कश्मीर पर केन्द्र सरकार की पहल हालांकि कोई नया संदेश नहीं देती, पर पहल है इसलिए उसका स्वागत करना चाहिए। कल रात 'टाइम्स नाव' पर अर्णब गोस्वामी ने सैयद अली शाह गिलानी को भी बिठा रखा था। उनका रुख सबको मालूम है, फिर भी उन्हें बुलाकर अर्णब ने क्या साबित किया? शायद उन्हें तैश भरी बहसें अच्छी लगती हैं। बात तब होती है, जब एक बोले तो दूसरा सुने। गिलानी साहब अपनी बात कहने के अलावा दूसरे की बात सुनना नहीं चाहते तो उनसे बात क्यों करें?
अब विचार करें कि हम कश्मीर के बारे में क्या कर सकते हैं?
1. सभी पक्षों से बात करने का आह्वान करें। कोई न आए तो बैठे रहें।
2. सर्वदलीय टीम को भेजने के बाद उम्मीद करें कि टीम कोई रपट दे। रपट कहे कि कश्मीरी जनता से बात करो। फिर जनता से कहें कि आओ बात करें। वह न आए तो बैठे रहें।
3. उमर अब्दुल्ला की सरकार की जगह पीडीपी की सरकार लाने की कोशिश करें। नई सरकार बन जाए तो इंतजार करें कि आंदोलन रुका या नहीं। न रुके तो बैठे रहें।
4.उम्मीद करें कि हमारे बैठे रहने से आंदोलनकारी खुद थक कर बैठ जाएं।
इस तरह के दो-चार सिनारियो और हो सकते हैं, पर लगता है अब कोई बड़ी बात होगी। 1947 के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे की सबसे बड़ी कोशिश 1965 में की थी। उसके बाद 1989 में आतंकवादियों को भेजा। फिर 1998 में करगिल हुआ। अब पत्थरमार है। फर्क यह है कि पहले कश्मीरी जनता का काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी कार्रवाई से असहमत होता था। अब काफी बड़ा तबका पाकिस्तान-परस्त है। गिलानी इस आंदोलन के आगे हैं तो उनके पीछे कोई समर्थन भी है। हम उन्हें निरर्थक मानते हैं तो उन्हें किनारे करें, फिर देखें कि कौन हमारे साथ है। उसके बाद पाकिस्तान के सामने स्पष्ट करें कि हम इस समस्या का पूरा समाधान चाहते हैं। यह समाधान लड़ाई से होना है तो उसके लिए तैयार हो जाएं। जिस तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय बैठा देख रहा है उससे नहीं लगता कि पाकिस्तान पर किसी का दबाव काम करता है।
एलओसी पर समाधान होना है तो देश में सर्वानुमति बनाएं। उस समाधान पर पक्की मुहर लगाएं। गिलानी साहब को पाकिस्तान पसंद है तो वे वहाँ जाकर रहें, हमारे कश्मीर से जाएं। अब आए दिन श्रीनगर के लालचौक के घंटाघर पर हरा झंडा लगने लगा है। यह शुभ लक्षण नहीं है।
इसके अलावा कोई समाधान किसी को समझ में आता है उसके सुझाव दें।
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कश्मीर वाकई एक गंभीर समस्या बन चुकी है, और इसमें दोनों देशों के राजनीतिज्ञों का ही हाथ है. मेरे विचार से इसके हल के लिए नरम और गरम दोनों प्रकार के स्वभाव को एक साथ अपनाना पड़ेगा. जो लोग पकिस्तान समर्थक हैं, उन्हें पाकिस्तान के अवैध कब्ज़े वाले कश्मीर में भेज देना चाहिए और LOC को सील कर देना चाहिए. ताकि उन्हें भी तो पता चले पाकिस्तान जैसे भ्रष्ट देश में रहने का मज़ा.
ReplyDeleteमेरे ख़याल से कश्मीरियों को अपनी समस्याओं का निदान चाहिए, उन्हें समझा दिया गया है की भारत से अलग होकर ही उनकी समस्याओं का निदान हो सकता है. अगर हम उन्हें अपना मानते हैं तो उन लोगो से संवाद कायम करके सही सन्देश को लोगो तक पहुँचाना ज़रूरी है.
अगर गरमपंथी कश्मीरी नेताओं को एकदम से किनारे किया गया अथवा उनके खिलाफ कार्यवाही की गई तो यह आग में घी डालने जैसा होगा. इससे उनका मंसूबा पूरा हो जाएगा. बल्कि अभी के लिए नरमपंथी गुटों को आगे लाना चाहिए और धीरे-धीरे गरम पंथी गुटों को समाप्त करने की दीर्घकालीन योजना बनानी चाहिए. यह गुट ही समस्या की सबसे बड़ी जड़ हैं. पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं से आदेश प्राप्त करके, यही लोग कश्मीर की फिजा को खराब करते हैं. इनसे बहुत ही सख्ती से लेकिन चुप-चाप निपनता चाहिए.
प्रधानमत्री का काम सभी पक्षों से बातचीत के ज़रिये समस्या को सुलझाने, लोगों को सरकार के प्रति विश्वास जगाने और रोज़गार के अवसर उपलब्ध करने का होना चाहिए. वहीँ कश्मीर के मुख्यमंत्री का काम गरमपंथियों से निपटने का होना चाहिए, इस काम के लिए कश्मीरी पुलिस को ही महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी. और इसके लिए पुलिस को भरपूर सहयोग मिलना चाहिए. हमारी सेना का काम बोर्डर की सुरक्षा होना चाहिए, क्योंकि यही वह क्षेत्र है जहाँ से आतंकवाद को सबसे अधिक सहारा मिलता है. इसके लिए और अधिक सेना की तैनाती होनी चाहिए. वहीँ प्रदेश की सुरक्षा के लिए लोकल कश्मीरी पुलिस को ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए.
जो लोग यह सोचते हैं कि कांग्रेस को हटा कर कोई हल निकल सकता है, तो चाहे सरकार किसी भी दल के हो बिना इच्छा शक्ति के यह कार्य असंभव है. कांग्रेस से पहले भी कई सरकार आ चुकी हैं, लेकिन नतीजा सिफर ही था. बल्कि उन दिनों में आतंकवाद चरम सीमा पर था. आज अंतर्राष्ट्रीय माहौल के कारण ही सही, आतंकवादी गतिविधियों में कमी आई है और इसका फायदा हमारी सरकार को उठाना चाहिए.
कश्मीर समस्या का हल है धारा ३७० की समाप्ती और संपूर्ण देश से उसका सहज जुड़ाव। अलगाव वादियों के खिलाफ सरकार को कड़ाई से पेश आना चाहिए। सेना के विशेष अधिकार वाले कानून को हटाना या कम किया जाना तो निश्चित तौर पर आत्मघाती होगा ही साथ ही अलगाववादियों के हौसलें बढ़ाने वाला कदम भी होगा।
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