Friday, March 17, 2023

इमरान की गिरफ्तारी होने या नहीं होने से खत्म नहीं होगा पाकिस्तान का राजनीतिक-संकट


हालांकि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान फिलहाल गिरफ्तारी से बचे हुए हैं, पर लगता है कि तोशाखाना केस में वे घिर जाएंगे. इस्लामाबाद हाईकोर्ट ने उनके गिरफ्तारी वारंट पर फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है, जिसका मतलब है कि अदालत ने इस मामले में फौरन रिलीफ नहीं दी है. लाहौर हाई कोर्ट ने पहले गुरुवार सुबह 10 बजे तक ज़मान पार्क में पुलिस-कार्रवाई पर रोक लगाई और फिर उसे एक दिन के लिए और बढ़ा दिया. इससे फिलहाल टकराव रुक गया है, पर राजनीतिक-संकट कम नहीं हुआ है. वस्तुतः गिरफ्तारी हुई, तो एक नया संकट शुरू होगा. और नहीं हुई, तो एक नज़ीर बनेगी, जो देश की कानून-व्यवस्था के लिए सवाल खड़े करेगी. उधर तोशाखाना केस की सुनवाई कर रहे जज ने कहा है कि इमरान अदालत में हाजिर हो जाएं, तो गिरफ्तारी वारंट वापस हो जाएगा.

पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक और सामरिक संकटों का हल तभी संभव है, जब वहाँ की राजनीतिक-शक्तियाँ एक पेज पर आएं. ताजा खबर है कि प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने इसकी पेशकश की है, और इमरान ने कहा है कि देशहित में मैं किसी से भी बात करने को तैयार हूँ। फिर भी इसकी कल्पना अभी नहीं की जा सकती है. सरकार और इमरान के राष्ट्रीय-संवाद के बीच तमाम अवरोध हैं। बहरहाल जो टकराव चल रहा है, उसे किसी तार्किक परिणति तक पहुँचना होगा. इस संकट की वजह से अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का बेलआउट पैकेट खटाई में पड़ा हुआ है.

आर्थिक-संकट

पाकिस्तान की कोशिश है कि अमेरिका की मदद से मुद्राकोष के रुख में कुछ नरमी आए. पिछले हफ्ते देश के वित्त सचिव हमीद याकूब शेख ने कहा था कि पैकेज की घोषणा अब कुछ दिन के भीतर ही हो जाएगी. यह बात पिछले कई हफ्तों से कही जा रही है. मुद्राकोष देश की वित्तीय और खासतौर से राजनीतिक-स्थिति को लेकर आश्वस्त नहीं है. दूसरी तरफ ऐसी अफवाहें उड़ाई जा रही हैं कि आईएमएफ ने देश के नाभिकीय-मिसाइल कार्यक्रम को रोकने की शर्त भी लगाई है. इसपर सरकार ने सफाई भी दी है.

Thursday, March 16, 2023

सऊदी-ईरान समझौता और पश्चिम एशिया में चीन की बढ़ती भूमिका

 


देस-परदेश

इस्लामिक देशों में सऊदी अरब और ईरान के बीच पुरानी प्रतिद्वंदिता है. उसके पीछे ऐतिहासिक कारण भी हैं. पिछले कुछ वर्षों से यह इतनी कटु हो गई थी कि दोनों देशों ने आपसी राजनयिक-संबंध भी तोड़ लिए थे. अब ये रिश्ते चीन की मध्यस्थता में फिर से कायम होने जा रहे हैं. इस्लामिक देशों की एकता और सहयोग की दृष्टि से तथा आने वाले समय की वैश्विक-राजनीति की दृष्टि से यह समझौता महत्वपूर्ण साबित होने वाला है.

बेशक दोनों देशों के दूतावास अगले दो महीनों के भीतर काम करने लगेंगे, पर यह सब जितना आसान समझा जा रहा है, उतना आसान भी नहीं है. इसीलिए इसे लागू करने के लिए दो महीने का समय रखा गया है, ताकि सभी जटिलताओं को सुलझा लिया जाए.  

