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Friday, March 25, 2011

नाच सही या आँगन टेढ़ा



सन 1957 के आम चुनाव राष्ट्रीय-पुनर्गठन के बाद हुए थे। केरल का जन्म भी उसी दौरान हुआ था। उस प्रदेश की विधानसभा का वह पहला चुनाव था। प्रदेश की 126 सीटों में से कम्युनिस्ट पार्टी 60 में जीती। कांग्रेस को 43, प्रजा समाजवादी पार्टी को 9 और निर्दलीय उम्मीदवारों को 15 सीटें मिलीं। पाँच निर्दलीय उम्मीदवारों की मदद से ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में दुनिया की पहली लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार सामने आई। कांग्रेस पार्टी इस अपमान को सहन नहीं कर पाई और बहुत जल्द इस सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। सरकार रही न रही, पर उसका बनना एक महत्वपूर्ण घटना थी। देश के आकाश पर लाल झंडा इसके बाद कई बार लहराया। खासतौर से बंगाल में 34 साल तक सरकार चलाकर वामपंथियों ने दूसरे किस्म का रिकॉर्ड बनाया, जो भारतीय राजनीति में ही नहीं दुनिया की राजनीति में अतुलनीय है।

लगता है कि इस बार एक और रिकॉर्ड कायम होने वाला है। बंगाल और केरल में पराजय हुई तो वाममोर्चा सत्ता की राजनीति से बाहर निकल कर विरोध की राजनीति में शामिल हो जाएगा। नेपथ्य से आ रही आवाजें वामपंथी नेताओं को भी सुनाई पड़ रहीं हैं। आजादी के बाद लगता था कि देश को कभी कांग्रेसी राज से मुक्ति पाने का मौका मिला तो वामपंथी ही उनके विकल्प साबित होंगे। वामपंथ के दो रंग थे। एक लोकतांत्रिक समाजवादी चेहरा, जिसके प्रमुख विचारक आचार्य नरेन्द्र देव, जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, राम मनोहर लोहिया, एसएम जोशी, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमए और किशन पटनायक समेत अनेक महापुरुष जो कद-काठी और लोकप्रियता में नेहरू के बराबर थे। दूसरा रंग था अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से निकली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का जिसके पास बेहतरीन नेतृत्व, कर्मठ कार्यकर्ता और मजबूत संगठन और जनाधार की कमी नहीं थी। पर वैचारिक दुविधा में यह पार्टी टूटती गई और बावजूद बेहतर ज़मीन के अच्छी तरह जम नहीं पाई। आसन्न पराजय के बाद शायद वामपंथियों के पास विचार करने का वक्त होगा कि उनकी राजनैतिक शब्दावली में क्या खोट है। या उनका नाच सही है, और आँगन टेढ़ा है।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी से निकला लोकतांत्रिक समाजवाद कभी का बिखर चुका है। उसे सबसे अच्छा मौका 1977 में केन्द्र सरकार चलाने का मिला, पर धीरे-धीरे वह समाजवाद या तो कांग्रेस में विलीन हो गया या ओबीसी आंदोलन का हिस्सा बन गया। पूँजी के वैश्वीकरण, सोवियत संघ के पराभव और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की रणनीति में बुनियादी बदलाव आने का असर भारतीय वामपंथ पर भी पड़ा है। पर लगता है कि भारतीय वामपंथ के देसी-असमंजस उसे आगे बढ़ने से रोकते हैं। 1947 के पहले भारतीय वामपंथ को जिस क्राति की आशा थी, वह हुई या नहीं यह उसकी प्राथमिक दुविधा है। दूसरी दुविधा है यह संवैधानिक व्यवस्था। तीसरी दुविधा है निजी पूँजी और आर्थिक गतिविधियों में उसकी भूमिका। भारतीय राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और सामाजिक न्याय के बारे में असमंजस या फैसले करने में देरी। इसके ऊपर है साम्राज्यवाद या अमेरिका का द्वंद।

सन 1952 के पहले चुनाव तक कम्युनिस्ट पार्टी तय नहीं कर पाई थी कि यह आजादी है या नहीं। 1956 के पालघाट कांग्रेस में पार्टी ने उसे आजादी माना। 1958 के अमृतसर कांग्रेस में पार्टी ने संसदीय राजनीति को एक विकल्प माना। 1961 के विजयवाड़ा कांग्रेस में कांग्रेस पार्टी के प्रति संघर्ष और सहयोग का रास्ता चुना और लगभग इसी बिन्दु पर 1964 में पार्टी टूट गई। सीपीएम के रूप में पार्टी की दूसरी धारा आगे बढ़ पाती उससे पहले ही 1967 में उसे बंगाल में सरकार चलाने का मौका मिल गया। लगभग उसी वक्त इसी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने नक्लबाड़ी इलाके में किसानों का आंदोलन शुरू कर दिया। सरकार और आंदोलन एक साथ चलाना सम्भव नहीं था। 1969 में सीपीएम के भीतर से एक और पार्टी निकली सीपीआई-एमएल। फिर इस पार्टी के कई रूप बने। और बंगाल में इस बार वाममोर्चा यदि हारेगा तो उसके पीछे ममता बनर्जी से ज्यादा सीपीएम से नाराज वामपंथियों की भूमिका होगी।

