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Monday, January 24, 2011

मीडिया और मनमोहन सरकार


पिछले शुक्रवार को सीएनएन आईबीएन पर करन थापर के कार्यक्रम लास्ट वर्ड में मीडिया की राय जानने के लिए जिन तीन पत्रकारों को बुलाया गया था वे तीनों किसी न किसी तरह से पार्टियों से जुड़े थे। संजय बारू कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार थे। चन्दन मित्रा का भाजपा से रिश्ता साफ है। वे भाजपा के सांसद भी हैं। इसी तरह हिन्दू के सम्पादक एन राम सीपीएम के सदस्य हैं। क्या यह अंतर्विरोध है? क्या मीडिया को तटस्थ नहीं होना चाहिए? ऐसे में मीडिया की साख का क्या होगा? इस बातचीत में संजय बारू ने यह सवाल उठाया भी।


मेरा विचार है कि पत्रकार भी मनुष्य है। उसका कोई न कोई राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विचार होता है। पाठक या दर्शक का भी होता है। पर वोटर के रूप में हमारा विचार स्थायी नहीं होता। ऐसा होता तो हर पार्टी को हमेशा एक जैसे वोट ही मिलते। और स्थायी विचार हो तब भी सामान्य पाठक या श्रोता दूसरे के विचार सुनना चाहता है। भले ही वे विचार किसी प्रतिबद्ध राजनेता के हैं। इस अर्थ में किसी पत्रकार के साफ-साफ परिभाषित विचार हैं तो इसमें गलत नहीं है। ज़रूरी यह है कि पत्रकार  अपना पूरा परिचय दे। अपनी प्रतिबद्धता भी बताए। उसकी प्रतिबद्धता भी उसका परिचय है।

पर सारे पत्रकार तो पार्टियों से प्रतिबद्ध नहीं हो सकते। उन्हें एक प्रकार की तटस्थता अपनानी होती है। खासतौर से खबरों के संकलन और प्रस्तुति में उन्हें तटस्थता बरतनी होती है। पत्रकारिता का यह मूलभूत विचार है। इसीलिए खबरों के साथ विचार नत्थी करने की परम्परा को अच्छा नहीं माना जाता। पर इधर खबरों के साथ विचार जोड़ने का चलन बढ़ा है। खासतौर से हैडलाइंस लगाने में बहुत ज्यादा आज़ादी ली जाने लगी है।

सामान्य पाठक को अक्सर बातें समझने में दिक्कत होती है। हिन्दी का सामान्य पाठक यों भी बहुत गहराई से नहीं समझता। वह अपेक्षाकृत नया पाठक है। कोई पत्रकार खुद को तटस्थ घोषित करके किसी का पक्ष लेना शुरू करे तो वह समझ नहीं पाता। यह पाठक के साथ धोखा है। पत्रकारीय मर्यादाओं पर पत्रकारों के बीच ही चर्चा नहीं होती, पाठक बेचारे कितना समझ पाएंगे। मैने पत्रकारीय मर्यादा पर जितने भी पोस्ट लिखे हैं ज्यादातर पर प्रतिक्रियाओं में पत्रकारों के बिकने को लेकर क्लेष होता है। पत्रकारों का बिकना खराब है। उसपर खूब चर्चा भी है। मैं केवल वैचारिक तटस्थता पर बात करना चाहता हूँ। छिपाकर अपने राजनैतिक एजेंडा को पाठकों के गले में नहीं उंडेलना चाहिए।

अक्सर हम राजनीति और पत्रकारिता को एक जैसा मान लेते हैं। हमारे बीच तमाम पोलिटिकल एक्टिविस्ट हैं भी। जैसा कि मैने पहले कहा, कोई व्यक्ति अपनी प्रतिबद्धताओं को स्पष्ट कर दे तो उसकी बात का आशय समझने और उसकी सीमाओं को समझने में आसानी होती है। दिक्कत तटस्थ लोगों को लेकर होती है। यह तटस्थता न्यायपालिका के जज जैसी चीज़ है। लगभग ऐसी ही तटस्थता शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापक या पाठ्य पुस्तक लेखक से जुड़ी होती है। वस्तुतः ऐसी तटस्थता के कारण सामान्य पाठक के मन में पत्रकार के मन में आदर बढ़ना चाहिए। पर होता उल्टा है। जो लोकलुभावन नज़र आने के लिए और अपने आप को तेज़-तर्रार साबित करने के लिए आग उगलने वाली पत्रकारिता करते हैं और एकतरफा चलते हैं, उन्हें ज्यादा पसंद किया जाता है। मर्यादित पत्रकार की भाषा और शिल्प अपेक्षाकृत सादा होता है।

सरकारें और बिजनेस हाउस उस पत्रकार में दिलचस्पी नहीं रखते जो उनके धंधे में मदद न करे। उनके लिए सादगी नहीं उनके पक्ष की तेज-तर्रार पत्रकारिता होनी चाहिए। इसके विपरीत जनता के पक्ष की तेज-तर्रार पत्रकारिता के लिए कई तरह के धीरज और धैर्य की दरकार होती है। जनता की कई सतहें और कई वर्ग होते हैं। सबके पक्ष में एकसाथ जुनूनी पत्रकारिता सम्भव नहीं। जनता के सामान्य हितों को सबसे पहले समझना होता है। दिक्कत यह है कि साखदार पत्रकारिता की बात सब करते हैं, पर उसपर चलना नहीं चाहते, क्योंकि ऐसी पत्रकारिता रातों-रात स्टार नहीं बनाती। हम स्टार सिस्टम के शिकार भी हैं जैसे फिल्मों में है। वस्तुतः आज की पत्रकारिता में अभिनय का महत्व ज्यादा है वैचारिक तत्व का कम।

करन थापर का कार्यक्रम देखने के लिए इस लिंक को क्लिक करें।
The Last Word: Media and Manmohan Singh - Videos - India - IBNLive

2 comments:

  1. Our corrupt system don't like unbiased peoples either they are Judges, Government officers, Police, Journalists or a common man. Unbiased and true persons are pushed in corners because no one is behind them. Your post is very good.

    Regards,
    Ravinder S. Mann

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  2. आपके विचार सटीक हैं। हालांकि अभी भी पत्रकारिता में काफी लोग ऐसे हैं जो निष्‍पक्ष हैं या कहें कि वैचारिक तौर पर किसी एक खूंटे से बंधे होने के बावजूद जिन मसलों को आपने उठाया है, उन्‍हें लेकर उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता से जुड़ी है। लेकिन शायद यही कारण है कि वह ऐसे मंचों पर अपने को फिट नहीं पाते या कथित तटस्‍थ लोग उन्‍हें अनफिट करार दे देते हैं।

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