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Saturday, March 5, 2011

दूसरे दशक की पहली परीक्षा


पिछली 1 मार्च को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचारजी का 67 वाँ जन्मदिन था। उस रोज दिल्ली में हुए संवाददाता सम्मेलन में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ने चार राज्यों और एक केन्द्र शासित क्षेत्र पुदुच्चुरी में विधानसभा चुनाव की घोषणा की। बुद्धदेव के लिए यह खुशनुमा तोहफा नहीं था। अब से 13 मई के बीच कोई चमत्कार न हुआ तो लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई दुनिया की सबसे पुरानी सरकार कम्युनिस्ट सरकार के हारने के पूरे आसार हैं। चौंतीस साल कम नहीं होते। देश का ध्यान इन दिनों बजट पर लगा है। बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में चुनाव की घोषणा मामूली खबर की तरह अखबारों के पन्नों में छिपी रह गई। पर आने वाले विधानसभा चुनाव कई मायनों में निर्णायक साबित होने वाले हैं। वाम मोर्चा की समूची राजनीति दाँव पर है। केरल और बंगाल हार जाने के बाद उनके पास बचता ही क्या है।

वाम मोर्चा के साथ-साथ कांग्रेस और यूपीए दोनों के लिए के लिए ये चुनाव महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। इन चुनावों का पहला असर संसद के चालू बजट सत्र पर पड़ेगा। अनुमान है कि यह सत्र अब 21 के बजाय 8 अप्रेल को खत्म हो जाएगा। चुनाव प्रक्रिया तो मार्च से ही शुरू हो चुकी होगी। 4 अप्रेल को असम में मतदान का पहला दौर भी पूरा हो जाएगा। बंगाल में छह दौर के मतदान के पहले शेष तीनों राज्यों और एक केन्द्र शासित क्षेत्र में मतदान पूरा हो चुका होगा। पिछले साल बिहार में छह दौर के लम्बे मतदान कार्यक्रम के कारण हिंसा और अराजकता पर काफी नियंत्रण रहा। बंगाल की स्थिति बिहार से भी खराब है।


4 अप्रेल से शुरू हुए मतदान के बाद परिणाम सवा महीना बाद 13 मई को आएंगे। इससे कई राजनैतिक गणित बिगड़े हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने इस पर अपनी नाराज़गी ज़हिर भी कर दी। सन 2006 के चुनाव में डीएमके ने अपने घोषणापत्र में हर राशन कार्ड धारी को एक टीवी सेट मुफ्त में देने का वायदा किया था। 350 करोड़ रुपए के 15 लाख टीवी सेट पड़े रह गए और आदर्श आचार संहिता लागू हो गई। तमिलनाडु विधानसभा का कार्यकाल 16 मई तक है। वहाँ 13 अप्रेल को एक दौर में पूरा मतदान हो जाएगा। उसके एक महीने बाद परिणाम आएंगे। समय मिलता तो करुणानिधि सरकार कुछ लोक लुभावन काम कर सकती थी। बहरहाल चलते-चलाते सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों पर सेल्स टैक्स घटा दिया है, जिससे प्रति लिटर पेट्रोल की कीमत करीब डेढ़ रुपए कम हो गईं हैं। इसी तरह असम में तरुण गोगोई की सरकार ने चलते-चलाते दो नई विकास परिषदों की घोषणा कर ही दी। उसके पहले दिल्ली में उल्फा के साथ बातचीत शुरू करके कांग्रेस ने असम में अपनी ज़मीन बनाने का काफी काम कर लिया है। 

विधान सभा चुनावों में कांग्रेस और यूपीए की प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा दांव पर है। बंगाल और केरल में उसे अपने सहयोगी दलों के साथ जीतने की आशा है। असम में असम गण परिषद और भाजपा के बीच कोई समझौता न हो पाने के कारण कांग्रेस को राहत है। केवल तमिलनाडु में खतरा है। वहां डीएमके को एंटी इनकम्बैंसी सता रही है। सबसे ऊपर टू-जी स्कैम के नायक एके राजा की अप्रतिष्ठा है। दूसरी ओर जयललिता की द्रमुक ने स्थानीय पार्टियों के साथ पहले से गठबंधन बना लिए हैं। यों भी केरल की तरह तमिलनाडु में भी कुर्सी की अदल-बदल होती रहती है। इस बार द्रमुक का नम्बर है।

कॉमनवैल्थ, आदर्श, टू-जी और एस-बैंड मामलों से घिरी कांग्रेस के लिए ये चुनाव 2014 के लोक सभा चुनाव की बुनियाद बनाने या बिगाड़ने वाले साबित होंगे। भ्रष्टाचार के मामले सामने आने के बाद कांग्रेस की यह पहली परीक्षा होगी। बंगाल के चुनाव में जीत मिली भी तो वह ममता की जीत होगी। साथ ही वाम मोर्चा की हार भी। केरल में कांग्रेस नीत मोर्चा जीता तो उसे कांग्रेस की जीत माना जाएगा, पर दिल्ली की सरकार पर केरल के परिणाम का बहुत असर नहीं पड़ता। तमिलनाडु में डीएमके की हार से यूपीए का गणित बिगड़ेगा। जिन पाँच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं वहां से लोक सभा की 116 सीटें हैं। अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होंगे। इन सभी जगह कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर होगी। जेपीसी बन जाने के बाद भ्रष्टाचार पर चर्चा और बढ़ेगी।

