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Saturday, November 27, 2010

क्या हैं टू जी, थ्रीजी और सीएजी

जेपीसी क्या होती है? और पीएसी क्या होती हैदूरसंचार आयोग क्या काम करता  है? और इन दिनों चल रहे दूरसंचार घोटाले का मतलब क्या है? किसने क्या फैसला किया और क्यों किया? सीएजी क्या करता है? उसे रपट लिखने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? उसकी रपट में क्या है?

मैं अपने आपको एक आम हिन्दी पाठक की जगह रखकर देखता हूँ तो ऐसे तमाम सवाल मेरे मन में उठते हैं। उसके बाद सुबह का अखबार उठाता हूँ तो कुछ और सवाल जन्म ले लेते हैं। टीआरएआई, जीओएम, एडीएजी, एफसीएफएस, 2जी, 3जी वगैरह-वगैरह के ढेर के बीच एक बात समझ में आती है कि कोई घोटाला हो गया है। मामला करोड़ों का नहीं लाखों करोड़ का है।


पाठक के रूप में मुझे लगता है कि ये सब चोर हैं। कोई नहीं चाहता कि हालात सुधरें। एक फँसता है तो दूसरा उसके कॉलर पकड़ता है। जैसे ही दूसरे को मौका मिलता है वह पहले की गर्दन पकड़ता है कि तू भी तो चोर है। पर मैं तो जागरूक पाठक हूँ, क्योंकि अखबार पढ़ता हूँ। ऊपर जो एबीसीडी लिखी है वह मुझे समझ में नहीं आती, पर मेरा हिन्दी अखबार मुझसे कहता है, रियल ग्लोबल-रीडर बनने के वास्ते इंग्लिश जानो। वह अखबार अपने अच्छे भले पुराने नाम के ऊपर कुछ इसी तरह का सीटीबीटी जैसा नाम छापता है।

मुझे इसमें कोई दिक्कत नहीं, पर मुझे मेरा अखबार यह नहीं बता पाता कि जेपीसी बन जाएगी तो क्या हो जाएगा और नहीं बनी तो क्या होगा। वह अपनी राय भी नहीं बताता। बल्कि अक्सर राय देने से बचता है। बीच का रास्ता निकालता है। वह मुझे मेरी समस्याओं से हटाकर अक्सर मनोरंजन की दुनिया में ले जाना चाहता है। वह बताता है कि अब फेसबुक से भी मेल कर सकते हो। यह भी कि बिग बॉस में पामेला एंडरसन आने वाली है। या टी-20 की हलचल में उलझा देता है। 

दिल्ली में बड़ा हादसा हो गया। 71 लोग मर गए। उसने यह खबर भी छापी। हमदर्दी के साथ छापी। पर मरने वाले ज्यादातर गरीब लोग थे। उसने या किसी भी अखबार ने नहीं बताया कि ये गरीब लोग दिल्ली में रहते कैसे हैं। दिल्ली वालों को रिक्शे पर लाद कर ले जाने वालों, घरों और कारखानों में काम करने वालों, हेल्परों, कंडक्टरों, ड्राइवरों, मिस्त्रियों, मिकेनिकों, इस्तरी करने वालों, कार धोने वालों, रेहड़ी लगाने वालों यानी छोटे काम करने वालों के लिए इस महंगी दिल्ली में रहने की जगह ऐसे ही खतरों से भरे घरों में है। और अब तो सारे अखबार उस हादसे को भूल चुके हैं। 
   
