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Monday, May 24, 2010

क्या हमें विचार और ज्ञान की ज़रूरत नहीं?



प्रमोद जोशी
इस महीने भारतीय सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आने के बाद एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल ने पंजाब की एक सफल प्रतियोगी संदीप कौर से बात प्रसारित की। संदीप कौर के पिता चौथी श्रेणी के कर्मचारी हैं। यह सफलता बेटी की लगन और पिता के समर्थन की प्रेरणादायक कहानी है। जिस इलाके में स्त्री-पुरुष अनुपात बहुत खराब है और जहाँ से बालिका भ्रूण हत्या की खबरें बहुत ज्यादा आती हैं, उम्मीद है वहां संदीप कौर समाज के सामने नया आदर्श पेश करेगी। पंजाब सरकार ने इस दिशा में पहल भी की है।
संदीप कौर ने यह परीक्षा बगैर किसी कोचिंग के पास की। उसने एक बात और मार्के की कही। वह कहती हैं कि मेरी तैयारी का सबसे महत्वपूर्ण तत्व था दैनिक अखबार द हिन्दू को नियमित रूप से पढ़ना। संदीप के पिता या चचेरा भाई घर से करीब 20 किमी दूर खरड़ कस्बे से हिन्दू खरीद कर लाते थे। रोज़ अखबार नहीं मिलता था, तो अखबार का एजेंट उसके लिए दो-तीन दिन का अखबार अपने पास रखता था। संदीप का कहना है कि मैने हिन्दू के सम्पादकीय पेज पर छपे सारे लेख पढ़े हैं। इसके अलावा अखबार के ओपीनियन सेक्शन की सारी सामग्री भी पढ़ी। इस अखबार में करेंट अफेयर्स, नेशनल और इंटरनेशनल डेवलपमेंट की प्रॉपर इनसाइट मिलती है।
संदीप कौर का हिन्दू पढ़ना व्यक्तिगत पसंद का मामला है, पर पत्रकारिता को लेकर ज़ेहन में एक-दो बातें आतीं हैं। प्रतियोगिताओं की तैयारी करने वालों को हिन्दू पढ़ना पसंद है। इस अखबार में ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों को उचित पृष्ठभूमि के साथ छापा जाता है। बीस साल पहले दूसरे अंग्रेजी अखबार भी इसी तरह पढ़े जाते थे। पर अब शायद हिन्दू ही इस काम के लिए बचा है। इस बात का क्या पत्रकारिता से कोई रिश्ता है? कुछ समय पहले तक अखबार देश-काल का दर्पण होता था। पिछले दो दशक में सारे नहीं तो बड़ी संख्या में अखबारों ने टेबलॉयड अखबारों की सनसनी को अंगीकार कर लिया। एक ने किया तो दूसरे ने उसकी नकल की। बड़ी से बड़ी खबरें मिस होने पर भी अखबारों को शर्मिन्दगी नहीं होती। सामान्य खबरें और उनके फॉलोअप छापना अखबारों की प्राथमिकता में शामिल नहीं।
हिन्दू के बारे में दो-तीन बातें ऐसी हैं, जिन्हें सब मानते हैं। एक खबरों का वज़न तय करने का उसका परम्परागत ढंग है। यह अखबार सनसनी में भरोसा नहीं करता। उसकी एक राजनैतिक लाइन है, जिसे हम नापसंद कर सकते हैं। पर खबरें लिखते वक्त वह पत्रकारीय मर्यादाओं का पालन करता है। रेप विक्टिम का नाम नहीं छापना है, तो हिन्दू उसका पालन करता है। उसकी डिज़ाइन बहुत आकर्षक न लगती हो, पर वह विषय को पाठक पर आरोपित भी नहीं करती। खेल, विज्ञान, विदेशी मामलों से लेकर लोकल खबरों तक उसकी खबरें ऑब्जेक्टिविटी की परिभाषा पर खरी उतरतीं हैं। उसकी फेयरनेस पर आँच आने के भी एकाध मौके आए हैं। खासतौर से बंगाल में सिंगूर की हिंसा के दौरान उसकी कवरेज में एक पक्ष नज़र आया। यह उसकी नीति है। और किसी अखबार को उसका हक होता है। उसकी इस नीति और विचारधारा की आलोचना की जा सकती है, पर उसके सम्पादकीय और ऑप-एडिट पेज की गुणवत्ता के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं।