चीन की भूमिका

दोनों देशों के बीच चार दिन की बातचीत के बाद इस बात की घोषणा होने पर पर्यवेक्षकों को हैरत उतनी नहीं हुई, जितनी इसमें चीन की भूमिका को लेकर विस्मय पैदा हुआ है. क्या चीन अब वैश्विक-डिप्लोमेसी में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है? चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इसे चीन के ग्लोबल सिक्योरिटी इनीशिएटिव (जीएसआई) की देन बताया है.

पिछले सात दशकों से पश्चिम एशिया में अमेरिका ही सबसे बड़ी भूमिका निभाता रहा है. यह पहला मौका है, जब इस भूमिका में चीन सामने आया है. ऐसी बैठक कराने में अमेरिका सबसे समर्थ है, पर ईरान के साथ उसके रिश्ते अच्छे नहीं हैं. फिर भी पश्चिमी पर्यवेक्षक मानते हैं कि संबंध-सुधार की इस प्रक्रिया के पीछे भी अमेरिकी सहमति है, क्योंकि वह पश्चिम एशिया में इसरायल-फलस्तीन झगड़े का निपटारा कराने के लिए ज़मीन तैयार कर रहा है.

 

अमेरिकी रज़ामंदी

अमेरिका ने समझौते का स्वागत किया है. ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता केरिन जीन-पियरे ने कहा कि यमन में युद्ध रोकने की किसी भी कोशिश का अमेरिका समर्थन करता है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति बाइडन ने जुलाई में इस इलाक़े में तनाव कम करने की कोशिश और राजनयिक रिश्तों को मज़बूत करने के कदमों को अमेरिकी विदेश नीति की बुनियाद बताया था. खाड़ी क्षेत्र में तनाव कम करना अमेरिका की प्राथमिकता है हम इस समझौते का समर्थन करते हैं.

दूसरे नज़रिए से देखें, तो यह परिघटना अमेरिका को परेशान करने वाली होनी चाहिए, क्योंकि इससे ईरान को अलग-थलग करने की उसकी कोशिश को धक्का लगेगा. इसके पीछे कौन सी ताकत है और किसकी क्या भूमिका है, इसे स्पष्ट होने में भी कुछ समय लगेगा.

कड़वाहट की वज़ह

2016 में प्रतिष्ठित शिया धर्म गुरु निम्र अल-निम्र सहित 47 लोगों को आतंकवाद के आरोपों में सऊदी अरब में फाँसी दिए जाने के बाद ईरान और सऊदी रिश्ते खराब हो गए. इसके कारण जब भीड़ ने तेहरान स्थित सऊदी दूतावास पर हमला बोला, तो राजनयिक रिश्ते भी टूट गए. इसके बाद रिश्ते बिगड़ते ही गए और 2019 ईरान में बने ड्रोनों ने जब सऊदी तोल-शोधक कारखानों पर हमले किए तो और बिगड़ गए.

इन दोनों देशों की प्रतिद्वंदिता का असर लेबनान, सीरिया, इराक़ और यमन समेत पश्चिम एशिया के कई देशों और समाजों पर पड़ रहा है. इस इलाके में चल रहे सशस्त्र-आंदोलनों में इन देशों के समर्थन से सक्रिय गुटों की भूमिका है. अभी तक अमेरिका और इसरायल की इन रिश्तों को बनाने और बिगाड़ने में भूमिका थी, पर पिछले कुछ समय से चीन और रूस की गतिविधियाँ भी इस इलाके में बढ़ी हैं. इस लिहाज से ताज़ा घटनाक्रम महत्वपूर्ण है.

प्रयासों की पृष्ठभूमि

गत 10 मार्च को ईरान की सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी अली शमखानी और सऊदी सुरक्षा सलाहकार मुसाद बिन मुहम्मद अल-ऐबान की बैठक अप्रत्याशित घटना नहीं थी, क्योंकि पिछले कुछ समय से ऐसी खबरें हवा में हैं कि दोनों के बीच अनौपचारिक स्तर पर बातचीत होने लगी है. हैरत इस बैठक के स्थान को लेकर है, जो पश्चिम एशिया के किसी देश में न होकर चीन में था, जिसकी अब तक पश्चिम की राजनीति में बड़ी भूमिका नहीं थी.

