंगे। इस आंदोलन से जुड़े लोगों ने अनशन स्थल पर आए कुछ राजनेताओं को आने नहीं दिया। क्या यह ठीक था? क्या राजनेताओं के बगैर राजनीति सम्भव है? और अन्ना हजारे का अनशन क्या राजनीति नहीं है?
इधर अचानक सिविल सोसायटी शब्द का प्रचलन बढ़ा है। हालांकि यह पहला मौका नहीं था, जब सिविल सोसायटी ने राष्ट्रीय मामलों में हस्तक्षेप किया। जय प्रकाश आंदोलन भी प्रकारांतर से सिविल सोसायटी का आंदोलन था। गांधी का आंदोलन भी था। उनकी सिविल नाफरमानी जनता और राज्य के सम्बन्धों को लेकर ही थी। राज्य की सविनय अवज्ञा। काफी लोग मानते हैं कि जनता की भागीदारी तो है, पर ग्रामीण जनता की भागीदारी नहीं है। और इसमें आम आदमी कहाँ था?  

हम बहुत जल्द फैसलों पर पहुँचते हैं। अन्ना का आंदोलन खत्म होते ही मीडिया की आईपीएल कवरेज शुरू हो गई। यह मज़ाक का विषय है। हम इस बात पर ध्यान नहीं देते कि केन्द्र सरकार ने अपने रुख में बदलाव ही तब किया, जब उसने देखा कि वही लोग जो कल तक क्रिकेट की जीत पर समारोह मना रहे थे, अपने-अपने दफ्तरों से छुट्टियाँ लेकर जंतर-मंतर पहुँच रहे हैं। वहाँ सिर्फ दिल्ली के लोग नहीं थे। दूर-दूर से लोग आए थे। क्रिकेट और लोकपाल में कोई टकराव नहीं है। मनोरंजन हमारे जीवन का हिस्सा है। अफसोस केवल मनोरंजन के नशे का है। यदि आप अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं, तो आपको मनोरंजन का हक भी है। स्वस्थ समाज का मनोरंजन भी  स्वस्थ होना चाहिए।  

एक सच यह है कि जो भीड़ अन्ना के पीछे आई थी उससे कई गुना बड़ी ग्रामवासियों और वनवासियों की भीड़ दिल्ली में एक से ज्यादा बार जमा हो चुकी है। बावजूद इसके सारी व्यवस्था शहर केन्द्रित है। मध्य-वर्ग परस्त है। पूरा मीडिया, शिक्षा-व्यवस्था, कला-संस्कृति सब कुछ मध्य-वर्ग पर केन्द्रित है। भारतीय मध्य-वर्ग का विस्तार हो रहा है। ग्रामवासी-आदिवासी ताकत में बहुत बड़ी तादाद में हैं, पर व्यवस्था के बटनों पर मध्य-वर्ग का हाथ है। क्रांतिकारी बदलाव भी इसी मध्य-वर्ग की मदद से आएगा। हमारी चुनाव-व्यवस्था में जैसे भी बदलाव आए हैं, उनमें मध्य-वर्ग की भूमिका है। यही मध्य-वर्ग इरोम शर्मीला और विनायक सेन के पक्ष में सामने आता है। फ्रांसीसी, अमेरिकी, रूसी और चीनी क्रांतियों का नेतृत्व मध्य-वर्ग ने ही किया था। उसे कोसने की नहीं, भागीदार और जवाबदेह बनाने की ज़रूरत है। यही बात राजनीति पर भी लागू होती है। देश में जो कुछ खराब हुआ उसके लिए राजनीति दोषी है, पर जो अच्छा हुआ वह भी इसी राजनीति की बदौलत है। इस द्वंद को समझने की जरूरत है। राजनीति में ही समाज के श्रेष्ठतम और निकृष्टतम के दर्शन होते हैं।

अन्ना हजारे के लोकपाल बिल के प्रारूप में किसी गैर-राजनैतिक व्यक्ति को लोकपाल बनाने की सलाह है। वे यह भी चाहते हैं कि लोकपाल को जन-प्रतिनिधियों, कार्यपालिका और न्यायपालिका के सदस्यों के खिलाफ सीधे शिकायत सुनने का अधिकार होना चाहिए। इसलिए लोकपाल ऐसा व्यक्ति हो, जो इन तीनों से अलग हो। ऐसा व्यक्ति या व्यक्ति-समूह कौन हो सकता है? नोबेल पुरस्कार विजेता या मैग्सेसे विजेता अच्छे लोग हैं, पर वे सफल लोकपाल भी होंगे इसे कैसे मान लिया जाय़।

देश चाहेगा कि व्यवस्था पारदर्शी हो, तो वह हो जाएगी। साथ ही देश को यह भी चाहना होगा कि उसे शहरी नखलिस्तान नहीं, खुशहाल हिन्दुस्तान बनना है। कैसे बने, चर्चा तो इसपर होनी चाहिए। अभी तो मुल्क बन रहा है। भरोसा कीजिए, जो होगा अच्छा होगा।   

जन संदेश टाइम्स में प्रकाशित










2 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया पोस्ट है |
    उम्दा शब्दों का इस्तेमाल किये हैं
    बहुत बहुत धन्यवाद|

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    एक मजेदार कविता के लिए यहाँ आयें |
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  2. बढ़िया पोस्ट

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