इस लेख को शुरू करते वक्त मेरा उद्देश्य हिन्दू की प्रशंसा करना नहीं था। मैं दो-तीन बातों को हाइलाइट करना चाहता था। उसमें एक तो यह बात कि कुछ साल पहले तक अखबारों में अपने व्यवसाय को लेकर भी सामग्री पढ़ने को मिल जाती थी। मसलन जस्टिस गजेन्द्र गडकर की अध्यक्षता में बने पहले प्रेस आयोग की सिफारिश थी कि पत्र उद्योग को शेष उद्योग से डिलिंक किया जाय। यह विषय अखबारों के सम्पादकीय पेज पर भी उपस्थित था। आज का मीडिया अपने कारोबार के बारे में डिसकस करने को तैयार नहीं। इसलिए पेड न्यूज़ का मामला जब आया तब पी साईंनाथ के लेखों के लिए सिर्फ हिन्दू में ही जगह थी। ऐसा उसकी ओनरशिप के कारण हुआ। बेशक इंडियन एक्सप्रेस, टेलिग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया का कवरेज स्तर आज भी काफी अच्छा है, पर कारोबार के मामले में उनपर पक्का यकीन नहीं किया जा सकता।
अखबारों के सम्पादकीय पेज और सम्पादकीय के बारे में भी सोचने का ज़माना शायद गया। यह सब मैं अंग्रेज़ी के अच्छे अखबारों के संदर्भ में कह रहा हूँ। हिन्दी अखबारों की बात अभी नहीं है। किसी ने कहा कि डीएवीपी की शर्त है कि सम्पादकीय होना चाहिए, वर्ना इसकी ज़रूरत ही क्या है। वास्तव में ज़रूरत नहीं है। जब जेब में विचार ही नहीं है, तब चेहरे पर विचारक की मुद्रा बनाने की ज़रूरत भी नहीं होनी चाहिए। संदीप कौर को एडिट पेज की ज़रूरत इसलिए थी क्योंकि सिविल सेवा परीक्षा के जनरल स्टडीज़ में करेंट अफेयर्स के सवाल पूछे जाते हैं। आज कौन बनेगा करोड़पति जैसा कोई कार्यक्रम भी नहीं है, जो लोगों को सामान्य ज्ञान की ज़रूरत हो। वास्तव में प्रथमिकता हमारी रोजी से तय होती है और हमारी रोजी में ज्ञान की ज़रूरत नहीं रह गई है।
किसी ने सलाह दी कि अखबार में विचार के पेज का मतलब क्या है। आप समाचार दीजिए पाठक अपने विचार बना लेगा। यों भी एडिट पेज को चार-छह फीसदी लोग ही पढ़ते हैं। बात सच है, पर हम अपने आसपास देखें। हमें ओपीनियन लीडर्स की ज़रूरत होती है। ऐसा न होता तो चैनलों पर सनसनीखेज खबर आते ही उसका विश्लेषण करने वालों की ज़रूरत महसूस होने लगती है। हाँ यह भी सही है कि मरे हुए विचार, पिटा-पिटाए तरीके से पेश करके हम विचार की बेइज्जती करते हैं। ऐसा क्यों है और रास्ता क्या है? इसका उत्तर देने के बजाय हम विचार की अवधारणा को ही त्याग देंगे, तो जो शून्य पैदा होगा वह खौफनाक होगा।
हिन्दी अखबार की सबसे बड़ी ज़रूरत पृष्ठभूमि देने की है। हमारा पाठक जानना चाहता है। उसे ज़मीन से आसमान तक की बातों की ज़रूरत है। हम उसे फैशन परेड की तस्वीरें, पार्टियां, मस्ती वगैरह पेश कर रहे हैं। यह सब भी ठीक है, पर उसके पहले बुनियादी ज्ञान की ज़रूरत है। संदीप कौर को कोई हिन्दी अखबार पसंद क्यों नहीं था? इसकी एक वजह यह भी है कि कोई हिन्दी अखबार हिन्दू जैसा बनना नहीं चाहता। हिन्दी में ज्ञान से जुड़ी बातें अधकचरा और अविश्वसनीय होतीं हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हम युवा पत्रकारों को ज्ञान और विचार के लिए तैयार करें। चूंकि इस काम को प्रफेशनल ढंग से नहीं किया गया है इसलिए विचार की डोर एक्टिविस्ट्स के हाथों चली गई है। उनके पास विचार तो हैं, पर किसी एक संगठन या विचार से जुड़े हुए। वे अपने प्रतिस्पर्धी विचार को दबाना चाहते हैं। बहरहाल इस रास्ते पर सोचना चाहे। सम्पादकीय पेज पर फिल्मी कलाकारों के या सेलेब्रिटीज़ के लेख छापकर पाठकों का ध्यान तो खींचा जा सकता है, पर एक समझदार समाज की रचना नहीं हो सकती। पता नहीं समझदार समाज की रचना अखबार की जिम्मेदारी है भी या नहीं।

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