मैं बहुत ज्यादा देर तक अपने आपको उस पाठक की जगह नहीं रख सकता। उसकी जिज्ञासा खतरनाक शक्ल लेने लगी है। वह समाज-व्यवस्था के बुनियादी सवाल उठाने वाला है। उसे लगता है कि उपहार सिनेमा में आग लगने पर मीडिया की प्रतिक्रिया दूसरे तरह की थी। लक्ष्मी नगर की उस इमारत में शायद वह भी रह चुका है। नहीं रहा है तो उसका दोस्त रह चुका होगा। वह अखबार पढ़ता है इसलिए काफी बातें जानता है। उसके बहुत से परिचित अखबार नहीं पढ़ते। पर वह पढ़ते हुए ही बढ़ा है। अखबार ने उसे ताकतवर बनाया। उसे दिल्ली का रास्ता दिखाया। उसका मनोरंजन, भोजन और बिस्तरा तक अखबार है। उसके जो बंधु अखबार नही पढ़ते उन्हें दुनिया के बारे में वही बताता है। नए जानकार बने उसके साथी गाँव या कस्बे में जाकर दूसरों को जानकारी देते हैं।

ये लोग हताश-निराश नहीं हैं। इनके अंदर अपने जीवन को बेहतर बनाने की ललक है। वे अपने बच्चों के लिए बेहतर जीवन-आधार चाहते हैं। उन्हें मध्यवर्ग न कहें, पर वे निम्न वर्ग से तनिक ऊपर उठ चुके लोग हैं। झुग्गियों में रहने वाले शहरी गरीबों से कुछ बेहतर, जो अनपढ़ नहीं हैं। हिन्दी मीडिया के पाठक या दर्शक के बारे में अक्सर मीडिया हाउसों में चर्चा होती है। उसे सोशियो-इकोनॉमिक क्लासेस के वर्गीकरण में रखकर ए बी और सी या इसी तरह की कैटेगरी में रखते हैं। यह शुद्ध रूप से कारोबारी समझ है। विज्ञापनदाता को वह पाठक चाहिए, जो माल खरीद सके। पर मीडिया को क्या चाहिए? मीडिया को पाठक चाहिए, जो कम से कम अखबार की एक कॉपी खरीद सके। विडंबना है कि गरीब पाठक अमीर पाठकों की तुलना में महंगा अखबार खरीदते हैं। वे अपने अखबार पर ज्यादा भरोसा करते हैं।

पिछले हफ्ते से नीरा राडिया की टेलीफोन वार्ता का प्रसंग उछला है। इसने अचानक सूचना, मीडिया और नैतिकता के कई सवाल खड़े कर दिए हैं। कोई सम्पादक किसी मुख्यमंत्री या राजनेता से क्यों मिलना चाहता है? अपने पाठक तक जानकारी पहुँचाने के लिए या किसी और कारण से? इधर इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता के साथ बातचीत में रतन टाटा ने अपनी चिन्ता व्यक्त की है। उनकी बात से दो चिन्ताएं झलकती हैं। एक फोन टैपिंग गलत है और दूसरे मीडिया दबाव डाल रहा है। मीडिया का दबाव? एक तरफ तो लगता है कि मुख्यधारा के मीडिया ने नीरा राडिया टेप प्रसंग पर रत्ती भर नहीं छापा दूसरी ओर मीडिया के दबाव की बातें हैं। किस मीडिया का किसपर दबाव है? फोन टैपिंग अनैतिक है और अतीत में मीडिया ने हमेशा इस तरह की बातों की आलोचना की है। पर गलत तो स्टिंग आपरेशन भी हैं, पर सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के मामले में उन्हें वैधानिकता प्रदान कर दी। गलत और सही सब कुछ देखना चाहिए, पर वृहत स्तर पर मीडिया क्या कर रहा है इसे भी तो देखना चाहिए।      