Tuesday, March 14, 2023

शब्दों से एक रोचक मुलाकात

अस्सी के दशक में कभी लखनऊ में रंजीत कपूर के निर्देशन में मैंने बेगम का तकिया नाटक देखा था। तब तक मुझे तकिया शब्द का मतलब सिरहाने लगाने वाला तकिया ही समझ में आता था। मसलन भरोसा करना, फ़क़ीर का आवास, क़ब्रिस्तान और छज्जे में रोक के लिए लगाई गई पत्थर की पटिया, जिसे अंग्रेजी में पैरापीट कहते हैं वगैरह। शब्दों का यह अर्थ-वैविध्य देश-काल के साथ तय होता है। जहाँ शब्द गढ़ा गया या जहाँ से और जब होकर गुज़रा। वक्त के साथ यह भी पता लगा कि शब्दों के मतलब बदलते भी जाते हैं। हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ' को हाथ में लेते ही शब्दों से मुलाकात के कुछ पुराने प्रसंग याद आते चले गए।  

व्यक्तिगत रूप से मेरी मुलाकात शब्दों और उनके बनते-बिगड़ते रूपों के साथ अखबार की नौकरी के दौरान हुई। एक समय तक भाषा की ढलाई और गढ़ाई का काम अखबारों में ही हुआ था। कई साल तक मैंने कादम्बिनी में ज्ञानकोश नाम से एक कॉलम लिखा, जिसमें पाठक कई बार शब्दों का खास मतलब भी पूछते थे। नहीं भी पूछते, तब भी शब्द-संदर्भ निकल ही आते थे। एकबार किसी ने साबुन के बारे में पूछा, तो उसके जन्म की तलाश में मैंने दूसरे स्रोतों के अलावा अजित वडनेरकर के ब्लॉग शब्दों का सफर की मदद ली। 1993 में मैंने कुछ समय के लिए जयपुर के नवभारत टाइम्स में काम किया, तो एक दिन वहाँ अजित जी से मुलाकात भी हुई थी। शायद वे उस समय कोटा में अखबार के संवाददाता थे। पर मुझे उनके कृतित्व का पता अखबारी कॉलम से काफी बाद में लगा।

Sunday, March 12, 2023

विदेश में राहुल का भारतीय-लोकतंत्र पर प्रहार


हाल में ब्रिटेन-यात्रा के दौरान राहुल गांधी के बयानों की ओर देश का ध्यान गया है। वे क्या कहना चाहते हैं और क्यों? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनकी बातों से कांग्रेस पार्टी की छवि बेहतर बनाने में मदद मिलेगी? इन बातों का ब्रिटिश समाज से क्या लेना-देना है और भारत का मतदाता क्या उनसे सहमत है? उम्मीद थी कि भारत-जोड़ो यात्रा के बाद वे परिपक्व हो चुके होंगे और अब नए सिरे से अपनी बात रखेंगे। पर उनके पास वही पुराना मोदी-मंत्र है और अपनी बात कहने का विदेशी-मंच। क्या उन्हें भारत में कोई ऐसी जगह नजर नहीं आई, जहाँ से वे अपनी बात कह सकें? वे किसे संबोधित कर रहे हैं, भारतीयों को या विदेशियों को? दस दिन के अपने प्रवास में राहुल गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक बिजनेस स्कूल और ब्रिटिश संसद में एक कार्यक्रम को संबोधित किया, भारतवंशियों से भेंट की, ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय पत्रकारों के एक संगठन की संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया और चैथम हाउस में हुई एक बातचीत में भाग लिया। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वक्तव्य में उन्होंने लोकतंत्र, फ्री प्रेस और पेगासस आदि पर अपने विचार रखे। उन्होंने भारत की केंद्र-सरकार पर लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हमला करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के लिए जो संस्थागत ढांचा चाहिए जैसे संसद, स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका… इन सभी पर अंकुश लग रहा है। मेरे खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो किसी भी परिस्थिति में आपराधिक मामले नहीं हैं। जब आप मीडिया और लोकतांत्रिक ढांचे पर इस प्रकार का हमला करते हैं तो विरोधियों के लिए लोगों के साथ संवाद करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