हाल में वामपंथी विचारक प्रभात पटनायक ने सीपीएम के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी में प्रकाशित एक आलेख में लिखा है कि यदि इस बार के चुनाव में वामपंथियों को धक्का लगा तो यह भारतीय लोकतांत्रिक क्रांति के लिए दुखद संकेत होगा। लोकतांत्रिक क्रांति के जिन तत्वों का उन्होंने उल्लेख किया है उनमें अस्पृश्यता और अदृष्टता जैसी संस्थागत असमानताओं से घिरे भारतीय समाज के रूपांतरण, संवैधानिक मौलिक अधिकारों की स्थापना, संसदीय लोकतंत्र और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार आदि का उल्लेख किया है। लोकतांत्रिक अधिकारों पर पाबंदियों, साम्प्रदायिक फासिज्म, पूँजी के सहारे नव-उदारवादी कार्यक्रमों और खाप पंचायतों जैसी पूर्व-आधुनिक प्रवृत्तियों के प्रसार को वे खतरनाक मानते हैं। उनकी बात को मान भी लिया जाए, पर इन खतरों का सामना सिर्फ वामपंथ कर सकता है, यह बात जनता को न समझा पाने के लिए कौन जिम्मेदार है?

कुर्सी पर बैठने के बाद निजी पूँजी के साथ रिश्ते किस तरह के होंगे और वैश्विक पूँजी के साथ क्या सलूक किया जाएगा, इसके बारे में पार्टी की धारणा साफ होनी चाहिए। जनता के अपेक्षाकृत साधनहीन तबके के हितों की रक्षा, समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समर्थन में और अंधी मौज-मस्ती के विरोध में जनता को बड़ा हिस्सा हमेशा खड़ा मिलेगा। वामपंथ ने अन्याय से लड़ने की कला तो हासिल की, पर व्यवस्था को चलाने के सूत्र तैयार नहीं किए। यदि हम मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था बड़ी उपलब्धि है तो, हार में जीत खोजने की कोशिश करनी चाहिए। महत्वपूर्ण वामपंथी होना नहीं, जनता के साथ होना है।  

  दैनिक जनवाणी में प्रकाशित

4 comments:

  1. CPM and Indian communists has really lead some big struggles against injustice and for peoples rights. Even many of communists has sacrificed their lives for peoples. But in recent time and specially after 1992, when new reforms has started, communists get fail to change according the new challenges.
    But we should hope that defeat in Bengal and Kerala ( if it happen) will give a new hit on communists to think and change their strategy according new circumstances.

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  2. वस्तुतः कम्युनिस्टों ने स्टालिन आदि की अवहेलना करके भारत में यहाँ के हिसाब से संगठन नहीं बनाया उसी का खाम्याजा बार-बार की टूटन में सामने आया.इन पार्टियों ने धर्म को सिरे से ही खारिज करके फासिस्टों के लिए खुली लूट का मैदान छोड़ दिया. भारतीय वांग्मय में धर्म की सही व्याख्या जैसी महर्षि स्वामी दयानंद ने की है ,यदि ये पार्टीयां जनता के पास जाएँ तो आज भी कामयाब हो जायेंगीं.स्वामी सहजानंद सरस्वती,गेंदा लाल दीक्षित आदि क्रांतिकारी आर्य समाजी होते हुए कम्यूनिस्ट भी थे.गरीबों के मसीहा हो कर भी स्वामी विवेकानंद का दुरूपयोग फासिस्ट कर रहे हैं और जिनके वह निकट हैं वे कम्यूनिस्ट उनसे दूर हैं.सही चेतना बोद्ध हो जाए तो आपको ऐसी चिंता न करनी पड़े.

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  3. देखिये, कम्युनिस्ट पार्टी जिस विचारधारा को मानकर चले थे सही मायने में सामाजिक समस्याओं का वास्तविक हल वहीँ से निकल सकता था| असमानता,पूंजीवाद और सामंतवाद और ये तमाम शब्द जो कहीं ना कहीं समाज को अराजकता जैसी स्थिति की ओर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं, इसका भी तोड़ मार्क्सवादी विचारधारा हो सकती थी| लेकिन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अब तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी बन गयी है| इन्होने विचारधारा को भी बाँट दिया है| CPI से CPM फिर CPIML और ना जाने कितनी पार्टी सिर्फ़ पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी विचारधारा को लेकर चल रही है} दरअसल क्रांति का इनका मकसद पीछे छूट गया है और फिर क्रांति भी किसके खिलाफ करेंगे इन्हें खुद नहीं पता|
    आज अगर पश्चिम बंगाल में ३४ साल कम्युनिस्ट शासन रहा तो इसके पीछे वहाँ रह रहे बुद्धिजीवी वर्ग, शिक्षाविद और समाज में उच्च स्थान रखने वाले लोगों के समर्थन ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की| कम्युनिस्टों के गढ़ से आज अगर उनकी सत्ता पर खतरा मंडरा रहा है इसके लिए वे पार्टियां ही जिम्मेदार हैं| हालाँकि सच तो यह भी है मार्क्सवाद का नकाब पहनकर हकीकत में इन लोगों ने पूंजीवाद की सेवा की है|जिसके खिलाफ इन्होने आंदोलन छेड़ रख था| दूसरी बात यह भी है कि ममता बनर्जी को छोड़कर कोई विकल्प नहीं है, वापस सी पी एम् को लाया नहीं जा सकता|हालाँकि बंगाल में अभी भी सच्चे कम्युनिस्ट हैं,लोग कम्युनिस्ट पार्टी की इज्ज़त करते हैं लेकिन नीतियों से खफ़ा हैं| राजनीति के इस खेल में कोई बहुत बड़ी उलटफेर हो जाये इससे भी इनकार नही किया जा सकता, लेकिन हालात लाल झंडे की विदाई तय बता रहे हैं| और यह ज़रुरी भी है|

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  4. जनता के साथ रहना ही ज्यादा जरूरी है.

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