हाल के वर्षों में अखबारों ने युवा पाठकों पर ध्यान देना शुरू किया है। किशोर और युवा पाठक संख्या में बढ़ रहे हैं और आने वाले वक्त में वे मुख्य ग्राहक होंगे। यह बात जितनी सच है उतनी ही सच यह बात है कि हिन्दी पाठकों की सबसे बड़ी संख्या नव-साक्षरों की अगली पीढ़ी की होगी। यानी आज के निम्न वर्ग में आने वाले वक्त के सर्वाधिक पाठक हैं। पर वे सिर्फ पाठक नहीं हैं। वे नागरिक हैं। उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकारों और व्यवस्था से परिचित कराने की जिम्मेदारी मीडिया की है। इस मामले में हिन्दी के मीडिया की योजना अंग्रेजी मीडिया से एकदम अलग होनी चाहिए। ऐसा है नहीं, बल्कि हिन्दी के अखबार अंग्रेजी-अखबारों की नकल करने की अधकचरी कोशिश करते हैं। दूसरों से सीखने में कुछ गलत नहीं, पर कुछ बातें खोजी भी जाती हैं। अपनी परिस्थितियों और पाठकों के अनुसार चलने के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों को समझना बेहद ज़रूरी है।  
  
कितने लोग हैं जो जानते हैं कि जेपीसी क्या है, उसका गठन क्यों होता है, कितने जेपीसी गठित हुए हैं। पीएसी क्यों, संसदीय कमेटियाँ क्यों वगैरह। कस्बों और गाँवों के प्रशासन से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक तमाम व्यवस्थाओं, संस्थाओं और व्यक्तियों के बारे में हिन्दी पाठक को बहुत ज्यादा जानकारी चाहिए। यह जानकारी तकरीबन अनुपस्थित है। अंग्रेजी के कुछ अखबरों ने अपने पाठकों को दी। हमें तैयार चीजें शक्ल बदल कर परोसने की आदत है। मैं इसके लिए फिल्मों का उदाहरण देना चाहूँगा। बॉलीवुड ने हॉलीवुड की फिल्मों के पूरे के पूरे सीन बड़ी बेशर्मी से चुराने की आदत हमें डाली। संगीत की धुनें चुराई। ऐसा नहीं कि हमारे पास संगीतकार नहीं थे। लेखकों, संगीतकारों और कलाकारों पर यह दबाव कारोबारियों ने डाला। जो अपने इनवेस्टमेंट पर बेहतर रिटर्न चाहते थे। शॉर्टकट चाहिए। कुछ मौलिक कर पाने का आत्मविश्वास नहीं है। मुझे ऐसा ही अपने मीडिया के साथ नज़र आता है।

टीवी के तमाम सीरियल, रियलिटी शो यहाँ तक कि कौन बनेगा करोड़पति तक कहीं से प्रेरणा पाकर बने हैं। कारोबार में यह भी चलता है, पर सिर्फ यही नहीं चलता। कुछ न कुछ मौलिक भी चाहिए। आभास ज़रूर दिया जाता है, पर इसे हासिल करने की कहीं कोई योजना नहीं है। इस काम के लिए जिस बुनियादी संरचना की ज़रूरत है वह पूरी तरह अनुपस्थित ही नहीं है, उसे हिकारत की नज़रों से देखा जाता है। सिर्फ कारोबारी विकास से कोई समाज आधुनिक नहीं बनता। आधुनिकता और रचनात्मकता के लिए एक मनोदशा चाहिए, कॉज़्मेटिक्स से लिपे-पुते पुतलों की भीड़ नहीं। यह सिर्फ मीडिया तक सीमित नहीं है। पूरे समाज की कहानी है। इस हफ्ते मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। अगले हफ्ते और महत्वपूर्ण होगी। बिहार के चुनाव परिणामों को राजनेता मीडिया की भूमिका के मद्दे-नज़र भी देख रहे हैं। लगातार बढ़ते असमंजस को दूर करने के लिए समझदार मीडिया की ज़रूरत है।          

1 comment:

  1. सादर प्रणाम
    आप हमारे लिये एक अध्यापक का कार्य कर रहें। हम जैसे पत्रकारिता के छात्रों के लिये आपका यह ब्लाग ज्ञान के सागर के स्वरूप है। हम असमर्थ हैं कि किन शब्दों में आपका आभार जतायें।

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