प्रश्न और प्रति-प्रश्न

राहुल गांधी के इन वक्तव्यों से कुछ सवाल खड़े हुए हैं। उन्होंने विदेश जाकर भारतीय-व्यवस्था की जो आलोचना की है, उसे क्या सामान्य राजनीतिक-आलोचना माना जाए? देश के प्रमुख विरोधी-दल के नेता से उम्मीद यही की जाती है कि वह व्यवस्था-दोषों पर रोशनी डाले। आलोचना व्यवस्था की है, तो वे अमेरिका और ब्रिटेन से किस प्रकार का हस्तक्षेप चाहते हैं? अपने देश में पराजित-पार्टी अपनी विफलता का ठीकरा सत्ताधारी दल पर क्यों फोड़ना चाहती है? क्या यह सच नहीं कि 2014 के चुनाव के पहले से ही ब्रिटिश अखबार गार्डियन में उन्हीं लोगों के पत्र और लेख छपने लगे थे, जो आज राहुल गांधी के कार्यक्रमों के पीछे हैं? ऐसी ही आलोचना क्या ब्रिटेन के राजनेता भारत आकर अपनी व्यवस्था की कर सकते हैं? बेशक उनकी व्यवस्थाएं हमारी व्यवस्था से बेहतर हैं, पर आलोचना तो उनकी भी होती है। वहाँ भी सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्ते  खराब रहते हैं, पर राजनीतिक-संवाद का तरीका हमारे तरीके से फर्क है। ब्रिटिश या अमेरिकी राजनेता भारत में आकर अपनी व्यवस्था की आलोचना कर भी लें, पर क्या चीन, रूस, तुर्की, सऊदी अरब, ईरान के राजनेता अपने शासन की आलोचना करके वापस अपने देश में सुरक्षित जा सकते हैं, जिनके साथ अब भारत की तुलना की जा रही है? क्या ये बातें औपनिवेशिक ब्रिटिश-धारणा को सही साबित कर रही हैं कि भारत अपने लोकतंत्र का निर्वाह नहीं कर पाएगा?  भारत में फासिज्म है, तो राहुल गांधी इतनी आसानी से अपनी बात कैसे कह पा रहे हैं? यदि उनकी घेराबंदी इतनी जबर्दस्त है, तो वे अपनी भारत-जोड़ो यात्रा को सफलता के साथ किस प्रकार पूरा कर पाए? क्या भारतीय मीडिया में राहुल गांधी और कांग्रेस के समर्थन और नरेंद्र मोदी की आलोचना में लेखों का प्रकाशन संभव नहीं है?

परिपक्व राहुल

इन कार्यक्रमों को आयोजित करने वाले मानते हैं कि इन कार्यक्रमों से केवल भारत की राजनीति से जुड़े प्रश्नों पर बहस खड़ी होगी, बल्कि दोनों देशों के सांस्कृतिक, सामाजिक और कारोबारी रिश्तों को भी बढ़ावा मिलेगा, जिसमें वहाँ रहने वाले भारतवंशी सेतु का काम करेंगे। उनके समर्थक मानते हैं कि राहुल गांधी ने अपनी परिपक्वता के झंडे गाड़ दिए हैं और उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी सारी बातें गोल-मोल, अटपटी और अबूझ पहेली जैसी रही है। उनसे जो नीतिगत सवाल पूछे गए, उनके जवाबों को लेकर भी काफी चर्चा है। खासतौर से जब उनसे पूछा गया कि यदि उनकी सरकार आई, तो उनकी विदेश-नीति में नया क्या होगा, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह काफी लोगों को समझ में नहीं आया। ब्रिटेन जाकर वे चीन की तारीफ क्यों कर रहे हैं? भारत को राज्यों का संघ बताकर वे क्या साबित करना चाहते हैं? वे पिछले एक साल में कम से कम तीन बार कह चुके हैं कि भारत राष्ट्र नहीं है, केवल राज्यों का संघ है। संविधान के पहले अनुच्छेद में यह लिखा गया है तो इससे क्या भारत का राष्ट्र-राज्य होना खारिज हो गया? ऐसा है, तो प्रस्तावना में 'राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता' का क्या मतलब है? हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य क्या था? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस क्या है? क्या राज्यों ने भारत का गठन किया है जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन हुआ था? 

