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Thursday, May 13, 2010

आज़ाद अखबार 

पेड न्यूज़ का मसला अखबारों की सुर्खियों में तो नहीं रहा, नेट पर उपस्थित हिन्दी की साइटों में भी चर्चा का खास विषय नहीं बना। प्रभाष जोशी ने इसे उठाया, पर चर्चा के लिए आधार सामग्री पी साईनाथ ने तैयार की। शायद हिन्दु ही इस तरह की सामग्री छापने के लिए उपयुक्त अखबार है। बहरहाल यह बात चर्चा में आई। चुनाव आयोग और प्रेस काउंसिल ने तफतीश शुरू की। पता नहीं यह तफतीश कहाँ पहुंचेगी, पर अपने अनुभव से मैं इतना जानता हूँ कि अखबारों की ओनरशिप के वतर्मान स्वरूप में इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।

जब सोवियत यूनियन था और चीन माओ के प्रभाव में था, तब हम मानते थे कि कम्युनिस्ट देशों में फ्री प्रेस नहीं है। सिविल लिबर्टी नहीं हैं। पश्चिम के पूँजीवादी समाज में  स्वतंत्रता है। वास्तव में पश्चिमी अखबार स्वतंत्र थे औऱ काफी हद तक हैं। हमारे अखबार भी आज़ाद थे। आज भी आप उन्हें आज़ाद कह सकते हैं, पर यह आज़ादी उच्छृंखलता की सीमा तक है। निजी क्षेत्र को खुला मौका देने का सबसे अच्छा उदाहरण आईपीएल है। खेल से खेल गायब हो गया। राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मौका आया तो धोनी साहब बोले कि आईपीएल में हमें पार्टियाँ अटेंड करनी पड़तीं थीं। हम थक गए। क्रिकेट की संरक्षक बीसीसीआई अब एक ऊँची दूकान है। उसे चलाने वाले कुशल व्यापारी हैं। उन्होंने उसे सफल व्यवसाय बना दिया। उसका खेल गायब हो गया।

ऐसा ही पत्रकारिता में हुआ। मैनेजरों ने उसे सफल व्यवसाय बना दिया, पर पत्रकारिता ग़ायब कर दी। पेड न्यूज़ का मतलब है, वह खबर जो पैसे के प्रभाव में छापी गई है। वह खबर होती तो मुफ्त में छपती। खबर नहीं थी, इसीलिए पैसा दिया गया। ऐसा सिर्फ इसलिए नही हुआ कि प्रत्याशियों के लिए खर्च की सीमा कम थी। ऐसा होता तो प्रत्याशी अपने कागजात में जो खर्च दिखाते हैं, वह खर्च की सीमा के आसपास तो होता। 540 में से सिर्फ दस -बीस  ने सीमा के आसपास खर्च किया।

विज्ञापन देकर काम हो जाता तब भी बात थी। प्रत्याशी खबर चाहते हैं। मनमर्जी की खबर। पत्रकारों की ट्रेनिंग होती है कि वे खबर की मर्यादा रेखा को जानते हैं। इस मर्यादा रेखा को और पत्रकार के इस अधिकार को नए मैनेजर चुनौती मानते हैं। अब वे सम्पादक के पद को लेकर बेहद आक्रामक हो गए हैं। इधर ज्यादातर अखबारों में चालीस साल की उम्र के सम्पादक रखने का चलन बढ़ा है। क्यों चाहते हैं चालीस साल का सम्पादक ? आज की तारीख में हम मानें कि हिन्दी पत्रकार 23 से 25 साल की उम्र में पत्रकार बनता है। आज 40 साल की उम्र के पत्रकार ने 1993 से 1995 के बीच काम शुरू किया होगा। यह दौर आर्थिक उदारवाद शुरू होने का है। इस पत्रकार को दीक्षा मिलती थी अपने सीनियर से। वह सीनियर आपत्काल के बाद या उसके आसपास आया था। उसके भीतर पत्रकारिता की मर्यादा के कुछ कीटाणु थे। उस सीनियर को काट दिया। अब बिजनेस का दौर है। शुद्ध बिजनेस।

पत्रकारिता प्रबंध व्यवस्था है तो  आईआईएम में कोर्स शुरू कर दीजिए। ऐसा हो नहीं पाएगा, क्योंकि वहां पश्चिमी समझ के अध्यापक हैं। पश्चिम में रूपर्ट मर्डोक ने पत्रकारिता को धंधा बना दिया है, पर अखबारों की गम्भीरता को उस तरह खत्म नहीं किया जा सका जैसा हमारे यहाँ हुआ।

सवाल है पेड न्यूज़ में क्या खराबी है ? कारोबार के लिहाज़ से कोई खराबी नहीं है। मैनेजर की समझ से पैसा लाने का यह एक ज़रिया है। पर सम्पादक की नज़र से यह पाठक के साथ धोखा है। अभी तक पाठक के हित देखने की ज़िम्मेदारी सम्पादक की थी। पर इसके लिए सम्पादक को ताकतवर बनाने और समाज के प्रति जवाबदेह बनाने की ज़रूरत है। शायद हमारा पाठक इस बात को नहीं समझता। जब समझेगा, तब वह अखबार से कुछ उम्मीद भी करेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि अखबार रहें या न रहें सूचना की कोई व्यवस्था ज़रूर होगी। यह सूचना खरीदने या बेचने की चीज़ नहीं हो सकती। सूचना व्यवस्था आज़ाद होनी चाहिए। यह आज़ादी सरकारी और गैर-सरकारी यानी कारोबारी दबाव से मुक्त होनी चाहिए। फिलहाल मुझे लगता है कि अखबारों का कारोबार ही उसके मूल्यों का शत्रु बन गया है।

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