आम बजट पेश होने के बाद वित्तमंत्री ने मुलाकात के लिए आए कुछ प्रमुख कम्पनियों के सीईओ से कहा है कि आर्थिक सुधार के एजेंडा पर हम चलना चाहते हैं, पर हमारे पास उसके लिए पर्याप्त राजनैतिक ताकत नहीं है। बेहतर हो कि आप दूसरे राजनैतिक दलों के पास भी जाएं। सरकार बैंकों, इंश्योरेंस और पेशन फंडों के लिए कानून में बदलाव करने जा रही है। इंश्योरेंस में विदेशी पूंजी निवेश को 26 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने के वास्ते कानून में संशोधन करना होगा। लोकसभा में सरकार बिल पास करा भी ले, पर राज्यसभा में यह सम्भव नहीं है। दूसरे दलों में सबसे महत्वपूर्ण पार्टी भाजपा है। भाजपा की मदद से ही पिछले साल सरकार न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पास करा पाई थी। 

अगले महीने के चुनाव कांग्रेस और भाजपा के टकराव की छाया में हो रहे हैं। संसद का पूरा शीत-सत्र टकराव की भेंट चढ़ गया। इस दौरान भाजपा पहले से ज्यादा हमलावर बनकर उभरी है। बंगाल और केरल में सम्भावित पराजय के बाद वाम मोर्चा की दशा-दिशा क्या होगी यह समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। दोनों राज्यों में वाम मोर्चा विपक्ष में बैठेगा तो किसी न किसी रूप में जनांदोलन भी शुरू करेगा। आंदोलनों की तोप का मुँह कांग्रेस की ओर ही होगा। भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर भाजपा का अभियान पहले से चल रहा है। आंध्र प्रदेश में तोलंगाना मामले को पहले उठाकर और फिर छोड़कर कांग्रेस ने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है। इससे फिलहाल कांग्रेस बहुत आक्रामक होने की स्थिति में नहीं लगती।

कांग्रेस की रणनीति व्यवस्था को दुरुस्त करने की इच्छुक पार्टी के रूप में खुद को प्रोजेक्ट करने की होगी। जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपनी टीवी कांफ्रेंस में कहा भी है कि इन समस्याओं के समाधान देना चाहेंगे। साथ ही उन्होंने यह विश्वास भी दिलाया था कि आर्थिक सुधार का एजेंडा पूरा होगा। सरकार अगले साल से डायरेक्ट टैक्स कोड लागू करने जा रही है। इसके साथ ही वैट की जगह गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) लागू करने की योजना है। इसके लिए राज्य सरकारों के सहयोग की ज़रूरत होगी। टकराव और सहयोग को एक साथ साधने के लिए एक परिपक्व राजनीति की ज़रूरत है।

देश राजनीति के नए दौर में प्रवेश कर रहा है। 2012 में पाँच और 2013 में दस राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। 2014 में दिल्ली की कुर्सी में बैठने को आतुर पार्टी या गठबंधन को इन चक्रव्यूहों से होकर गुज़रना है। संयोग से यह वह दौर है जब अर्थ व्यवस्था दहाई का अंक छुएगी। इसके लिए आर्थिक और सामाजिक नीतियों के बाबत महत्वपूर्ण फैसले करने होंगे। ये फैसले टकराव की राजनीति के रहते सम्भव नहीं हैं। उसके ले आम सबमति या एक बड़े स्तर पर सहमति की ज़रूरत होगी। संयोग है कि कांग्रेस समेत सभी पार्टियाँ नेतृत्व के संकट से गुज़र रहीं हैं। किसी भी पार्टी के पास बड़ा नेता नहीं है। इस बीच न सभी पार्टियों को नए नेतृत्व का विकास करना है।

इक्कीसवीं के पहले दशक ने भारत को एक बड़ी ताकत बनने की बुनियादी इच्छाशक्ति और ताना-बाना दिया। दूसरा दशक उसे महाशक्ति बनाएगा। दूसरे दशक का यह पहला साल है। और अगले महीने के ये चुनाव इस दशक के पहले राजनैतिक निर्णय होंगे। पिछले साल हमने नकारात्मक प्रवृत्तियों को उभरते देखा। सम्भव है इस साल हम कुछ सकारात्मक बातें देखें।

जनवाणी में 4 मार्च को प्रकाशित  

3 comments:

  1. आपका विश्लेषण सही है. चूंकि कोई विकल्प नहीं है ,कांग्रेस को लाभ मिलता दीखता है.परन्तु कांग्रेस हो या भाजपा दोनों अपनी जनता का हित कम अमेरिका का हित ज्यादा देखने वाले हैं.आम जनता को तो पिसना है चाहे जो सरकार बना ले.

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  2. सर मेरा ख्याल है कि विश्व कप का गुबार थमने के बाद सही वक्त पर मीडिया चुनाव पर भी ध्यान देगा। और असम में जहां विपक्ष बिखरा है, वहीं बंगाल में टक्कर कांटे की होगी। बढ़त के बावजूद वामपंथी सरकार अपने किले को आसानी से ढहने देगी इसमें शक लग रहा है। चुनाव में हिंसा की आशंकाएं भी हैं

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  3. बहुत सही विश्लेषण है आपका प्रमोद जी. मुझे लगता है कि चुनावों के बाद वामपंथी दल विपक्ष में चुप चाप बैठने वाले नहीं हैं . लेकिन जनता का वामपंथी विचारधारा की तरफ आकर्षण भी काफी कम हो गया है. ये अवश्य देखना चाहूँगा कि विपक्ष से वे कौन से मुद्दे उठाते हैं

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