देश के इन राज्यों और नागरिकों के बीच हजारों साल से संवाद चलता रहा है। हमारा समाज गतिशील है। तीर्थयात्राओं और साधुओं की यात्राओं के मार्फत यह संवाद चलता रहा है। विविधता के बीच यही हमारी एकता का प्रमाण है। राहुल के विरोधी मानते हैं कि उनकी इस यात्रा के पीछे, पश्चिमी-देशों के भीतर सक्रिय भारत-विरोधी लॉबी है, जिसका जिक्र हाल में अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस के बयानों के कारण हुआ था। क्या इसे भारतीय राजनीति में पश्चिमी हस्तक्षेप का हिस्सा माना जाए? क्या इन कार्यक्रमों से राहुल गांधी की साख बढ़ी है?

Saturday, March 11, 2023

चीन पर काबू पाने की कोशिशें

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-2, इस आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ


नब्बे के दशक के वैश्वीकरण का सबसे बड़ा फायदा चीन को मिला. पश्चिमी देशों के पूँजी निवेश के कारण उसकी अर्थव्यवस्था का तेज विस्तार हुआ. पश्चिम को शुरुआती वर्षों में चीन का उदय अपने पक्ष में जाता नज़र आता था, पर ऐसा हुआ नहीं. सामरिक और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर चीन आज पश्चिम के सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आया है. असली टकराव अब अमेरिका और चीन के बीच है.

हाल में जी-20 की बैठक में भाग लेने आए रूसी विदेशमंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा कि हम भारत और चीन की दोस्ती चाहते हैं. रूस, भारत और चीन के विदेशमंत्री इस साल त्रिपक्षीय समूह की बैठक के लिए मिलेंगे, पर भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि जब तक उत्तरी सीमा की स्थिति में सुधार नहीं होगा, भारत ऐसी किसी बैठक में भाग नहीं लेगा. आरआईसी (रूस, भारत, चीन) के विदेशमंत्री पिछली बार नवंबर 2021 में वर्चुअल माध्यम से मिले थे. फरवरी 2022 में यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से नहीं मिले हैं. लावरोव जो भी कहें भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा आकाश में लिखी दिखाई पड़ती है. रूस और चीन के हित भी टकराते हैं, पर आज वे दिखाई पड़ नहीं रहे हैं.

अमेरिकी रुख

भारत और अमेरिका आज जितने करीबी नज़र आ रहे हैं, उतने अतीत में नहीं थे. 1971 में बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अमेरिका की दिलचस्पी चीन से दोस्ती गाँठने की थी, ताकि वह रूस को संतुलित करने वाली ताकत बने. पर चीन अब भस्मासुर बन चुका है. बांग्लादेश की मुक्ति सामान्य लड़ाई नहीं थी. उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसे फिर से पढ़ने की जरूरत है.

उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है, पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर धकेला.

1998 में भारत के एटमी परीक्षण के फौरन बाद पाकिस्तान ने भी एटमी परीक्षण किया. दुनिया जानती थी कि पाकिस्तानी एटम बम वस्तुतः चीनी मदद से तैयार हुआ है. उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, ‘हमारी सीमा पर एटमी ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है… इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है.’ कहा जाता है कि अमेरिकी प्रशासन ने इस पत्र को सोच-समझकर लीक किया. यह अमेरिकी नीति में बदलाव का प्रस्थान-बिंदु था.

चीन पर नकेल

अमेरिका अब उस प्रक्रिया को उलटना चाहता है, जिसके कारण चीन का आर्थिक महाविस्तार हुआ है. सवाल है कि क्या उसे सफलता मिलेगी? हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड एक कदम है. उधर अमेरिका के दबाव में दिसंबर 2020 में हुआ यूरोपियन यूनियन और चीन का कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) खटाई में पड़ गया. इस निवेश समझौते (सीएआई) पर सहमति सात साल तक चली बातचीत के बाद जाकर बनी थी. इसमें व्यवस्था थी कि ईयू और चीन की कंपनियां एक दूसरे के यहां आसानी से निवेश कर पाएंगी.