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Thursday, June 10, 2010

पेज 3 वाले अखबार का चिंतन

करीब डेढ़ दशक पहले टाइम्स ऑफ इंडिया ने पेज3 पत्रकारिता शुरू की थी। उद्देश्य एक नए बाज़ार को गढ़ना और उसका फायदा उठाना था। देखते ही देखते सारे अखबारों ने उसकी नकल शुरू कर दी। यहाँ तक कि हिन्दी अखबारों ने, जिनके पाठक पार्टी-कल्चर को समझते नहीं थे, पार्टी खबरें छापनी शुरू कर दीं। खैर टाइम्स ऑफ इंडिया को  गम्भीर पत्रकारिता या कम से कम उसके बाज़ार की गम्भीरता का भी एहसास है। उसकी कवरेज से यह बात नज़र आती है।

कल के टाइम्स ऑफ इंडिया में दो पदों पर नियुक्तियों के लिए प्रार्थना पत्र माँगे गए हैं। एक पद है 'स्पीकिंग ट्री' के सम्पादन के लिए। स्पीकिंग ट्री कॉलम टाइम्स ऑफ इंडिया में देर से शुरू हुआ, पर हिट हो गया। पहले हिन्दू में ऐसा कॉलम चलता था। इसके पाठक खासी संख्या में हैं। पढ़ने वालों में बूढ़े ही नहीं नौजवान भी हैं। टाइम्स का यह कॉलम एडिट पेज पर था। अब इसपर हफ्ते में एक सप्लीमेंट शुरू किया है। टाइम्स के क्रेस्ट संस्करण के बाद यह दूसरा गम्भीर अखबार है। बहरहाल इसके सम्पादन के लिए टाइम्स को फिलॉसफी या कम्पैरेटिव रिलीजन में पीएचडी धारी व्यक्ति की ज़रूरत है। रंग-बिरंगे और मनोरंजन प्रधान सप्लीमेंट के बीच ऐसे सप्लीमेंट या विषय के लिए भी जगह है और टाइम्स ऑफ इंडिया उसके लिए इंतज़ाम कर रहा है, यह ध्यान देने लायक बात है।

कल के टाइम्स में एक अन्य पेज पर एक और विज्ञापन है। इसमें ऐसे व्यक्ति की तलाश है, जो अच्छा ऑब्ज़र्बर  और एनालिटिकल हो। साथ ही उसकी अंग्रेजी की बुनियाद मज़बूत हो। ऐसा व्यक्ति न्यूज़ ऑडिट विभाग के लिए चाहिए। न्यूज़ ऑडिट किसी मैनेजर का दिया शब्द है या सम्पादक का, पर लगता है यह पद 'हिन्दू' के रीडर्स एडिटर जैसा है। सीधे शब्दों में कहें तो यह खबरों की गुणवत्ता पर नज़र रखने का काम है। पहले यह काम सम्पादक खुद करते थे या किसी सीनियर से कराते थे। अब अखबारों में गुणवत्ता, भाषा और नैतिकता वगैरह की जगह नहीं है। चूंकि इसकी ज़रूरत महसूस की गई है, तो इसके लिए एक व्यक्ति की भर्ती की जाएगी।

बेशक यह अच्छा है, पर बदले वक्त में इस काम को करने वाले व्यक्ति की अखबार के प्रभा मंडल में बड़ी भूमिका नहीं होगी। पर जो भी है अच्छा है। बात सिर्फ इतनी है कि ब्रॉडशीट अखबार की साख का चीर हरण करके उसे टेबलॉयड बनाकर बेचना खतरनाक है। उसमें संज़ीदगी की ज़रूरत है। टेबलॉयड बिकते खूब हैं, पर उनकी साख कम होती है। मेरे लिए महत्वपूर्ण यह है कि हिन्दी के अखबार अभी इस बारे में विचार करने की स्थिति में नहीं हैं। धर्म और अध्यात्म पर उनमें भी सप्लीमेंट होते हैं, पर उसके पीछे भक्ति भाव होता है, तुलनात्मक अध्यात्म   का विचार नहीं। अखबार में भाषा और खबरों की गुणवत्ता के बारे में तो यों भी विचार करने वाले लोग अब बहुत कम हैं।

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