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Tuesday, February 1, 2011

सम्पादकीय पेज विहीन डीएनए


डीएनए ने हिम्मत दिखाई और घोषणा करके एडिट पेज बन्द कर दिया। साथ में यह कहा कि इसे बहुत कम लोग पढ़ते हैं, बोरिंग होता है, अपनी ज़रूरत खो चुका है, सिर्फ जगह भरने का काम हो रहा था।


आदित्य सिन्हा उत्साही और प्रखर पत्रकार हैं। पर उन्होंने सम्पादकीय पेज हटाने के बारे में बातें लिखीं हैं वे नई नहीं हैं। सम्पादकीय पेज जब शुरू हुए थे तभी कौन सा बहुत पढ़े जाते थे। वक्त के साथ तमाम चीजें बदलतीं हैं। सम्पादकीय पेज भी बदले। पर अखबारों में विचार और विश्लेषण तत्व पहले से ज्यादा हुआ। आदित्य सिन्हा भी कहते हैं कि विश्लेषण वगैरह रहेंगे। और जब हमारे स्टैंड की ज़रूरत होगी हम पेज 1 पर लिखेंगे। अलबत्ता इतना तय है कि डीएनए 'एडिटोरियल वी' यानी 'हम' का सामूहिक तत्व नहीं चाहते। साथ ही जनता के सामने खुलकर बोलना नहीं चाहते।  

सम्पादकीय पेज ओपीनियन पेज होते हैं। इसमें पाठकों के विचार भी शामिल हैं। टेलीविजन के मुकाबले अखबारों की महत्ता इस ओपीनियन पेज के कारण ही है। अखबारों ने ऑप-एडिट पेज भी इसीलिए शुरू किए थे। इन्हें पढ़ने वाले लोग कम होते हैं। विचार यों भी भारी होते हैं, पर मौके पर वही काम आते हैं। हमारे समाज में ओपीनियन लीडर्स की ज़रूरत हमेशा रहेगी। ओपीनियन लीडर्स तादाद में ज्यादा नहीं होते। पर वे बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करते हैं। 

डीएनए के पाठक सम्पादकीय पेज विहीन अखबार पसंद करें तो किसी को क्या आपत्ति है। यह फैसला केवल सम्पादक का नहीं पूरे संस्थान का होगा. दूसरे यह भी देखना चाहिए कि वैकल्पिक व्यवस्था क्या की गई है। अखबार समय के साथ इवॉल्व करेंगे इसमें दो राय नहीं, पर मुझे चिन्ता इस बात की है कि मीडिया के कारोबार में घुस आए लोग इसे बौद्धिक कर्म से दूर करने की कोशिश में लगे रहते है। वे सफल तो नहीं होंगे, पर कुछ वक्त के लिए पत्रकारिता को चोट तो पहुँचा ही देंगे। 

नीचे पढ़ें सम्पादकीय पेज हटाने के लिए पेज 1 पर लिखा गया साइंड सम्पादकीय।

From today, dna does away with the edit page
Aditya Sinha, Editor-in-Chief
For years, many of you have felt that the newspaper edit page has long outlived its usefulness. It's boring, very few read it, and it's a chore to fill. It's more punditry than expert comment. It's become a single-page editorial ghetto; and that makes little sense in this TV/mobile/web age where you're looking for more news validation and analysis.
Thus, DNA has decided to do away with its edit page.
This does not mean DNA will shun analysis: after all, it's part of our title. Instead, DNA will give you more comment, spread across the paper. For instance, today we have articles by experts on Mumbai, on corruption and on the China-US presidential meeting. Each will appear on a different news page. Otherwise, they'd appear on three consecutive edit pages. DNA will give you more comment in the days to come; you've already seen it in the Money section, and you will even see it on the Sport pages. And it will all be interesting.
DNA is doing away with the "leaders", the 400-word unsigned editorials. Instead, as and when a news event warrants a stand by DNA, it will appear on page 1.
The letters to the editor remain. They remain an important interactive forum and will now appear on page 2.
DNA believes the newspaper is a work in progress. Unless it evolves, it will become irrelevant. We are confident you will support our efforts at modernising journalism and staying ahead of the times.
—Aditya Sinha, Editor-in-Chief



डीएनए ईपेपर का लिंक

Reaction on san serif

9 comments:

  1. In best scenario One out of one thousand read editorial page. Out of them how many understand that and how many discuss those issues with others can't predictable. Our peoples read sports page, page 3 and local news. No one want to read serious things.

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  2. आदित्‍य सिन्‍हा की चाहे जो राय हो मुझे यह आइडिया कतई पसंद नहीं आया। अखबार की बुनियाद सिर्फ खबर हो ही नहीं सकती। विचार के बगैर अखबार संपूर्ण कैसे हो सकता है भला....

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  3. It was a wise decision taken by Mr Adiya Sinha.

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  4. sir aapne likha hai....आदित्य सिन्हा उत्साही और प्रखर पत्रकार हैं।..sir agar sampadkiye page hi nahi to patarkar kaisa...kya aaj ka patarkaar sirf lay out banayega,page design karega..reoprting karega..hindi english mei typing karega...ye kaam to machine bhi kar lenge..phir patarkar or machine mei kya antar ho jayega...hum wahi denge joo log chahhenge...thoda bahott wo bhi dena chahiye jiski jarurat vastav mei hai..

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  5. कमाल है ...बहुत अजीब सा लगा यह बात पढ़ कर . सम्पादकीय पृष्ठ के पाठक भले ही कम होते हैं लेकिन जो भी इन्हें पढता है दुनिया को देखने और समझने की उसकी सोच में बहुत ही बदलाव आते हैं.उदाहरण मैं अपने पिता जी का दूंगा जिनके पास लगभग ४ दशकों के सम्पादकीय पृष्ठों का संगृह है और उनकी ही वजह से आज मैं भी इस पृष्ठ को नियमतः पढता हूँ.

    सादर

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  6. सम्पादकीय विहीन समाचार-पत्र का मतलब हुआ सर विहीन धड.

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  7. There are so many newspapers which exist or has high reputation among readers by their Editorial Content. I have met lot of youngster who has quoted some articles,views-items, analytical piece of Newspapers, during my reporting job.
    yes, Upgradation is a scientific phenomena and it also uply on Newspaper business. To do so, comprehensive research-survey is necessary. I have doubt that any Editor like to do such thing before making his/her amendment- modification etc functional. It is totally an assumption based conclusion that readers don't like to read Edit page. Harsh fact is that newspapers don't have such hands who can make edit page- Valuable,attractive,appeling and useful.
    Any way it is his newspaper and he is free to do such changes. But I am not agree that Edit page is Bakwas page.let's wait.

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  8. सम्‍पादकीय बन्‍द कर देना बड़ी अजीब सी सोच है या यूं कहें कि अब समाचार पत्र किसी भी विचार-पक्ष की बात ही नहीं करना चाहता है। खाओ, पीओ और मौज उड़ाओं वाला फार्मूला है। भारत तो विचारवान देश है यहाँ प्रत्‍येक गरीब व्‍यक्ति भी विचारवान है तो कैसे भारत से विचार को समाप्‍त किया जा सकेगा। भगवान बचाए ऐसी सोच वालों से।

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  9. Anonymous5:41 PM

    just entertain and inform (selectively with half truths) but educate and empower.

    What is the need? Truly educated and empowered public is pain in ass for system anyway. Media house barons are part of elite who run the system. As simple as that!

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